रविवार की सुबह वही रोज की तरह देरी से उठा करीब 11 बजे। जब से पत्रकारिता के पेशे में कदम रखा है तब से देर तक जागना और देर सबेरे उठने की गंदी आदत विकसित हो गई। आंख मिचते ही कुर्सी की ओर देखा अखबार रखे हैं या नहीं। घर में सबको पता है तो जो भी पढऩे के लिए अखबार उठाता है वापस वहीं मेरे सिरहाने रखी कुर्सियों पर रख देता है। मैंने मिचमिचाते हुर्ईं आखों से देखा रखा है मेरा अपना अखबार दैनिक भास्कर जहां मैं काम करता हूं। साथ में स्वदेश जहां पहली बार मैंने कलम को आड़ा-तिरछा चलाना शुरू किया था। एक और जिसके हम मुरीद हैं उसकी भाषा को लेकर जनसत्ता। आज रविवार था रविवार का जनसत्ता कुछ खास होता है। जैसे ही मैंने जनसत्ता का रविवारीय अंक देखा मन चार माह पीछे चला गया। रविवारीय की कवर स्टोरी पर नर्मदा के सहयात्री और प्रकृति के चितेरे अमृतलाल वेगड़ की इस बार नर्मदा यात्रा वृतांत छपा था। मां चाय लेकर आती उससे पहले तो मैं उसे पढ़कर खत्म कर चुका था और भूतकाल में गोते लगा रहा था। पहली बार मैंने अमृतलाल वेगड़ को जबलपुर के समदडिय़ा होटल में देखा था। वे वहां जबलपुर रत्न नईदुनिया, जबलपुर की निर्णायक मंडल के सदस्य के रूप में उपस्थित थे और मैं उस कार्यक्रम के आयोजन समिति का छोटा सा हिस्सा था। मैं उस समय नईदुनिया, जबलपुर में इंटर्नशिप कर रहा था। वो दिन तो अद्भुत था मेरे लिए। कई दिन तक रोमांचित करता रहा और मैं अपने भाग्य पर इठलाता रहा कि देखो एक ही दिन में जबलपुर के ही नहीं वरन देश के नामी चेहरों से मुलाकात करने का अवसर मिला। छ: नाम तो आज भी याद हैं एक तो अमृतलाल वेगड़, ज्ञान रंजन, चन्द्रमोहन जी जिन्हें सब बाबू के नाम से पहचानते हैं, चित्रकार हरि भटनागर, समाजसेवी चंद्रप्रभा पटेरिया और जस्टिस वीसी वर्मा। सब अपने-अपने क्षेत्र के धुरंधर हैं। उस दिन सबसे अधिक किसी ने प्रभावित किया तो चंद्रप्रभा पटेरिया और अमृतलाल वेगड़ जिनको कभी स्कूली शिक्षा के दौरान किताबों में पढ़ा था।
जहां मैं खड़ा था उसके ठीक सामने वाली कुर्सी पर श्री वेगड़ बैठे थे। बादामी रंग का कुर्ता और झकझकाती धोती पहन रखी थी उन्होंने। शहर के नागरिकों ने जबलपुर रत्न के लिए कुछ चुनिंदा लोगों के नाम भेजे थे। कमाल था की जूरी का प्रत्येक सदस्य रत्न के लिए नामांकित प्रत्येक व्यक्ति के बारे में खूब जानकारी रखते थे।
अमृतलाल जी जितने सहज थे कोई भी उतना सहज नहीं दिख रहा था। उनके बात करने के अंदाज से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। आज उनके यात्रा वृतांत को पढ़कर भी कुछ वैसा ही अनुभूति हुई। वाणी जितनी प्रभावशाली थी शब्द भी कहीं कमतर नहीं दिखे। शुरू से जब पढऩा आरंभ किया तो अंत पर आकर ही रूका। तब भी मैं यही सोच रहा था कि यह खत्म क्यों हो गया और क्यों नहीं लिखा। इस बार उनकी नर्मदा परिक्रमा में कुछ पुराने तो कुछ नए साथी शामिल हुए। अगर मैं जबलपुर होता तो मैं भी जाता नर्मदा परिक्रमा पर। जो नए साथी शामिल हुए उनमें से एक के नाम से में भली भांति परिचित हूं और एक के साथ समय व्यतीत किया और कुछ सीखा भी है। एक हैं राजीव मित्तल जो अभी लखनऊ में हिंदोस्तान के संपादक हैं। श्री राजीव जी का खूब नाम सुना था नईदुनिया के ऑफिस में अपने साथियों से, तो मिलने की भी इच्छा है देखें कब भाग्य उनसे मिलाता है। दूसरा नाम प्रमोद चौबे। ये नईदुनिया जबलपुर में कॉपीएडीटर हैं। कई दफा कॉपी कैसे लिखी जाती है, कैसे एडिट की जाती है इन्होंने ही सिखाया था। हमारी काफी मदद की। इसलिए कभी नहीं भूल सकता।
इतने मैं तो मां चाय लेकर आ गई। कहने लगी तुम बहुत देर से उठते हो, स्वास्थ्य खराब हो जाएगा। पेट निकल आएगा। जल्दी उठा कर जरा घूमने-फिरने जाया कर अच्छा रहता है।
मैंने मां से इशारे से कहा चाय मेज पर रख दो। उन्हें पता था अभी ये देर से उठना बंद नहीं करेगा। ऐसी बात नहीं है कि मैं उठ नहीं सकता। अब पिछले ही महीने रोज सुबह छ: बजे उठता था। बस यूं ही बैठे-बैठे फिर से जबलपुर चला गया.... यादों में। तभी अपनी बहन की एक कविता याद आई मन पंछी है पंछी की तरह नील गगन में उड़ जाऊं मैं, कोई न रोके कोई न टोके कोई न मुझको कैद करे।
29.12.09
बस यूं ही बैठे-बैठे...
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