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1.12.09

मस्त सवेरे की आस

उन्हें समझ कहाँ आती भाषा,
अपनी
दर्द,मरहम और पीड़ा की 

हाँ पढ़ी थी कभी कहानियाँ, किताबों में 
खबर नहीं उन्हें
 माँ के लिए साँसें खरीदने वाले 
अखबार बेचते बच्चों की 
बिक जाता हैं बचपन कोढ़ियों में
 ये फर्क वो क्या जी पाएंगें
 जिनकी सोच से कोसों दूर
 दूनियाँ होती है इधर फूटपाथों पर भी 
रफ्ता रफ्ता मरते लोगों की
 गरीब की कुटिया, टूटी छप्पर
 और जरूरी बर्तन, सब बहुत अजायबघर सा 
एकदम अजीब सा था उनको देखना
 ना सुनी होगी रात के सन्नाटे को 
तोड़ती बुढ़े बाप की खाँसी उन्होंने
 और ना कभी आशाओं के मरने 
की जबरस्त आवाज़, 
पता नहीं कब ये महल झुककर,
 झौंपड़पट्टी की बात करेंगे
 कब कटेगा ये सफर 
सड़क से रेड कारपेट तक
 आंखे पथरा गई हमारी इन्तजार के
 सफर में रूक पड़ती थी कलम भी 
दर्द लिखते लिखते यदा कदा
 मगर मैं भी था जिद्दी, 
जागता रहूँगा रातभर लिखुँगा सुबह होने तक, 
सवेरे की आस में जिसकी
 पहली किरण बस्ती में गिरेगी 
हाँ जहां मस्त गरीब सो कर
 जागेंगे नई जिन्दगी के लिए


रचना



माणिक
www.apnimaati.blogspot.com




1 comment:

Roshani said...

skaratmak rahane se hi kary ke liye urja milti hai.
bahut accha..
Badhaii likhte rahen accha laga aapko padkar..