पिछले दिनों दिल्ली हाट गया था। यूं ही घूमते घूमते नजर पड़ी स्टॉल नंबर इक्यावन पर जहां हस्तशिल्प कलाकारी का अद्भूत नमूना देखने को मिला। ये स्टॉल लगाया था छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के मंगलराम और जगतराम ने। मंगल राम पेशे से बढ़ई हैं और जगत राम कलाकार। दोनों ही पेशों का एक दूसरे से दूर दूर तक का रिश्ता नाता नहीं है। लेकिन जीने की जद्दोजहद ने दोनों को एक साथ ला खड़ा किया। और अब दोनों साथ काम करते हैं, और जीविका चलाते हैं। कहते हैं उपरवाले ने जब पेट दिया है तो भरेगा भी वही। कुछ ऐसा ही इन दोनों के साथ भी है। बढ़ई और कला के मेल से इन्होंने जो निर्माण किया है, वो देखने लायक है। इन दिनों दोनों ही दिल्ली के "दिल्ली हाट' में अपनी आजीविका के जुगाड़ में लगे हैं। जहां बढ़ई मंगलराम और कलाकार जगत राम मिलकर एक स्टॉल लगाए हुए हैं। अपने इस स्टॉल में ये दोनों घर को सजाने का सामान बेच रहे हैं। इनमें से चीजें बांस की बनी हैं तो कुछ लकड़ी की। बांस से बना गुलदस्ता, जिसमें फूल सजाए जा सकते हैं। लकड़ी से बनी मछली, जो किसी भी महंगे से महंगे शो केस की शोभा में चार चांद लगा सकती है। लेकिन इनके स्टॉल की जो सबसे बड़ी खासियत है वो है बिजली के बल्व पर लगने वाले शेड, और गमले। आप ये जान कर चौंक जाएंगे कि ये शेड और गमले किस चीज से बने हैं। आमतौर पर लोग वहां तक सोच भी नहीं सकते, जहां से इन दोनों ने अपनी कला की जमीन तलाश की है। जी हां, इन दोनों ने घिया, लौकी और कद्दू के सूख चुके बाहरी आवरण पर कलाकारी करके उसे महंगे घरवालों का सजावटी सामान बना दिया है। जगतराम का कहना है कि पेट की चिंता में यूंही एक दिन भटकते भटकते घिया, लौकी के सूखे बाहरी आवरण पर नजर पड़ी, और बस तभी उसे आशा की किरण दिखाई दी। जगतराम ने मंगलराम से बात की, और अपनी कला को एक बढ़ई के औजारों के सहारे इन पर उकेरने की कोशिश शुरू कर दी। जल्द ही इनकी कोशिश रंग लाई, और दोनों ने मिलकर घिया और लौकी के सूख चुके बाहरी आवरण को लैंप शेड का रूप दे दिया, घर में लटकाने वाले कम वजन के गमले बना दिए। लेकिन इनके स्टॉल पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वो थी लकड़ी से बने तीर कमान और तलवार। जिस पर इन्होंने बढ़िया कलाकारी भी की थी। पूछने पर इन्होंने बताया कि ये तो ऐसे ही बना लिए गए। लेकिन ये ऐसे ही नहीं बने हैं। दरअसल ये तीर कमान और तलवार अब इनके जीवन का हिस्सा हो चुके हैं।
छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला देश के नक्सल प्रभावित जिलों में से एक है। इस जिले में नक्सलियों के प्रभाव का अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि छब्बीस सितंबर की सुबह दिनदहाड़े बीजेपी सांसद बलिराम कश्यप के बेटे तानसेन कश्यप की हत्या हो जाती है, और कोई पकड़ा तक नहीं जाता। वो भी तब जबकि देश के गृहमंत्री पी. चिदंबरम राज्य की सुरक्षा व्यवस्था का जाएजा लेने के लिए एक दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के दौरे पर थे। इससे पहले बलिराम के इकतालीस साल के मंत्री भाई केदार कश्यप को भी नक्सलियों ने उठा लिया था। उन्होंने सरकार की ओर से उनकी सुरक्षा में तैनात सुरक्षाकर्मियों तक को नहीं बख्शा था। प्राकृतिक संसाधनों के लिए इस जिले का इतना नाम नहीं है, जितना ये नक्सली जिले के तौर पर बदनाम है। बस्तर मूल रूप से आदिवासी बहुल जिला है, जहां प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है। इसके बाद भी यहां के लोगों का जीवन स्तर वैसा नहीं है जैसा होना चाहिए। यहां के लोगों को जीने की मूलभूत सुविधाएं तक नहीं मिल पाती। ऐसे में इन्हें अपने हक में लड़ने वाले नक्सलियों का साथ राज्य सरकार के नुमांइदों के साथ से ज्यादा अच्छा लगता है। फिर चाहे प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम नक्सलियों से निपटने के लिए चाहे जितने भी यत्न करें, इन्हें फर्क नहीं पड़ता। असल लड़ाई अपनी जमीन बचाने की है, और जो भी उसमें इन आदिवासियों का साथ देगा, वही इनका अपना होगा, फिर तरीका भले अहिंसक क्यों न हो? बस्तर के आदिवासियों के लिए नक्सली उनके रक्षक हैं। उनकी बेशकीमती जमीन के रक्षक हैं। उनके टूटे फूटे घरों के रक्षक हैं। फिर रक्षा चाहे जैसे हो, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। अक्सर ऐसा होता है कि हम आप जिन चीजों के संपर्क में आते हैं हमारे बच्चे भी उनके इस्तेमाल और उनकी खूबियों से परिचित होते रहते हैं। ऐसे में अगर रक्षक के हथियार यहां के अबोध, अपढ़ बच्चों के हाथ के खिलौनों में तब्दील हो जाएं तो इसमें आश्चर्य क्या? और ऐसी ही कुछ वजहें हैं कि जगतराम और मंगलराम की कलाकारी के नमूनों के बीच आदिवासियों और नक्सलियों के हथियार भी खिलौने की शक्ल पाने लगे हैं।
17.12.09
कला के बिम्ब
Labels: rajan
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