मेरे एक सहयोगी हैं,
अभी हाल ही में उनके घर लक्ष्मी रूपा बालिका ने जन्म लेकर अनुगृहीत किया है।
उन्होने आज मुझसे पूछा, कि क्या नोएडा में कोई ऐसी संस्था है जो कि अनाथ,
गरीब या बेघर बच्चों के लिये कार्यरत हो? मैने परवेज़ सागर(CNEB) और
यशवंत भाई को फ़ोन कर के जानकारी चाही तो दोनो का एक ही जवाब था।
कहने लगे कि भई वैसे तो हम कोशिश करके तुम्हे बता ही देंगे,
लेकिन तुम इस विषय में "भडास" पर लिख डालो। कोई ना कोई पाठक ज़रूर
आपको इस विषय में जानकारी दे देगा। तो मेरा अप सभी
सुधी पाठको से अनुरोध है कि यदि आप ऐसी किसी संस्था के बारे में
कुछ जानकारी रखते हों तो कृपया मुझे ईमेल द्वारा जानकारी देने की कृपा करें।
मेरे सहयोगी और मै स्वयं नोएडा की किसी, ऐसी संस्था से जुड़ कर इन बच्चों के
लिये सेवार्थ भाव से कुछ कार्य करना चाहते हैं।
धन्यवाद...
अंकित माथुर...
mickymathur@gmail.com
30.11.07
पाठकों से अनुरोध! अवश्य पढें!!
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आज किसी ने दिल नहीं तोडा
इधर दिल टूटा उधर कुंठाएं मन के चेतक पे सवार सरपट हों जातीं हैं...?
क्यों ?
मन उदासी में डूब जाता है दोपहर ख़त्म होने का इंतज़ार करता मन शाम की कल्पना से सिहर जाता है....! इक तो नींद आती नहीं । जैसे तैसे नींद आ भी जातीं हैं तो बस तनाव भरे दिमाग के दरवाज़े अजीब से सपने तंगकरते हैं मुझे ..........?
कैसे निजात पाऊं इनसे भड़ास को जिस्म , और दिमाग से निकालना ज़रूरी होता है ।
आप ये करिये जरूर कीजिए
मन के कोने की भड़ास को निकाल दीजिये .... फिर खुली हवा में ज़िन्दगी जीने का मज़ा लीजिये ....!
कुंठा के सागर से मुक्ति मिल जाएगी और शुरू होगी नई दौड़ , बनेगा माहौल जीने का ।
आप उठिए मेरी तरह औंरों की तरह जो भड़ास निकाल के कुंठा का समापन कर देतें हैं ।
जीवन को रंगीन बनाने तनाव रहित रहने के कई तरीके हैं उन में सबसे बेहतर है मन को कुंठा विहीन रखना
आज मन खुश है मुझे किसी ने पग तले रोंधने के कोशिश नही की । किसी ने दिल नहीं तोड़ा
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हलद्वानी यात्रा: दूसरी किस्त
विचार और दृष्टि में जहां अपनापा हो
राकेश कुमार सिंह
उंची-उंची इरामतें, लंबी-चौड़ी सड़कें, चींटियों की तरह ससरती ट्रैफिक, हरदम वक़्त से जीने की पनाह मांगते मशीननुमा जीवन, ज़रूरत के मुताबिक़ हंसते और रोते चेहरों वाले मास्क के साथ गिरगिटिया पल जब तमाम स्वाभाविकताओं को चाट जाने पर आमादा होती हैं, महानगर से दूर किसी भी तरफ़ निकल पड़ने से बड़ा सुकून मिलता है. तब तो और भी जब यात्रा अपनों के साथ हो रही हो. अपनो यानी विचार और दृष्टि जहां अपनापा वाला हो.
रामप्रकाशजी सबसे पुराने परिचित हैं. उन्होंने जाते वक़्त याद दिलाया कि एक बार हिन्दु कॉलेज में मैं उनकी क्लास में वोट मांगने गया था. तब उन्होंने मेरे विचार सुने और उन्हें लगा कि बन्दे में दम है. मैं 1996 और 1999 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के सचिव और अध्यक्ष का प्रत्याशी रहा हूं. रामप्रकाशजी ने जिस घटना का उल्लेख किया, शायद वो 1999 की हो. क्योंकि तब पैनल के नेतृत्व की जिम्मेदारी थी. बहरहाल, बात ये कि रामप्रकाशजी को कम से कम 1999 से तो ज़रूर जानता होउंगा. पर दोस्ती बनी क़रीब 2-3 साल पहले. सराय आए थे अपने किसी मित्र के साथ. पता चला पहले भी मिलते रहे हैं हम. बुनियाद पड़ गयी दोस्ती की. मुलाक़ात-दर-मुलाक़ात गहरी होती गयी. प्रदीपजी से दोस्ती भी लगभग इतनी ही पुरानी है. याद नहीं आ रहा कि पहले से जान-पहचान थी कि नहीं. हालांकि छात्र-जीवन में दोनों की कर्मस्थली एक ही रही है: दिल्ली विश्वविद्यालय, ख़ासकर आर्ट् फ़ैकल्टी. सफ़र शुरू होने के बाद बातचीत ज़्यादा होने लगी है. मधुजी से पहली मुलाक़ात इसी साल शुरुआत में हुई थी. मीडिया पर उनके कॉलेज (अदिति महाविद्यालय) में कोई वर्कशॉप थी. मैं उसमें कुछ बोलने के लिए बुलाया गया था. दोस्तों को लगता है बन्दा धेले से ज़्यादा गुणी और ज्ञानी है. जहां-तहां नाम धुसेड़वा देते हैं. बन्दा ज्ञान का छिड़काव कर आता है! अदिति कॉलेज में पिछली मर्तबा जब गया था तब मधुजी पहली मर्तबा मिली थीं. दूसरी मर्तबा तो हम सहयात्री ही बने. ज़्यादा ही विनम्र हैं. पर समय रहते थोड़ी-बहुत चुटकी ले लेती हैं. अच्छा लगा हमसफ़र बनना. विधिजी से कुल दो मुलाक़ातें दर्ज हैं अपने पास. दोनों ही नवम्बर 2007 की. पहली 4 को दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘मीडिया लेखन वर्कशॉप’ के दूसरे दिन. दूसरे में तो हम साथ चल ही रहे थे. सबसे नयी जान-पहचान विधिजी से ही है. टॉफ़ी, चिप्स, बिस्कुट जैसे ललचाउ सामानों का उनके पास ठीक-ठाक स्टॉक होता है. किलकारी को नहीं बताउंगा.
पर चारों ही मित्रों में बहुत सारी समानताएं दिखीं. सारी नहीं बताउंगा. एक जान लीजिए. सब के सब स्व से उपर उठकर सोचते हैं. कुछ करना चाहते हैं. अब ये भी नहीं कि कोई चैरिटीनुमा काम! अपने आसपास के प्रति सोचते हैं और हालात की बेहतरी के लिए कुछ-कुछ करते रहते हैं. तो अपने जैसे लोगों का एक संक्षिप्त परिचय ज़रूरी लग रहा था. इससे फ़ायदा ये होगा कि अगली मर्तबा हमारे इस दायरे में शायद कुछ और लोग आएं.
दिल्ली छूटी तो बातचीत के विषय भी बदल गए. कुछ देर के लिए कर्नाटक हमारी बातचीत का केन्द्र बन गया. दक्षिण में दक्षिणपंथियों की ओर से येदुयेरप्पा नामक विधायक मुख्यमंत्री का शपथ तो तीन-चार पहले ले लिया था. तस्वीर भी छपी थी अख़बार में, जिसमें नए-नए कपड़ों में सजे-धजे उनके रिश्तेदार और रिश्तेदारों के छोटे-छोटे बच्चे बड़े चहक रहे थे. पर जब एग्रीमेंट के मुताबिक़ जनता दल सेकुलर की बारी आयी विधानसभा में मुख्यमंत्री के प्रति विश्वास व्यक्त करने की, वोटों के द्वारा, तब सेकुलरों ने पलटी मार दी. बहुत से लोगों ने बहुत कुछ बोला. देश भर में बोला, टेलीविज़न पर बोला, टेलीविज़न तो बोलता ही रहा. सबसे ज़्यादा कर्नाटक के पालिटिशियन्स ने बोला, उसमें भी संघ द्वारा पैदा किए गए भाजपा के छोटे-बड़े नेताओं ने. किसी ने कहा, पीठ में छूरा भोंक दिया देवेगौड़ा ने, तो किसी ने कहा ठीक हुआ नहीं तो कर्नाटक दक्षिण भारत में संघियों की पहली ऑफिसियल प्रयोगशाला के पथ पर अग्रसर हो जाता. हम कैसे चुप रहते! पर हमने बोला कम, हंसी हमें ज़्यादा आयी. हम ज़्यादा हंसे. रामप्रकाशजी के पास वन लाइनर्स का खजाना है. बढिया गढते हैं. कोई बात आयी नहीं, उनका वन लाइनर आ जाता है. वैसे हमने ज़बानी तौर पर उनके इस योगदान का शुक्रिया उसी वक़्त अदा कर दिया था जब हमने उनको उनके घर के पास छोड़ा था. मधुजी ने साफ़ शब्दों में कहा था, ‘थैंकयू रामप्रकाशजी. आपने हमारा बड़ा इंटरटेनमेंट किया.’ तो हमारे रामप्रकाशजी ने एक से बढकर एक वनलाइनर्स दागी कर्नाटक, संघ और देवेगौड़ाजी पर. ख़ूबसूरत और मारक.
क्रमश:
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वामपंथ और मार्क्स को गरियाने के सुख से सुखी ये साथी??
विवेक सत्य मित्रम के अनुरोध पर मैंने उनके लिखे एक पोस्ट काल मार्क्स के नाम एक कामरेड का खत पर टिप्पणी की है। हालांकि वहां पहले से जितनी भी टिप्पणियां थीं वो सब मार्क्स और वामपंथ को गरियाने से मिले सुख से मुग्ध लोगों की थी। मुझे एक बार लगा, टिप्पणी करना चाहिए या नहीं। लेकिन लगा, अगर विवेक ने अनुरोध किया है तो जरूर करना चाहिए लेकिन बातें साफ-साफ कहूंगा, भले विवेक को बुरा लगे क्योंकि विवेक से मेरा संबंध भी भड़ासी सहजता और सरलता के चलते ही हुआ और हम दोनों चाहते हैं कि बातें जो कही, करी जाएं वो साफ-साफ हों, मुंहदेखी नहीं। तो मैंने वहां जो कमेंट किया है, उसे भड़ास पर भी डाल रहा हूं। मूल पोस्ट पढ़ने के लिए विवेक के बिलकुल नए ब्लाग आफ द रिकार्ड पर जाना होगा। इस ब्लाग के पैदा होने की भी पूरी एक कहानी है लेकिन उसे मैं आफ द रिकार्ड ही रखना चाहूंगा, जब तक कि खुद विवेक न बता दें। विवेक के गुस्से से उपजा ब्लाग है आफ द रिकार्ड। लेकिन मुझे डर यह है कि यह गुस्सा केवल वामपंथ के विरोध का अड्डा ही न बन जाए। मुझे लगता है कि इसका सृजनात्मक इस्तेमाल करना चाहिए। जैसा कि हम लोगों की बातें भी हुई हैं। भोजपुरी भाषा में एक ब्लाग होना चाहिए और वो कम्युनिटी ब्लाग हो जिसमें लोग सिर्फ भोजपुरी में लिखें। इससे शायद हम अपनी बानी और लोक संवेदना को बड़ा योगदान दे पाएंगे। वाम और दक्षिण पर बहस करने के लिए जनरलाइज एप्रोच नहीं होना चाहिए, पढ़ाई-लिखाई के साथ फैक्ट्स आधारित बातें होनी चाहिए। सीपीएम की जो दिक्कत बंगाल में है दरअसल वह एक ट्रेंड है वामपंथ में। ऐसे ट्रेंड से खुद कार्ल मार्क्स भी लड़ते रहे हैं, लेनिन भी लड़ते रहे हैं। रूसी क्रांति के दस्तावेजों को पढ़िए तो पता चलेगा कि किस तरह दर्जनों कम्युनिस्ट पार्टियां थीं जो आपस में विचारधारात्कम रूप से बंटी हुई थी और वो बंटाव नकली नहीं था बल्कि ट्रेंड आधारित और विचार आधारित था। आखिर में लेनिन की बोल्शेविक धारा विजयी बनी जिसने सत्ता का पार्ट होने की बजाय खूनी क्रांति का रास्ता अपनाया। ये सारी बातें पढ़ने पर पता चलेंगी। रूसी क्रांति पर कई किताबें हैं जिसमें कम्युनिस्टों के आपसी मतभेदों का जिक्र है। मुझे भारत में भी कुछ वैसा ही लगता है लेकिन बाजी कौन मारेगा, यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इतना सच है कि सीपीएम का मार्क्सवाद दरअसल क्रांतिकारी मार्क्सवाद है ही नहीं। बातें फिर होंगी, फिलहाल इतना ही....टिप्पणी पढ़िए और मूल पोस्ट पढ़िए....। समझ में आए तो इस कमेंट पर भी कमेंट करिये....
जय भड़ास
यशवंत
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यशवंत सिंह said...
माफ करियेगा विवेक, मेरी समझ में कुछ नहीं आया। पत्र लेखक भयंकर कनफ्यूज है। पत्र से जाहिर है कि वो सीपीएम का कैडर है। जब पत्र लेखक सीपीएम का ही कामरेड है जो अपनी पार्टी की खिंचाई और सरकार की धुलाई से दुखी है तो इसमें नई बात क्या है। वामपंथ में ढेरों पार्टियां हैं और सबका लक्ष्य भले एक हो लेकिन उसे पाने के तरीके में मतभेद है। इसी मतभेद के चलते वो एक दूसरे की खिंचाई करते हैं लेकिन बड़े मुद्दों पर वो एक साथ हो जाते हैं जो कि जरूरी भी है। जैसे सांप्रदायिकता। कुछ उसी तरह जैसे संघ, विहिप, भाजपा, भाजयुमो...आदि दल संगठन अलग अलग भले होने के दावे करें लेकिन बड़े मुद्दों पर एक हैं। जैसे हिंदुत्व और मुस्लिम विरोध। हां, लेकिन इनके बीच भी लक्ष्य पाने को लेकर मतभेद है और आपस में धुलाई-खिंचाई करते रहते हैं। अगर विहिप का एक बंदा भाजपा को गाली देते हुए भगवान राम को पत्र लिखे और कहे कि ये भाजपा वाले गद्दार हो गए हैं....टाइप.....तो इसमें नई बात क्या है...।
खैर, आप बता सकेंगे कि पत्र लेखक मार्क्स, वामपंथ आदि को जनरलाइज तरीके से पेश कर उनकी धुलाई कर खुद सुख उठाना चाहता है या फिर वाकई वो इस पत्र के जरिए एक गंभीर डिबेट शुरू करना चाहता है। मंशा तो मार्कस और वामपंथ को गरियाकर अहं तुष्ट करने जैसा ही लगता है।
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
29.11.07
"बावरे-फकीरा पोलियोग्रस्त बच्चों के लिए आभास जोशी की आवाज़ में...सहयोग की प्रतीक्षा में "
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हलद्वानी यात्रा: पहली किस्त
साढ़े पांच बजे भोर में स्नान
34 की दहलीज़ पर हूं. याद नहीं पिछली बार साढे पांच भोर में कब नहाया था. नहाया भी होउंगा तो पिताजी ने कोई दंड दिया होगा या फिर छठ के भोरवा अरघ की धार्मिक महत्ता के दवाब में.
सोमार को ही डॉ. अम्बेडकर कॉलेज वाले प्रदीपजी ने चेता दिया था, ‘कि साढे पांच बजे गाड़ी तिमारपुर में आपकी कॉलोनी के बाहर जूस वाली दुकान पर खड़ी हो जाएगी. आप तैयार रहिएगा’. मतलब साफ़ था अल्लसुबह दिव्य निपटान समेत तमाम निपटानोपरान्त मुझे बताए गए समय पर जूस की दुकान पर हाजिर हो जाना था. पहले भी एक आध मौक़ों पर मैं बता चुका हूं कि जो वक़्त मेरे जूस की दुकान पर पहुंच जाने के लिए मुक़र्रर किया गया था उस वक़्त पर आज तक इक्के-दुक्के मौक़ों पर जबरिया जगने के अलावा तो सोना ही मुझे प्यारा लगता है. मित्रवत आदेश कहिए या उससे भी ज़्यादा हमारे असाइमेंट की मांग, कोई और चारा नहीं था. उठ गया 5.20 पर. पानी गर्म करने का ब्यौंत करके निपटने चला गया. उसके बाद ब्रश से जल्दी-जल्दी दांतों की रगड़ाई. और फिर नहाया. इस बीच प्रदीपजी का दोबारा फ़ोन आ गया ‘गाड़ी मदर डेयरी पर खड़ी है. हम वहीं हैं’. पहला फ़ोन मेरे जगने के एक-आध मिनट बाद ही आ चुका था. ख़ैर मैंने प्रदीपजी को तसल्ली दिलाते हुए कहा, ‘बस नहा लिया, आ रहा हूं दो मिनट में’. झटपट बैग में एक जोड़ी कपड़े ठूंसा. और स्वेटर कंधे पर रखते हुए बीवी को जगाया, ‘दरवाज़ा बंद कर लो’, निकल पड़ा तेज़ कदमों से.
निर्धारित जगह से कुछ क़दम आगे गाड़ी खड़ी थी. प्रदीपजी चहलक़दमी कर रहे थे. पिछली सीट पर मधुजी और विधिजी बैठी थी. मैं सलाम-नमस्ते टाइप की औपचारिकताओं को निपटाते हुए बीच वाली सीट यानी ड्राइवर सीट के पीछे वाले पर बाएं से बैठ गया. प्रदीपजी पहले से ही दाएं जमे थे. गाड़ी चल पड़ी. प्रदीपजी ने जेब से फ़ोन निकाल लिया, ‘हां रामप्रकाशजी ... तिमारपुर से गाड़ी निकल पड़ी है. मैक्सिमम 15 मिनट में गांधीनगर पहुंच जाएगी.’ मेरी निगाह स्टीयरिंग के नीचे वाहन की गति की सूचना देने वाले गोले पर पड़ी. 120 से उपर-नीचे होते कांटे को देखकर मन ही मन प्रदीपजी की बात को सुधारा, ‘इस रफ़्तार से चली तो दस मिनट भी ज़्यादा होगा पहुंचने के लिए.
प्रदीपजी कुछ-कुछ बताते रहे हलद्वानी-यात्रा के प्रयोजन के बारे में. इससे पहले उन्होंने फ़ोन पर ही एक-दो बार अतिसंक्षिप्त जानकारी दी कि उत्तराखंड ओपन युनिवर्सिटी में मीडिया कोर्स शुरू होने वाला है और उसी से मुताल्लिक किसी मीटिंग के लिए हमें कभी वहां जाना भी पड़ सकता है. तो प्रदीपजी बता रहे थे कि एक खाका तो बना लिया है उन्होंने रामप्रकाशजी के साथ मिल कर. ये भी बताया उन्होंने कि विश्वविद्यालय कितना लाचार है, उसकी न इसी है न एसी. बड़ा झंझट है. बहुत दिनों से वाइस चांसलर कह रहे हैं इस काम को निपटा लेने के लिए ताकि जल्दी से जल्दी पाठ्यक्रम चालू हो सके.
अब हम गांधीनगर मार्केट पहुंच चुके थे. किसी ज़माने में गांधीनगर रेडिमेंट गारमेंट्स के मामले में एशिया का नम्बर वन बाज़ार माना जाता था. रूमाल से लेकर बड़े-बड़े जैकेट तक, डिज़ाइन, आकार-प्रकार, क़ीमत, इत्यादि संबंधी वैविध्य से परिपूर्ण. दिलचस्प ये कि ख़ूब ही सस्ता! पहली दफ़ा इसी सस्ते के चक्कर में गया था 1993 में. मुझ जैसे एक-दो पीस के ख़रीदारों के लिए ‘सस्ता’ अर्थहीन निकला. दुसरी बार शायद 1996 में गया था. पिंकी मुज़फ़्फ़रपुर से आ रही थी. माताजी ने किसी को कहकर रेल में उसकी सीट के नीचे आम का एक कार्टन रखवा दिया था और पिंकी से कहा था कि राजू ले लेगा स्टेशन से. पर पिंकी के बिदा हो जाने के बाद माताजी ने मुझसे संपर्क करने की बहुत कोशिशें कीं. असफल रहीं. तीन-चार दिनों बाद जब मैंने उनसे संपर्क किया तब उन्होंने मुझे एक नंबर दिया और बताया आम भेज दिया है. दिल्ली विश्वविद्यालय में अपने महान क्रांतिकारी कामों के चक्कर में दो दिन तक संपर्क भी नहीं कर पाया. तीसरे दिन जब नंबर मिलाया तब पता चला आम गांधीनगर पहुंच चुका है. दूसरी तरफ़ से सज्जन ने गली और मकान नंबर बताया और कहा कि 4 बजे के बाद मैं बताए गए पते पहुंच जाउं. लोहे के पुल से यमुना पार करके पहुंचा. पिंकी के नाना जो मुज़फ़्फ़रपुर में हमारे पड़ोस में शादी से पहले तक रहने वाली लड़की टिंकु और उससे छोटी-बड़ी चार-पांच और बहनों के भी नाना हैं, जिनके अपने शहर में रहते एक-आध दीदार मैं कर चुका हूं, वहां मिल गए. पिंकी उसी के साथ आयी थी. पिंकी का पति जो अब उसे छोड़ी चुका है, तब किसी नर्सिंग होम में कम्पाउंडरी करता था. वो भी मिला. किसी बच्चे ने अंदर के कमरे से एक कार्टन को घसीटता मेरे सामने पेश किया. कार्टन के निचले हिस्से में आम के बह जाने की वजह से कुछ सीलन आ गयी थी. उस फ़कीरी के दौर में सत्तर रुपए लिए थे ऑटो वाले ने नेहरु विहार तक आम समेत मुझे पहुंचाने के. दबा कर खाया था पीएसयू के साथियों ने. बेहिसाब खा लेने की वजह से कमलेशजी का तो पेट ही ख़राब हो गया था.
गांधीनगर तीसरी बार रामप्रकाशजी को लेने गए दल का सदस्य बनकर पहुंचा था 20 नवम्बर की सुबह. प्रदीपजी बार-बार फ़ोन मिला रहे थे, पर मिल नहीं रह था. मैं गाड़ी से उतरकर बिजली और टेलीफ़ोन के खंभों पर टंगे बैनर्स निहारने लगा था. एक बैनर किसी बंगाली पाशा तांत्रिक का था. सफ़ेद कपड़े पर छपे अक्षर मिर्गी से शर्तिया मुक्ति का दावा कर रहे थे. बायीं ओर दुकानों के फ़र्श को देखकर लग रहा था जैसे वहां गोश्त और मछलियां बिकती हैं. रामप्रकाशजी से पूछुंगा. कुछेक मिनट बाद प्रदीपजी की उनसे बात हो गयी. उन्होंने बताया था कि गाड़ी मोड़कर उपर वाली सड़क पर ले आयी जाए, वे सीधे वहीं पहुंचेंगे. दुसरे ही मिनट गाड़ी बताये स्थान पर जा लगाई संजय भाई ने. रामप्रकाशजी सफ़ेद चेक वाली कमीज़ और शायद जिंस की पैंट पहने दायें हाथ में अटैची थामे चले आ रहे थे. उन्होंने हमसे (प्रदीपजी और राकेश से) आत्मीय हाथमिलाई और पिछली सीट बैठी मित्रों मधुजी और विधिजी से दुआ-सलाम की. संजय भाई ने उनकी अटैची को पिछली सीट के पीछे अन्य सामानों के साथ टिकाया. प्रदीपजी ने इशारा करते हुए कहा, ‘रामप्रकाशजी आप आगे बैठें और हमारा नेतृत्व करें’.
संजय भाई स्टीयरिंग थाम चुके थे. हम पुश्ता पार कर रहे थे. सड़क पर गाडियों की संख्या बढ़ने लगी थी. हमारी बातचीत में दिल्ली शहर की सड़क की बढ़ती ट्रैफिक, कॉमन वेल्थ गेम और इसके साथ दिल्ली को ख़ूब सुंदर बनाने की ‘अभिजात’ क़वायद, अक्षरधाम, इंद्रप्रस्थ पार्क ... जैसे सार्वजनिक मसले आते-जाते रहे. किसी सड़क पर आकर संजय भाई ने पूछा, ‘किधर से निकलना है?’ रामप्रकाशजी और प्रदीपजी ने कोई संतोषजनक जवाब देकर संजय को रास्ता बताया. गाड़ी दिल्ली पार कर चुकी थी.
क्रमश:Posted by Rakesh Kumar Singh 0 comments
Labels: हलद्वानी यात्रा
बरकती और तोगडिया, दोनों हैं खतरनाक
मौलाना एस.एम. बरकती और प्रवीण भाई तोगडिया दोनों का धर्मं अलग अलग है लेकिन जुबान एक ही है. दोनों कट्टरपंथी हैं. एक कट्टर हिंदू धर्मं की दुहाई देता है तो दूसरा इस्लाम की. दोनों जहर उगलते हैं.
पिछले दिनों समय चैनल पर जब तसलीमा के मामले पर मौलाना बरकती को बुलाया गया तो पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे बरकती बार बार इस देश को और इस देश के सविधान को अपना मानने से इंकार कर रहे थे. बरकती आपका सविधान, आपका देश, आपका धर्म कह कर राजेंद्र यादव और पुण्य प्रसून वाजपेयी को संबोधित कह रहे थे और पुण्य प्रसून वाजपेयी बार बार मौलाना से पूछ रहे थे कि क्या यह देश आपका नहीं है. ? इस इंटरव्यू के माध्यम से एक बार फिर मुस्लिम कट्टरपंथियों के चेहरे से नकाब हट गया है. ये मुस्लिम कट्टरपंथियों का एक ही मकसद है कि इस्लाम के नाम पर देश को बांटा जाए. बरकती बार बार इस इंटरव्यू में कह रहे कि बंगाल को गुजरात नहीं बनाया जा सकता है क्यों कि यहाँ मुस्लिम आबादी ३५ फीसदी है. मोदी और तोगडिया भी तो कुछ ऐसा ही कहते हैं. हिंदू कट्टरवादी भी तो इस देश को अपने बाप की बपोती मानते हैं.
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हैकर्स के कारनामे: बच कर रहियेगा जनाब!!!
है ना कि जिस पर ये ई मेल भेजी गई है, और ऐसी कैसी वेरिफ़िकेशन है जो कि ये
ही मैं समझ गया कि ये किसी हैकर की करामात है, और ईमेल पर अकाऊंट
वेरिफ़िकेशन के ज़रिये वो मेरे अकाऊंट की डीटेल हासिल करना चाह रहा है।
ईमेल के ओरिजिनेशन पाईंट के बारे में मैने थोडी R&D करी तो मालूम हुआ कि ईमेल
फ़्रांस के पैरिस शहर के इस पते से आई है।
ही वो आपके आई पी एड्रेस को भी ट्रेस कर के उसे हैक कर सकते हैं।
एक स्टैण्डर्ड *निक्स सिस्टम पर आपको ये जानकारी निम्नांकित रूप से मिल
सकती है॥
मेल एक्स्चेंजर का डाटा सर्च करते हुए।इस प्रोग्राम को रन करने के बाद काफ़ी डाटा
आपके पास आ जायेगा, अब आपकोमेल एक्स्चेंजर के बारे में पता करना होगा,
अब आपको कम्प्यूटर को बताना है कि आप कौन हैं और कहां ईमेल भेजनी है॥
DATA354 Ready for data - end input with a "." on a new line
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REVELATIONS WITHIN OF THE WORLD WITHOUT
My introduction with RSS happened when I was an adolescent. I was perhaps ten or eleven years old. Those were the days when almost whole of the country was swept by the Ayodhya movement. In my tiny and interior village of north Bihar, we saw the rally of Swayamsevaks campaigning for the Ram Temple and on that Diwali a special fire was distributed to every village for Diyas to be lit up. It was told that the divine fire had come from Ayodhya and it will be a noble and religious cause for every true Hindu to use it. And no doubt, the whole locality-through which the rally passed, was enthralled to welcome the movement that was being carried in the leadership of a local Mahanth.
There were no caste feud, and no differences among the masses. Each and every person of our village received the fire and donated generously according to their status to the movement. Though, side by side at the same time another movement was also sweeping the Cow-belt, the Mandal Commission. The society was being polarized on the basis of caste. RSS could not get much hold over the politics or the lifestyle of society in my state or even in the neighbouring states when Babari Mosque was demolished in 1992. Even in UP it will be early to say that the advent of BJP into power was only due to communal polarization, in fact partly its credit goes to the Mandal movement which compelled the majority of upper caste to BJP fold, it should to be noted that the Brahmins and Thakurs had a clandestine rivalry in UP politics.
RSS changed the way urban India thought which influenced the masses. The RSS influenced me in my adolescence and during my schooling I started to read the articles pertaining to Muslims and atrocities being done on Hindus in Kashmir and Bangladesh. It was perhaps the same time when my elder brother started to buy Panachjanay and that was also influencing me in a great way. At the same time the governments of whole north India saw a character change in its social demography and the upper castes termed it as anti-Brahmin. It might also be the reason that persons like me who are upper caste by birth saw some respite in the surging Hindu right wing party.
But that was just an excuse for my new found love for RSS. The main reason was the powerful campaign by the right wing party. Later when I came to Patna for my higher studies I had heated discussions with other students regarding the role of Congress party, the Communists and the Muslim fundamentalists. And at the same time I had the opportunity to read English papers and magazines and I gradually started to understand the differences between Hindi and English media. No doubt I got benefits, it broadened my vision and I started to understand other religions and their problems. I had the chance to read the great books, novels on the communal problems, the partition, the Kashmir problem, Palestine, and the social and political structure of Pakistan and Bangladesh.
I was very much liberalized in my thought towards Muslims but my first love towards RSS could not be eliminated. The reason? More I wanted to know the problems of minorities and the poisons being spreaded by RSS toward them, the more news of conversion of Dalits by Christian missionaries reached my ears. More I wanted to criticize the attacks of RSS toward minorities, more news of migration of Pundits from Kashmir countered my views. More I was trying to increase my friend’s list among minorities, more I was shocked to see their views on burning issues. I was always positive to see the upliftment of Dalits into mainstream, but was shocked to see the status-quo approach of Sanghis toward them. And equally there were no revolutionary thoughts for Muslims and Dalits among Congress Workers except the token reservation and some welfare policies given to them at the time of independence. So it was, and still up to some extent, is a state of dilemma within me.
.RSS think-tanks, in their private talks, term Babri demolition and Gujrat riots as one of the path breaking works in its 82 years history. According to them it has compelled Muslims to think and behave defensively. It has crushed the 1ooo year’s aggressive attitude of Islam on the Indian soil. It might be shockingly true to some extent but the problem of communalism in India is growing by leaps and bounds. In my father’s generation, people used to be more secular than us and that feeling is waning. Politics, culture and particularly in cinema are an apt example of this change. Once it was common to find Rahman chacha or Salma aunty in Indian films but nowadays, it is difficult even to make a film on Muslim background. My father’s generation was that of born just after independence who had memories of partition and large scale migration fresh in their mind, but still they were secular in their approach and mentality.
But what happened in nineties that whole of urban India started to look down upon minorities? Was it failure of Congress party to accommodate the aspiration of diverse identities of the nation or was its reason deep-rooted in the centuries old Muslim rule in India? People often say that the appeasement policy of Congress party and the changes at international politics making the world unipolar weakened the secular ethos.
But it was not only the appeasement or any other factor, the rise of communal politics had in fact started with the advent of British rule in India and at the time of partition, the ground was fertile for such type of politics. But thanks to the assassination of Gandhi, it had to hibernate for decades. But as the congress party performed measurably at many fronts, it again started to flourish. In fact, many say that, had assassination of Gandhi not taken place in 1948, communal politics would have acquired the centre stage till early 60s.
Posted by sushant jha 0 comments
28.11.07
रात नौ बजेः आमने-सामने पुण्य प्रसून और आशुतोष...
रात नौ बजते ही टीवी चैनलों पर धुरंधर प्रकट हो जाते हैं। समय पर पुण्य प्रसून वाजपेयी, आईबीएन पर आशुतोष....और भी ढेरों नाम हैं लेकिन कल मैं इन दोनों चैनलों को एक एक कर देखता रहा। आईबीएन की लीड खबर थी वाराणसी में पत्रकारों की बसपा विधायक और पुलिस द्वारा पिटाई को केंद्र में लेते हुए माया राज में गुंडा राज की गंगा बहना। समय पर तस्लीमा को फोकस में रखा गया था और उनकी किताबों के वे अंश भी दिखाए गए जिसे लेकर मुस्लिम इतना नफरत करते हैं।
एक दर्शक और एक पूर्व पत्रकार होने के नाते मैंने दोनों चैनलों को एनालाइज किया तो लगा कि आईबीएन ने अपनी लीड खबर को सनसनीखेज तरीके से छोटे स्क्रीन पर उतारा लेकिन थोड़े ही देर बाद इसमें आया झोल और झामा दिखने लगा।
बनारस से विक्रांत दुबे लाइव देते देते, बोलते बोलते, अपनी बात पूरी किये बगैर ही एकदम से जागरण के न्यूज एडीटर की तरफ मुड़ पड़े। लगा, जैसे उन्हें स्टूडियो से डांटा गया हो, खुद ही बोलते रहोगे या बगल में जो मूर्तियां स्थापित की हैं, उनके भी मुंह खुलवाओगे। न्यूज एडीटर साहब ने तो थोड़ी बात की लेकिन इसके बाद विक्रांत जब दूसरे सज्जन से बात करने की कोशिश कर रहे थे तभी कट हो गया और आशुतोष परदे पर अवतरित।
मजा नहीं आया। खबर बढ़िया थी, एंगिल जोरदार था, शुरुआती बातें ठीक से गढ़ी गईं लेकिन इसके विस्तार में जाते ही मामला गड़बड़ा गया। लग गया, कुछ खास हाथ में नहीं है। चलो, विजुअल जोरदार न थे तो कम से कम पैकेज ही बढ़िया रखते। अव्वल तो एक खबर के आधार पर पूरे सिस्टम को गरियाना गलत है। अगर गरिया भी रहे हैं तो पूरी तैयारी करनी चाहिए थी। पूरी पैकेजिंग करनी चाहिए थी। दिमाग खर्चना चाहिए था। मतलब इसी बहाने दिखाते की मायाराज में अब तक इस तरह कितने कारनामे हुए जिसमें सत्ता पक्ष ने पत्रकारों या आम जनता का उत्पीड़न किया। इसमें कानपुर की घटना को भी शामिल किया जा सकता था जिसमें बसपा नेता ने आईनेक्स्ट के एक पत्रकार की पिटाई की थी और पूरा लंबा बवाल चला था। इसी तरह उस घटना को भी शामिल कर सकते थे जिसमें वो बसपा सांसद ने बुलडोजर चलवा दिया था पड़ोसी की जमीन या मकान पर। संभवतः आजमगढ़ या जौनपुर की घटना थी, इसके बाद बहन जी ने उनकी न सिर्फ क्लास ली बल्कि गिरफ्तार भी करवा लिया और पार्टी से निकाल दिया। इस घटना के बहाने दिखाया जा सकता था कि माया में शुरुवात में जज्बा था लेकिन अब वे भी सत्ता के रंग ढंग में रंग गई हैं और सत्ता की भाषा बोलने और जीने लगी है। दिमाग लगाने से ढेर सारे घटनाक्रम मिल सकते थे। और, हर पुराने घटनाक्रम के फालोअप को दिखा सकते थे, वहां के रिपोर्टरों को लाइव खड़ा रख सकते थे, दो-दो लाइन बोलने के लिए। लगता कि हां पूरी फौज फांटा है, चैनल पूरे तेवर में है, माया को छोड़ेगा नहीं। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। खैर, अंत में कह सकता हूं कि आईबीएन की लीड खबर एक जोरदार बम की तरह हवा में लहराने के बाद पहले से फटे पटाखे की तरह फुस्स हो गया।
उधर, समय पर पुण्य प्रसून वाजपेयी ने तस्लीमा के बहाने एक ऐसी स्टोरी दिखाई जिसके साथ ज्यादातर महिलाओं, आम जन और बुद्धिजीवियों का सहज जुड़ाव व जानने की उत्सुकता जुड़ी है। आज के समय में तस्लीमा एक बड़ी चीज हैं, एक रहस्य हैं, एक विद्रोह हैं, एक आग हैं, एक तेवर हैं, एक कथा हैं, एक एक्स्ट्रीम हैं, एक विजन हैं, एक बड़े तबके की आवाज हैं, राष्ट्रीय के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय टीआरपी की सब्जेक्ट हैं। तस्लीमा के जीवन, उनके लिखे और उनके सोचे की इतनी परतें हैं कि इस पर एक हजार तरह की स्टोरी बनाई जा सकती है, बशर्ते विजन हो और उसे दिखा पाने की क्षमता व साहस हो। पुण्य प्रसून ने एक कोशिश भर की इसलिए उनकी सराहना की जानी चाहिए। हालांकि इसके पहले आईबीएन ने भी कई बुलेटिन में तस्लीमा को लेकर ठीक ठाक कापी वाली न्यूज स्टोरी दिखाई है। कल भी तस्लीमा पे स्टोरी थी लेकिन मैंने उसे देखा नहीं क्योंकि यहां मैं उन खबरों से बात कर रहा हूं जिनसे बुलेटिन खोला गया। मतलब लीड खबरें।
पुण्य प्रसून ने दिखाया कि तस्लीमा अनुरोध कर रही हैं सियासतदानों से, मेरे साथ राजनीति न करो.....साथ ही दिखाया ....तस्लीमा लिखित उपन्यास के कथित विवादित अंश जिस पर मुल्ला लोग भड़के थे-हैं, एक मौलाना से लाइव बातचीत और सामने खड़ा कर दिया तेवरदार राजेंद्र यादव को, लड़ो और उगलो। मौलाना इस कदर बलबलाते रहे कि आखिर उन्हें बोलते हुए ही छोड़ना पड़ा। कुल मिलाकर मुझे यह ज्यादा बड़े फलक पर और गंभीर जनप्रिय न्यूज स्टोरी लगी जिसमें सस्पेंस भी था। तस्लीमा हैं कहां?
इधर, समय में जो समस्या आवाज और विजुअल के मेल न खाने की थी, जुबां पर कुछ और आवाज आ रही कुछ...वो दूर होती दिख रही है, इससे समय में थोड़ी रुचि बढ़ी है दर्शकों की। पहले तो सिर्फ इसी आधार पर समय नहीं देखते थे कि आवाज और होंठ में कोई मेल नहीं समझ में आ रहा था।
हां, आईबीएन पर डंके की चोट पर दहाड़ने से पहले जो प्रोग्राम चल रहा था वो वाकई जोरदार था। माधुरी से इंटरव्यू और उनके डांस के लाइव व रिकार्डेड अंश....मजा आ गया इसे देखकर। मेरी चलती तो इसी को डंके की चोट में भी दिखा देता....जब फटे पटाखे ही दिखाने हैं तो अच्छा है ताजगी भरी माधुरी की दूसरी पारी ही दिखाओ अन्यथा कोई ठीकठाक खबर ले आओ, अच्छे खासे फैक्ट्स और पैकेज के साथ।
मैं कल के नौ बजे के शो में समय और पुण्य प्रसून को 10 में 7 अंक देता हूं और आईबीएन व आशुतोष के शो को 10 में से 5 अंक।
हां, बीच-बीच में एनडीटीवी भी देख रहा था लेकिन उस पर रुक नहीं पा रहा था। वही ठंडी ठंडी एंकर, ठंडी ठंडी बातें। गुजरात चुनाव पर विशेष शो दिखाया जा रहा था लेकिन गुजरात के लोगों से बातचीत को देर तक सुन पाना अझेल हो रहा था।
ऐसा नहीं है कि भड़ास टीवी न्यूज चैनलों की रेगुलर समीक्षा करने जा रहा है। चूंकि पूरे दिन आफिस के बाद रात में घर पहुंचता हूं तो लगता है चलो, आधे घंटे टीवी-टीवी, चैनल-चैनल खेलें तो कई दिनों से सिनेमा और गाने देखने के बाद कल न्यूज चैनलों पर नजर गड़ाए रहा। उपरोक्त सब कुछ मेरी निजी राय व नजरिया है।
हां, इसी दौरान याद आ रहा है कि एक पत्रिका है जिसे एनडीटीवी की पूर्व एंकर राजश्री निकालती हैं, व्यूज आन न्यूज। उसमें जिस तरह टीवी और प्रिंड मीडिया के अच्छे-बुरे की खबर ली जाती है उसे हर पत्रकार को पढ़ना चाहिए। मैंने तो दो-तीन अंक ही देखे हैं लेकिन मुझे लगा, इस तरह की एक मैग्जीन या आनलाइन साइट की गुंजाइश है, तब जबकि हर रोज कई नए पत्रकार पैदा हो रहे हों और प्रिंट व टीवी में हर रोज नया मीडिया प्लान पैदा हो रहा हो।
फिलहाल इतना ही
जय भड़ास
यशवंत
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interview में गैरी पास, बुकानन फेल
जान राईट, ग्रेग चैपल के बाद अफ्रीका के गैरी कर्स्टन भारत के तीसरे विदेशी कोच के लिए हुए interview में पास हो गए हैं। बता दें कि आस्ट्रेलिया के पूर्व कोच बुकानन और गैरी कर्स्टन में भारत के कोच के लिए कड़ी टक्कर थी। जिसमे बाजी मारी गैरी ने। interview में पूछे गए सवाल का करेक्ट उत्तर नहीं दे पाए बुकानन फेल हो गए। interview में बुकानन से पूछा गया कि अगर आपको सचिन, द्रविड़ व गांगुली में से किसी एक को बाहर करना हो तो किसे बाहर करेंगे। वे इसका करेक्ट उत्तर नहीं दे पाए। एक बार सचिन को कहा तो दूसरी बार द्रविड़ को। चयन समिति ने कहा कि यहाँ बुझनी नहीं चलेगी। यह बुझनी आस्ट्रेलिया में ही चलाओ। इसके बाद आया गैरी का नम्बर। गैरी से भी यही सवाल पूछा गया तो उन्होने कहा कि भारत के गेंदबाज कि पिटाई हर जगह होती है। इसलिए हमें बल्लेबाज को न निकालकर गेंदबाजों पर खासा ध्यान देना चाहिऐ। फिर क्या था interview में गैरी पास और बुकानन फेल। (यह स्टोरी ऑफ़ द रेकॉर्ड है)
ग्रेग के बाद गैरी
वर्ल्ड कप में खराब प्रदर्शन के बाद ग्रेग ने कोच पद से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद से कोई भी कोच स्थायी रुप से नहीं रखा गया। हालांकि रवि शास्त्री, चंदू बोर्ड, राजपूत को मेनेजर बनाया गया। इस समय भी राजपूत भारत के मैनेजर हैं। करीब ८ माह से कोच का पद रिक्त था, इस तरह से सफलता के रथ पर सवार भारत के खिलाड़ियों को उपहार में कोच मिल जाएगा। कर्स्टन का कार्यकाल २ साल का होगा। अगर कर्स्टन इसके लिए राजी हो जाते हैं तो भारत के आस्ट्रेलिया दौरे से पहले वे कोच का कार्यभार संभाल लेंगे।
Posted by आलोक सिंह रघुंवंशी 0 comments
27.11.07
दुनियाँ सुधर जाएगी
युग पुरुष इस दुनियाँ में आने की जरूरत कतई नईं आपको ... आपका काम करने इस दुनियाँ ने नए नवेले तरीके सीख लिए हैं । आपको बेकार तखलीफ़ होगी , दुनियाँ को सुधारने आयेंगें , स्वर्ग में आराम होंगे ही वहीं रहिये । वैसे भी दुनियाँ में आतंक,भय,जुगाड़ - बिगाड़ , जोड़-तोड़ का माहौल आपको तो पचेगा ही नहीं ।
आपका काम दुनियाँ में कम्पनीयाँ करनें में सक्षम हैं । हमने उठ के जगाने की ठेकेदारी टाटा चाय पत्ती वालों को दे है ।
परिवार को जोड़े रखने के लिए , घरों में दीवार न खड़ी न हों इसके लिए "सीमेंट" कम्पनीयों को दे दिया है ।
पति पत्नी के चिंतन का रंग भरने की जवाब दारी भी बर्जर कम्पनी की है।
यदि किसी झगड़े को रोकना है तो "अपना सर्फ़ एक्सल है "...!
माँ के साथ बेटी की संवेदन शीलता क्रेक क्रीम , रिश्ते बनाने के लिए बाघ -बकरी चाय , अटूट बन्धन के लिए ज़रूरी अधेसिव , निरंतर साथ देते रहने के शिक्षा देती है अपनी एल आई सी ।
Posted by Girish Kumar Billore 0 comments
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तो भई, भड़ास ने भी बात थोड़ी आगे बढ़ाई
मोहल्ले पे अविनाश जी ने अपनी इस हेडिंग और संपादकीय इंट्रो के साथ ब्लागिंग पर दीपू राय की बात को आगे बढ़ाई है....
हेडिंग...आइए, बात ख़त्म नहीं करते, आगे बढ़ाते हैं... संपादकीय इंट्रो....दीपू राय ने अपनी समझ से हिंदी ब्लॉगिंग के बारे में कुछ बात रखी। हिंदी ब्लॉगिंग के वर्गीकरण से निकलने वाले निचोड़ पर कुछ लोग फोन से टिलबिलाये ज़रूर, लेकिन कायदे से लिख कर बात करना गवारा नहीं समझा। भड़ास में भी यशवंत ने इनक़लाबी अंदाज़ में उस लेख का प्रचार ही किया, न कि अपनी तरफ से कोई वैचारिक हस्तक्षेप। टिप्पणियों के ज़रिये कुछ बातें-बहसें हुईं, जो इस आग्रह से दे रहे हैं कि अगर वाक़ई दीपू ने काम का मुद्दा उठाया है, तो उस बात आगे बढ़े।
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अविनाश ने अपने इंट्रो में कई बातें कहीं हैं, उनका एक-एक कर विश्लेषण करना चाहूंगा.....
नंबर एक...अगर यह लग रहा हो कि ब्लागिंग पर कोई गंभीर वैचारिक बहस चलाई जा रही है, (जैसा कि कहा गया है....हिंदी ब्लॉगिंग के वर्गीकरण से निकलने वाले निचोड़... ) तो यह मेरे खयाल से गलत है। कई बार गंभीर शब्दों और क्लिष्ट शब्दावलियों के जरिए एक गंभीर बहस का नाटक भर किया जाता है, जो कि आजकल बेहद रूटीन है, पूरे भारत में, पूरी दुनिया में, लेकिन जब उन शब्दों और उन शब्दावलियों की चीरफाड़ की जाती है, तथ्यों की कसौटी पर कसा जाता है, मानकों का सहारा लिया जाता है, एक मेथाडालोजी पर कसा जाता है तो वे सिवाय एक सतही और सूखी बौद्धिक प्रलाप-एंगिलबाजी-भाषणबाजी-तेवरबाजी-इंटेलेक्चुअलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं नजर आतीं। अव्वल तो ये कि ये जो बच्चा विश्लेषक दीपू राय है, उनकी बातों को मैंने लाख तरीके से समझने की कोशिश की लेकिन वो मेरी समझदानी से परे की चीज लगी। खासकर भड़ास और फुरसतिया की पंचलाइन उद्धृत करने के बाद इन ब्लागों के चलाने वालों या इन ब्लागों से जुड़े लोगों या इन ब्लागों के बारे में जो निष्कर्ष है, वो किन घटनाओं, उदाहरणों, लेखों, पोस्टों के जरिए निकाली गई हैं, मुझे बिलकुल समझ में नहीं आती।
साइंटिफिक तरीके से बात की जाती तो बात समझ में भी आती। माना, कि इस आधुनिक दौर की पेचीदगियों और बदले समय-समाज की जटिलताओं का मूल्यांकन करने की निगाह किसी बच्चा विश्लेषक में हो भी नहीं सकती क्योंकि इसके लिए जिस अनुभव, जिस आधार, जिस दृष्टि की जरूरत होती है उसे पाने के लिए सिद्धांत और व्यवहार दोनों की दुनिया में काफी समय होम करना होता है, तब आप वो दृष्टि पाते हैं जिसे दुनिया मानती है और समझता है क्योंकि आप उस लेवल की चीज देते हैं। लेकिन कम से कम मोहल्ले पर इसे लाने से पहले अविनाश को सोचना-जांचना चाहिए था कि एक वर्गीकरण या एक निचोड़...जो भी नाम दिया जा रहा हो, को लाने के पीछे किन आधारों-पैमानों-तथ्यों का सहारा लिया जा रहा है। इसका पता करना चाहिए था। अगर ऐसा हुआ था तो उसका उल्लेख कर दिया जाना चाहिए था। आपने तो सीधे-सीधे दो ब्लागों और उनके चलाने वालों को कमीने टाइप का इंसान घोषित कर दिया। फिर पढ़िए, एक बार जरा ध्यान से....
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भड़ास: कोई बात गले में अटक गयी हो तो उगल दीजिए, मन हलका हो जाएगा...
फुरसतिया: हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै ?
आपको अक्सर इस तरह के वाक्य दिखेंगे। ये ऊपर से बहुत ही उदार भीतर से सख्त लोग होते हैं। वे बेहद चतुराई के साथ अपने राजनीतिक विचारों को जीते हैं। वे सबसे पहला काम अपने विरोधियों के चरित्र हनन का करते हैं।
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आपने सीधे-सीधे आरोप लगा दिया कि ये चरित्रहनन करते हैं।
ये न तो कोई विश्लेषण है, न कोई निचोड़। यह सब कुछ करने के लिए किया गया कुछ काम है जिसके पीछे कोई आधार नहीं है। ब्लागिंग पर बहस चलाने या लिखने का मतलब होता है आपके पास एक ठीकठाक सर्वे हो, आधार हो, शोध हो...फिर कूदिये मैदान में। यूं नहीं कि बहुत दिन से कुछ लिखने का मन था और बस, लिख दिया। और उसके बाद किसी ने छाप दिया। अब मैं अविनाश से पूछूं या बच्चा विश्लेषक से कि अरे भाई, एक उदाहरण तो बताओ चरित्रहनन का, जो इन ब्लागों ने या इन ब्लागरों ने किया हो। अगर साफ बोलने को तुम चरित्रहनन मानते हो तो मुझे तुम्हारे मनुष्य होने पर ही संदेह है क्योंकि अगर कोई बोलेगा तो किसी को चोट तो पहुंचेगी ही। मीठी मीठी बोलने को आप अच्छा मानते हो और खुलकर बोलने को दूसरों का चरित्रहनन करना तो इस मानसिक दिवालियेपन के लिए मैं क्या कर सकता हूं। संभवतः कवि/लेखक धरती से इतर कल्पनाशीलता रखता है जिसे समझने की कोशिश करना हम धरती वालों के लिए दुःसाध्य कार्य सरीखा है। भई, विश्लेषण, वर्गीकरण, निष्कर्ष, निचोड़...का इतना ही शौक है तो पहले ठीक से पढ़ो-लिखो, देश-दुनिया और समाज के गहरे जाकर समझो। फिर मोती चुन पाओगे। अभी तो केवल खाली और बदसूरत सीप ही सीप है जिसे अविनाश जी सोने के रूप में परोसे जा रहे हैं।
फिलहाल इतना ही....बाकी फिर.....अभी टेम थोड़ा कम है, काम ज्यादा है...
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 3 comments
इलेक्ट्रानिक मीडिया में भूकंप
सोमवार की सुबह 4 बजकर 43 मिनट पर दिल्ली और आसपास के इलाकों में भूकंप के झटके महसूस किए गए। रिक्टर स्केल पर इसकी तीव्रता 4.3 थी, जो ख़तरे के लिहाज़ से अधिक नहीं मानी जाती है। खुदा का शुक्र था कि कुछ भी नुक़सान नहीं हुआ। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया में इसकी तीव्रता काफ़ी अधिक दिखी। आमतौर पर 6 बजे सुबह से लाइव बुलेटिन की शुरुआत करने वाले ख़बरिया चैनलों में आज पांच बजे का बुलेटिन भी लाइव था। फिर शुरू हुआ, जनता के फ़ोन कॉल्स के आमंत्रण का चिर-परिचित सिलसिला और वही घिसे-पिटे सवाल मसलन जब भूकंप आया तो आप उस वक्त आपने कैसा महसूस किया, आपने फिर क्या किया, आपको कैसा लगा, आप उस वक्त क्या कर रहे थे, जाहिर है लोग घरों से बाहर निकल आए होंगे, फिर उसके बाद क्या हुआ आदि- आदि। ऐसे-ऐसे सवाल जिन्हें सुनकर आप हैरान हो जाएंगे। ऐसे सवाल जो खुद में जवाब हैं। पर ऐंकर करे क्या, उन्हें तो टाइम पास करना है। प्रतिक्रया देने वाले बदल रहे थे, ऐंकर वही, सवाल भी वही। साफ़ नज़र आ रहा था कि उनके पास इन्फॉर्मेशन कम है लिहाज़ा एक ही बात को रिपीट करने के सिवा कोई चारा नहीं। कुछ देर तक मौसम वैज्ञानिक से संपर्क स्थापित हो चुका था, रिसर्च भी हो चुकी थी। तब तक इसका एपिसेंटर और तीव्रता भी पता चल चुकी थी। अब तक तो काफ़ी मटेरियल हो चुका था उनके पास एक घंटे खाने के लिए। लगभग सारे शीर्षस्थ चैनल इसे जमकर भुनाने में लगे थे। सच भी है क्या पता अगला भूकंप कब आए। कई चैनलों के ऐंकर तो बार-बार मौसम वैज्ञानिक से एक ही सवाल दोहरा रहे थे या यू कहें कहलवा लेना चाह रहे थे कि वो किसी भी तरह से अगले भूकंप की भविष्यवाणी कर दे। बहरहाल, उन्होंने ऐसा नहीं किया। अंग्रेजी चैनलों मे भी ख़बर थी, लेकिन वो जनता से प्रतिक्रिया नहीं मांग रहे थे, शायद उनका दर्शकवर्ग प्रतिक्रया देने में समर्थ नहीं है या उन्हें प्रतिक्रिया की ज़रूरत नहीं, भगवान जाने। शायद ख़बरों को भुनाने के लिए उतावलेपन की कमी ही वो बड़ी चीज़ है जो अंग्रेजी चैनलों को हिंदी ख़बरिया चैनलों से जुदा करती है। समझ में नहीं आता वो दर्शकों को अपनी ओर खींचने के ऐसे मौके छोंड़ देते हैं फिर भी जनता में उनकी क्रेडिबिलिटी कहीं अधिक है। आखिर हम कब इस बात को समझेंगे कि दर्शकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश तो ज़रूरी है। लेकिन उसके और भी तरीके हैं।
अमित मिश्रा, सीएनईबी
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कनबतियां....मीडिया की दो खबरें.....
आईनेक्स्ट अब पांच जगहों से प्रकाशित
कानपुर और लखनऊ के बाद मेरठ। अब आगरा और बनारस। कुल पांच जगहों से दैनिक जागरण समूह का कांपैक्ट डेली आईनेक्स्ट प्रकाशित होने लगा। आगरा में 26 नवंबर को लांच किया गया तो बनारस में उसके एक दिन बाद 27 नवंबर को। कुल मिलाकर तेजी से प्रगति के पथ पर अग्रसर आईनेक्स्ट न सिर्फ सर्कुलेशन में रिकार्ड कायम कर रहा है बल्कि प्रकाशन केंद्रों के मामले में भी इसने जबर्दस्त बढ़त बना रखी है। आईनेक्स्ट से जुड़ने वाले पत्रकारों-गैर पत्रकारों को बधाई।
अरुण अनंत बने यूटीवी न्यूज के सीईओ
यूटीवी न्यूज तेजी से नियुक्तियां कर रहा है। उसने अरुण अनंत को बतौर सीईओ एप्वाइंट किया है। इसके पहले अरुण अनंत इकानामिक्स टाइम्स में बतौर वाइस प्रेसीडेंट काम कर रहे थे। इससे पहले यूटीवी न्यूज ने गोविंदराज एथिराज को अपना संपादक नियुक्त किया था।
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
अब तक की सर्वश्रेष्ठ भड़ास
आइना दिखाता है मुझे नामक शीर्षक से भड़ास पर डाली गई पोस्ट को पढ़िए। वाकई...जितने सधे शब्दों में गिरीश बिल्लोरे मुकुल ने अपनी भड़ास निकाली है वह अंदर से हिला देने वाली है। बाप रे....कितनी आग है। कितनी बातें कितने कम बातों में कह दी। वही तनाव और वही दबाव। काम का। बास का। मैं तो खुद को रोक नहीं पा रहा, यह कहने के लिए यह अब तक सर्वश्रेष्ठ भड़ास है। सर्वश्रेष्ठ भड़ास का पैमाना क्या है? मैं जो खुद सोच पाता हूं वह यह कि जिसके कह देने से मन हलका हो जाए और पूरी बात भी निकल जाए और कोई दिक्कत भी न आए वह सर्वश्रेष्ठ भड़ास है। कई बार हम उत्साहित होकर इतने नंगेपन के साथ सब लिखदेते हैं कि जब उसका साइड इफेक्ट होना लगता है तब महसूस होता है कि गलत हो गया। ऐसा मैं खुद भी करता था, करता हूं....यह सच है लेकिन इसे मैं आदर्श नहीं मानता। आदर्श यही है कि आपक बात भी कह दें और बात भी न खुले। दरअसल सही बात तो यही है कि सब कुछ बिलकुल साफ साफ कहना चाहिए लेकिन इस हरामीपने भरे दौर में साफ साफ कहने और सुनने पर दंगा हो जाता है। आपको झेलना पड़ जाता है। आपको नुकसान उठाना पड़ जाता है। तो अगर कबीरदास वाली स्थिति में आप आ गए हों कि चलो, जो होगा देखा जाएगा..कुछ इस अंदाज में...कबीरा खड़ा बजार में, लिया लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपने चले हमारे साथ...। लेकिन सच्ची बात तो ये है कि हर साथी, हर भड़ासी कहीं न कहीं करियर और परिवार और समाज की तमाम जिम्मेदारियों को भी निभाता है इसलिए उसे सब कुछ ऐसे कहना करना है कि अपना काम भी बन जाए, मन भी हलका हो जाए और आगे सब कुछ सही और सुंदर बना रहे। तो मैं सभी भड़ासियों से अनुरोध करूंगा कि इस पोस्ट के नीचे पड़ी पोस्ट आइना दिखाता है मुझे को जरूर पड़ें और अपनी टिप्पणी भी वहां जरूर दें। इस पोस्ट की टिप्पणियों में अमित ने एक टिप्पणी लिखी है इलेक्ट्रानिक मीडिया में भूकंप। दरअसल, यह टिप्पणी नहीं एक अलग पोस्ट है जिसे अमित को अलग पोस्ट के रूप में डालना चाहिए था। अगर अमित पढ़ रहे हों तो वो उसे निकालकर अलग से डाल दें, काफी मजेदार और बेहद अच्छे तरीके से लिखा है उन्होंने।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
26.11.07
आइना दिखाता है मुझे
वो मुझे मेरे किये धरे कार्यों की गलतियाँ गिनाता , सबके सामने खुले आम मुझे ज़लील करता हुआ अपने को मेरा भाग्य विधाता साबित करता है......!
Posted by Girish Kumar Billore 5 comments
Labels: तनाव
भड़ास और फुरसतिया का चरित्र---ये पहला काम विरोधियों के चरित्र हनन का करते हैं???
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भड़ास: कोई बात गले में अटक गयी हो तो उगल दीजिए, मन हलका हो जाएगा...
फुरसतिया: हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै ?
आपको अक्सर इस तरह के वाक्य दिखेंगे। ये ऊपर से बहुत ही उदार भीतर से सख्त लोग होते हैं। वे बेहद चतुराई के साथ अपने राजनीतिक विचारों को जीते हैं। वे सबसे पहला काम अपने विरोधियों के चरित्र हनन का करते हैं।
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उपरोक्त लाइनें मोहल्ला ब्लाग में दीपू राय ने लिखी है। कवि ने इन दोनों ब्लागों या इसके चलाने वालों या इसके सदस्यों का जो चरित्र व्याख्यायित किया है उसे पढ़कर मुझे वाकई आश्चर्य हुआ और थोड़ी प्रसन्नता महसूस हुई। आश्चर्य इसलिए कि अपना चरित्र साफ साफ किसी ने बताया। वैसे भी आज के युग में साफ साफ कहने वाले कितने हैं। कबीर ने कहा है ना, निंदक नियरे राखिए...। तो ऐसे बेशकीमती निंदक और सलाहकार कहां मिलते हैं। अपना या अपने ब्लाग का चरित्र जानकर प्रसन्नता इसलिए हुई क्योंकि इन दोनों ब्लागों में ही इतना दम बचा हुआ है जो शायद समीक्षा लायक लगें वरना सभी ब्लाग बेकार हैं और उनका उल्लेख उनका नाम लिए बगैर भी किया जा सकता था, वर्गीकृत करके कि हिंदूवादी और मार्क्सवादी कैटेगरी के ब्लाग होते हैं, और इतना कहते ही गप्प से ढेर सारे ब्लाग इस कैटगरी में समाहित हो जाते हैं, नाम गिनाने की जहमत से बच जाते हैं।
सोचा, अगर मोहल्ले पर भड़ास और फुरसतिया का चरित्र विवेचन (या हनन?) किया गया है तो इसे सारे भड़ासियों को भी पढ़ाना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि उनका ब्लाग कितना बेशकीमती है जो इस पर कविगण, लेखकगण अपने दिमागी टार्च की रोशनियां फेंकने के लिए आतुर हैं। दीपू को साधुवाद इसलिए कि उन्होंने भड़ास का नाम याद रखा और उसकी पंचलाइन को पूरा लिखा और उसकी बुद्धिभर व्याख्या की। बधाई इसलिए कि ब्लाग के दशा-दिशा पर लिखने की जहमत उठाई वरना आजकल तो लोग ब्लाग बना लेते हैं, उसके दशा-दिशा पर सोचता कौन है, किसके पास इतना टेम है कि शादी होते ही नवविवाहिता जोड़े के चरित्र को तीसरी आंख से पढ़कर उनके चाल-चलन का ऐलान कर दे। हिंदी ब्लागिंग अभी जिस इनीशियल फेज में है उसके बारे में बहस की शुरुआत करना वाकई काबिलेतारीफ काम है।
अविनाश जी को भी बधाई क्योंकि उन्होंने कवि के विचारों को अच्छे से प्रस्तुत-संस्तुत कर सबके सामने पेश किया ताकि गाली प्रकरण का पटाक्षेप होकर एक नया प्रकरण शुरू हो सके।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
ताजनगरी अब मीडिया मारामारी नगरी भी
एक वेबसाइट है न्यूजवाच.इन। इसे देखा तो एक पुरानी स्टोरी मिली। एक अप्रैल को लिखी गई। रोचक लगी। हालांकि इसके कई तथ्य समय बीतने के साथ अपग्रेड हो चुके हैं। पर स्टोरी है इंटरेस्टिंग। कैसे एक शहर आगरा मीडिया युद्ध का गवाह बनने जा रहा है। खबर पढ़िए और आपके पास अगर आगरा को लेकर कुछ ताजा अपडेट हो तो जरूर बताइएगा। मुझे इतना पता है कि वहां डीएलए--अंग्रेजी में सुबह और हिंदी में शाम, काफी धूम मचाए है। आईनेक्स्ट लांच कर दिया गया है, जैसा कि साथियों ने बताया। तो वाकई, ताजनगरी कुछ दिनों में मीडिया मारामारी नगरी के रूप में दिखेगी....स्टोरी पढ़िए...
यशवंत
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Agra is now centre of intense media war
April 1, 2007 | Anon | Calcutta News.Net
Suddenly the media scene seems to be undergoing a dramatic metamorphosis in Agra, all to the advantage of the readers who have many more choices now.
A new mid-day daily tabloid called DLA has finally entered Agra’s media ‘mandi’ with a bang, leading to intense competitive war with all kinds of innovative schemes and discounts. Local journalists never had it so good, with ample opportunities coming their way to shift loyalties and get out of turn promotions.
DLA has appeared on the scene at the right time with state assembly elections round the bend. Candidates now have another platform with a fairly good reach and affordability.
The first few issues of DLA have according to market sources received an unexpected positive response. ‘At Re.1 the reader gets 24 colourful pages to read and all the stories have a predominant human interest,’ said Amit Agarwal, a newspaper reader.
With Amar Ujala now shaken after the split in the family and most of its staff moving over to DLA with Ajay Agarwal, the publisher owner of DLA, all eyes are turned on the stiff competition between India’s number one Dainik Jagran and Dainik Hindustan, which was launched some months ago.
Jagran’s Inext is soon to be launched in Agra. Sahara group is also planning an Agra edition and so is Dainik Bhaskar. The city will also have three FM stations.
The million dollar question being debated in Agra right now is whether a mid day tabloid will click. ‘The city does not have an office going clientele. Agra is not a working class city. I doubt if anyone would be interested in buying an afternoon paper,’ comments Sudhir Gupta, an LIC (Life Insurance Corporation of India) agent.
An interesting experiment to watch, says local resident Tulika Kapoor. ‘A big city like Agra must have many quality newspapers and the readers should get several choices. Ultimately this media explosion will lead to heightened social awareness and sharpen civic consciousness,’ Kapoor adds.
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
sab lead ka khel hai
कोलकाता से कोलकाता via kanpur ludhiyana ke bahane bahut kuch likhane ki koshish kayee dino se kar raha tha, likha bhi par post nahin kar paya. hua kuch is tarah se bhadasi saathiyon ki aajkal man bada udas hai. ek to kuch hi dinon mein dil mein bas gaye saathiyon ko chodane ka gham (inext kanpur ke 8 mahine), phir kuch gharelu samasya aur yahan (kolkata) pahuncha to nandigram ne bechain kar diya. kuch kar nahin paa raha hoon. nandigram ki isthiti kaafi vikat hai. pata nahin kitane maare gaye, pata nahin kitni mahilaon ke saath rape hua, par hum kuch nahin kar paaye, kisi ne kabhi kaha tha ki bandook nahin kalam nikalo, akhbar nikalo, kuch aisa hi, yaad nahin aa raha. par bengal mein sab bekar cpim ki dadagiri charam par hai, ngo, crpf aur aam log kuch nahin kar paa rahe hain. kendra ka rawayia bhi dhulmul hi hai, isi bahane nuclear deal ke mamle ko saltane mein lagi hai. khair yeh sab chdiye. pata nahin kahan bhatak raha hoon, man se bhi aur likhane mein bhi. cheejen betarteeb ho rahi hain. nandigram mein jo hua, so hua, tasleema ke bahane kolkata jaise shahar mein curfew lagana pada, army utarni padi, isase aur chot pahunchi. ek to yeh sochkar ki jab desh jal raha tha un paristhitiyon mein bhi kolkata ke log nahin bhadake, phir choti si baat par itna gussa kyon. kahin rijwan ka gussa to bahar nahin aa gaya. budhijeeve verg, jo kolkata aur bengal mein to kam se kam left ka himayati mana jata tha, aaj iske virodh mein khada hai, par sunane wala koi nahin.
wahin kal subah-subah ek patrakar mitra ka phone aaya bole yaar kayee din to nikal gaye kayee headline mili, nandigram, lucknow blast, guwahati blast aur jaane kya-kya ginate rahe, aaj kuch nahin hai. front page ki lead kya banegi, yaar kuch batao samajh mein nahin aa raha hai. ab main unhe kya batata, lead to kayee hai, ek sajjan hain kolkata mein jo desh ki azadi ke liye lade 1901 mein paida hue aur aaj bhi sahi salamat logon ki muft chikitsa kar rahe hain unani padhati se, kya wag front page ki lead layak nahin, par nahin kah saka, janata hoon mitra hansenge, chup raha, tab tak tv par khabar aayee assam mein kayye jagah dhamake, mujhe laga mitra ko front page ki lead mil gayee, maine sochana chod diya kyonki ki lead taiyar thi, ab kal ki sochen ki kahan kitane maren aur hum lead banayen, luck mein 16 to guwahati mein 20 aur agali lead....? bas bhayiyon sab lead ka khel hai aur hamari raji-roti, par ab dar lagane laga hai, is khoon sani roti se, aise kaam se jahan kisi ki maut par hum khush hote hain, jitani maut, utani badi lead 2 column, 3 column yaa banner... ab lead ka yah khel nahin khela jaata...
Posted by विशाल अक्खड़ 0 comments
रियाज़ भी आ गए, सदस्य संख्या ६० पहुंची
भड़ास की कल्पना और शुरुआत के साथ से ही साथी रहे सहारनपुर के रियाज़ हाशमी जी फिर नए भड़ास के भी मेंबर बन गए। और आज भड़ास की मेंबरलिस्ट बढ़कर 60 पहुंच चुकी है। पहले तो रियाज़ और अन्य नए भड़ासियों की जमकर और जोरदार स्वागत। कमी रह गई है तो विकास मिश्र जी कि लेकिन पता नहीं कौन सी मजबूरियां हैं जो वो भड़ास को दूर कर किसी सौतन को गले लगाये पड़े हैं। खैर, भड़ास में उनकी कमी खलती रहेगी और उन्हें हम हमेशा मिस करते रहेंगे। कुछ उसी तरह जैसे वनवास गए राम की जगह उनकी खड़ाऊं को सिंहासन पर रहकर भरत राजपाठ देखते रहे। तो विकास जी की जगह खाली रहेगी और उनके आने का इंतजार रहेगा।
रियाज़ पिछले कुछ दिनों से जिस तनाव में थे, उसको हम समझ सकते हैं। उनके और मेरे भी मित्र रहे आईबीएन के नीरज चौधरी का एक सड़क हादसे में गुजर जाना, काफी सदमा देने वाला रहा। उस दुख से उबर पाना संभव नहीं लेकिन ज़िंदगी है जो समय के साथ जख्मों पर मरहम लगाकर आगे चलने के लिए खुद ब खुद ढकेलती रहती है। कोई लाख चाहे जिंदगी को पीछे नहीं ले जा सकता, जिंदगी और समय की गति को रोक नहीं सकता। हम बस इतना कर सकते हैं कि पीछे की यादों को संजोकर रह सकते हैं ताकि उनसे प्रेरणा लेते रहें, सीख लेते रहें, सबक लेते रहें।
रियाज़ भाई से उम्मीद करता हूं कि वे नीरज के जीवन के कुछ ऐसे पहलुओं पर रोशनी डालेंगे जिससे हम सब कुछ जान सकें, सीख सकें। भड़ास पर नीरज की तस्वीर सदा रहेगी, इसका हम सभी भड़ासी ऐलान करते हैं। क्योंकि हम चाहते हैं कि भविष्य में नीरज की स्मृति में हम जरूर कुछ न कुछ करें। यह कबसे और किस रूप में होगा, मैं अभी कह पाने की स्थिति में नहीं हूं लेकिन हां, करना है, इतना तो तय है।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
कनबतियां- मीडिया जगत की कई खबरें......
पायनियर अगले महीने से रांची में भी
इंगलिश डेली पायनियर अब देहरादून के बाद रांची में अपना एडीशन लांच करने की तैयारी में है। यह एडीशन जल्द ही अगले महीने दिसंबर में लांच कर दिया जाएगा। इसके लिए पायनियर ग्रुप ने रांची के ही एक उद्यमी से समझौता किया है। ये दोनों मिलकर रांची एडीशन चलाएंगे। देश का मशहूर अखबार पायनियर पिछले कई वर्षों में कई तरह के उठापठक का गवाह रहा है और अपने सिकुड़ते दायरे को फैलाने के लिए उसने बाजार और पूंजी का सहारा लेते हुए फिर से अभियान शुरू किया है। देहरादून में पायनियर को क्या रिस्पांस मिला है, ये तो देहरादून के भड़ासी साथी बताएंगे लेकिन रांची में भी शुरू किये जाने की खबर निश्चित ही पत्रकारिता और मीडिया जगत के लिए खुशी की बात है।
9X का पहला हफ्ता
नए हिंदी इंटरटेनमेंट चैनल 9X का पहला हफ्ता काफी उत्साहजनक रहा। टीआरपी के आधार पर बात करे तो मिश्रित रिस्पांस मिला है। इसलिए यह ग्रुप काफी उत्साहित है। ग्रुप का मानना है कि जो टीआरपी उसने हासिल की है उसके आधार पर उसका भविष्य शानदार है, यह कहा जा सकता है।
मिथिलेश श्रीवास्तव आईनेक्स्ट आगरा में, रविशंकर आज समाज दिल्ली में
दो साथियों के दो नई जगहों पर ज्वाइन करने की खबर मिली है। होनहार पत्रकार मिथिलेश श्रीवास्तव ने आईनेक्स्ट आगरा ज्वाइन किया है। दूसरे बेहद प्रतिभावान और जमीनी संवेदनाओं से जुड़े रविशंकर तिवारी ने दिल्ली में आज समाज अखबार बतौर सीनियर रिपोर्टर ज्वाइन किया है। इन दोनों के सफल भविष्य और करियर के लिए भड़ास की तरफ से शुभकामनाएं।
लुधियाना में दैनिक भाष्कर की डमी प्रिंटिंग शुरू, लांचिंग दिसंबर मध्य में
लुधियाना में दैनिक भाष्कर की टीम डमी पब्लिश करने लगी है, ऐसी सूचना मिली है। स्थानीय संपादक राजीव सिंह के नेतृत्व में कुशल और दक्ष पत्रकारों की टीम कंटेंट और लेआउट के लेवल पर रोज नए प्रयोगों में लगी है। बताया जा रहा है कि लुधियाना में भाष्कर जिस तरह का अखबार लांच करने जा रहा है वो कंटेंट के लेवल पर काफी एक्सपेरीमेंटल और नई पीढ़ी को सहज तरीके से अपने से जोड़ने वाला होगा। इसको लेकर वहां पहले से बिक रहे अखबारों में चिंता है और वे अपनी जड़ें पुख्ता करने को कंटेंट के साथ मार्केटिंग का जादू बाजार पर चला रहे हैं और पाठकों को अपने से जोड़ने रखने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। अब देखना है कि भाष्कर का जो प्रोडक्ट लुधियाना में आता है उसमें कितनी क्वालिटी होती है और पाठकों पर वह कैसा प्रभाव छोड़ पाता है।
(अगर आपके पास भी कोई खबर हो तो कृपया yashwantdelhi@gmail.com पर मेल कर दें)
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
राष्ट्रीय पुस्तक मेला, भोपाल
कल शाम मैं बडे उत्साह से टी.टी.नगर में लगे पुस्तक मेले में गया। हाथ में एक सूची ले रखी थी कि फलां फलां पुस्तकें खरीदनी हैं। लेकिन पहला झटका मेले के गेट पर ही लगा जब 'प्रथम ग्रास मछिका पात , की तर्ज पर देखा कि ३ रुपये वाली टिकट की कीमत सुधार कर ५ रुपये कर दी गयी है.खैर जनाब मेले में प्रवेश किया.अब बारी थी और अधिक निराश होने की। मेले में इक्का-दुक्का ही अच्छे प्रकाशकों के स्टाल थे वरना तो आधा मेला 'मैनेजमेन्ट गुरु' बनाने वाले प्रकाशकों ने हाइजैक कर रखा था। जिन स्टालों का भ्रमण किया वहाँ पाया कि साड़ी कूड़ा किताबें मेज पर सजी हैं और क्लासिक्स मेज के नीचे शर्मिंदा से छिपे बैठे हैं। बेचारों को पुचकार के बाहर निकालने की कोशिश की तो स्टाल मालिक ने आपत्ति कर दी कि 'साहब आप तो देख के चले जायेंगे फिर इन्हें टेबल के नीचे घुस के जमाएगा कौन?'
सारा मेला भोपाल के प्रतिष्ठित एन.जी.ओ.धारकों से घिरा हुआ था.ये फर्जी बुद्धिजीवी चेहरे पर गंभीरता का लबादा ओढे इस फिराक में घूम रहे थे कि कोई उन्हें यहाँ देख ले तो आना सफल हो जाये.खैर..घूमते घूमते एक स्टाल सेकेंड हैण्ड किताबों का दिखा, जहाँ पचास प्रतिशत की छूट थी.वहाँ गया तो ढेरों रूसी लिटरेचर फेंका हुआ सा रखा था , १६ किताबें छाँट कर जब काउंटर पहुंच के बिल बनवाना शुरू किया तो पाया कि सभी किताबों की मूल कीमत ५,१० रुपये को सुधार कर ४०-६० कर दिया गया था। बहस karane पर taka सा जवाब मिला कि लेना है तो लो नही तो....सच उस दिन लगा कि soviat sangh का vikhandan naa होता तो ही ठीक था .
Posted by संदीप कुमार 0 comments
24.11.07
Sawtanttrata
Meri aor se sabhi Bhadas ke lekhko aor pathko ko namaskar me koi lekhak nahi pathak jarur hu abhi mene b.b.c hindi par Renu Angal ji ka Lekhika Taslim Nasir ke bare me likha lekh padha jis me bade bade samaj shashtrio ke bhi wichar likhe he mere wichar me jo baat aai he ki Astha aor Vishwas ke age sawtantrta boni he har chij ki ek sima hoti he aor sima par karne ka hak sawtantrta ko bhi nahi he me samjhta hu ki kisi dharm ke bare me galt likhna ya behuda chitr banana sawtantarta nahi ghatya mansikta aor sasti lokpriyta hasi karna he jise sabhy shamaj kabhi sawikar nahi karta ye dunia apsi vashwas par tiki he aor sabhy log vishwas todhte nahi jodhte he kisi ke bhagwan par galt tipni karna ya nagan chitr banana kala nhi balki kala ka apman he aese log kabhi bhi samaj ka bhala nhi kar sakteaor esi sawtantrta kis kam ki jo samaj ko do hiso me bat de.......
(एक अधूरी पोस्ट ड्राफ्ट के रूप में पोस्ट्स के बीच में सेव पड़ी थी, सोचा, जिस भी भड़ासी साथी ने इतनी मेहनत की है, उसकी अधूरी लेकिन उम्दा मेहनत को पब्लिश कर सबके सामने ला ही दिया जाए......य़शवंत)
Posted by Anonymous 0 comments
दो घंटे में ही चार मेंबर बने, संख्या पहुंची 54
भई वाकई, मानना पड़ेगा भड़ास की रफ्तार को। आज जब 49वां मेंबर बने हुए देखा तो मन में आया कि 50वें का थोड़ा ठीकठाक स्वागत करने की घोषणा कर दी जाए। तो पता चला कि दो घंटे में ही चार मेंबर बन गए। अब मैं ठीक से तय नहीं कर पा रहा हूं कि 50वां मेंबर है कौन। मैं नाम गिना दे रहा हूं कि नये मेंबर कौन कौन दिख रहे हैं।
एक तो संजय मिश्रा नाम के पत्रकार हैं जो एक मैग्जीन कंप्लीटविजन के प्रबंध संपादक हैं। दूसरे नारद संदेश नाम से एक साथी सदस्य बने हैं जिनका ब्लाग है नारद संदेश। तीसरा नियति नाम से नियति वर्मा मेंबर हैं जिनका मेरी आवाज नाम से ब्लाग है। इन तीनों का जोरदार स्वागत। इनके अलावा कोई एक सज्जन और हैं जो मेंबर बने हैं लेकिन मेंबर लिस्ट से छांट पाना मश्किल हो रहा है कि कौन अभी बना है। तो इनमें से 50वां कौन का झगड़ा इस तरह सुलझाते हैं कि इन चारों को ही 50वां मेंबर घोषित करते हैं और चौथे साथी से अनुरोध करते हैं कि वो खुद बताएं कि वो किस नाम से मेंबर बने हैं। आप सभी भड़ासियों से अनुरोध है कि नए बने सदस्य नियति, संजय मिश्रा और नारद संदेश की प्रोफाइल देखें और इन्हें विश करें। उम्मीद है ये लोग अपने विचार से हमें अवगत कराते रहेंगे।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
रविशेखर की अनकही कहन
रविशेखर कुछ लिखना चाहते थे लेकिन लिख कर उसे पब्लिश नहीं कर पाए हैं, उनका फोन भी आया था, यशवंत भाई...पता नहीं क्या प्राब्लम है, पब्लिश नहीं हो रहा। रविशेखर जी, फिर ट्राइ मारिये.....रस्ता निकलेगा....।
यशवंत
Posted by RAVI SHEKHAR 0 comments
जय भड़ास.......50वां मेंबर कौन होगा?
आज मेंबरलिस्ट देखी तो 49 लोग पहुंच चुके हैं। हर रोज कुछ न कुछ सदस्य बढ़ रहे हैं। इसमें एक खास चीज है कि किसी को भी भड़ास का मेंबर बनने के लिए अलग से कहना नहीं पड़ा। लोग खुद ब खुद जुड़ रहे हैं। आज 50वां मेंबर बनेगा। जो भी बंधु 50वां मेंबर बनें वो तुरंत एक पोस्ट लिखकर अपने 50वां मेंबर बनने की घोषणा कर दें और खुद के बारे में थोड़ा बता दें। भड़ास दोबारा शुरू होने पर पहला सदस्य अनिल सिन्हा दद्द कानपुर वाले बने, अब देखना है 50वां कौन होता है।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
आखिर आवाम की हिफाजत का जिम्मा कौन लेगा ?
बहुत ज्यादा वक्त नहीं बीता जब यूपीए सरकार ने अपने तीन साल पूरे होने का जश्न मनाया। अखबारों में सरकार की ओर से बड़े बड़े विज्ञापन छापे गए। जनता को बताया गया कि इस सरकार ने पिछली सरकारों के मुकाबले क्या कुछ नया और अनोखा किया है। कितनी ईमानदारी के साथ उसने जनता की तकलीफों को समझा है। कितनी सारी परियोजनाएं शुरु हुईं और किस मद में कितना रुपया खर्च किया गया। लेकिन आंतरिक सुरक्षा के मोर्चें पर विफल इस सरकार को वो तमाम लोग नजर नहीं आए जिन्होंने बिना वजह अपनी जान गंवाई। यूपीए के सत्ता में आने के साथ ही देश में शुरु हुए आतंकवादी हमलों का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा। इन हमलों में ना जाने कितनी मांओं की गोद सूनी हो गई। कितनों की मांग उजड़ गई लेकिन सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। और इस बात का सबूत हैं लगातार हो रहे आतंकवादी हमले। काम काज के आधार पर यूपीए सरकार में कुछ लोगों के ओहदे बड़े कर दिए गए तो कुछ को खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन देश के इतिहास में सबसे कमजोर गृहमंत्री शिवराज पाटिल जी की कुर्सी सलामत ही रही। आखिर सरकार इन हमलों को रोक पाने में नाकाम क्यों है। क्या हमारा खुफिया तंत्र इतना कमजोर है कि एक के बाद लगातार एक हमले होते जा रहे हैं और हम महज हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। आखिर इन हमलों की जवाबदेही कौन लेगा। क्या महज राज्य सरकारों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा देने से या उन्हें खुफिया जानकारी से आगाह कर देने के तर्क से केन्द्र सरकार अपना पल्ला झाड़ सकती है। अयोध्या मंदिर परिसर में हमला, वाराणसी में संकट मोचन और कैंट स्टेशन पर हमला, जामा मस्जिद में बम धमाका, दिल्ली के बाजारों में सिलसिलेवार हमले, मालेगांव में हमला, मुंबई की लोकल ट्रेनों में सिलसिलेवार हमले, हैदराबाद में मस्जिद में हमले, समझौता एक्सप्रेस में बम धमाका, और अब फैजाबाद, बनारस, लखनऊ की कचहरी में हमले.....। हमलों की फेहरिस्त से ज्यादा लंबा और खतरनाक है इनका असर। कितना अच्छा होता कि प्रधानमंत्री और तमाम दूसरे आला मंत्री सोनिया गांधी और राहुल बाबा की पसंद नापसंद से आगे जाकर देश की जनता के बारे में भी कुछ सोच पाते। यूपीए सरकार में आतंकवादियों के हौसले कितने बुलंद हो चुके हैं, इसके लिए अब सबूत देने की जरुरत नहीं है। और अगर सरकार का यही ढीलमढाल रवैया रहा तो एक दिन हमारा देश पड़ोसी मुल्क में तब्दील हो जाएगा जहां बम विस्फोट और आतंकवादी हमले रोजमर्रा का हिस्सा होते हैं। मेरा तो मानना है कि ऐसी सरकार जो अपनी जनता की हिफाजत करने में नाकाम हो, उसे नैतिक रुप से सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।
Posted by यथार्थ 0 comments
23.11.07
बिगड़े जायके को संगीत से ठीक करें......प्रीत की लत मोहे...
एक दिन कार की बैटरी पूरी तरह डिस्चार्ज हो गई तो मारुति हेल्पलाइन वालों के बताए टिप्स पर कुछ ज्यादा ही अमल करते हुए अब मैं कार की बैटरी बिलकुल अनावश्यक खर्च नहीं करता। यहां तक कि एफएम पर भी पाबंदी लगा दी है, मतलब म्यूजिक आन नहीं करता। वैसे, गाड़ी चलाते वक्त म्यूजिक सुनने से कंसनट्रेशन भंग होता है, दिल्ली पुलिस मानती है और चालान भी कर देती है। यह सही भी लगता है क्योंकि जिस कदर ट्रैफिक है उसमें तो हर पल चौकन्ना रहना ही पड़ेगा वरना ले ली जान या फिर दे दी जान, फटाक से। ऐसे में जब गाना वाना सब बंद हो तो 45 मिनट का घर से आफिस और आफिस से घर वाला सफर कटे कैसे। तो भईजान, अपना कंठ खोला, गला खंखार के साफ किया और लगे कार में चिल्लाने। प्रीत की लत मोहे ऐसी लागी, हो गई मैं मतवारी.....जोर से चिल्लाकर न गायेंगे तो कैलाश खेर बुरा मान जायेंगे। जब भी यह गाना गाता हूं तो संजय त्रिपाठी कानपुर आईनेक्स्ट वाले की याद आ जाती है। क्या गाता है बंदा, इस्टाइल में, गला खोलकर, दिल जोड़कर। तो आज यही गाना गाते-गाते आया लेकिन जैसा कि हर बार होता है, गाना आधा अधूरा ही गा पाता हूं क्योंकि लाइनें याद नहीं होतीं। हर बार संजय को फोन करना पड़ता है, संजय क्या है इसके आगे। लेकिन इस बार सोचा, चलो आफिस पहुंचकर सर्च करता हूं, और वाकई बात बन गई। एक शाम तेरे नाम ब्लाग पर ढेर सारे खूबसूरत गीत देखने को मिले। मन ललच गया, सोचा अपने भड़ासियों को भी पढ़ा ही देते हैं। अंकित माथुर ने मुंह का जायका बिगाड़ रखा है तो इसे ठीक कौन करेगा। तो फिर लीजिए, पढ़िए और गुनगुनाइए......मेरठ से मुंबई तक की सफल यात्रा करने वाले समकालीन महान सूफी गायक कैलाश खेर की पेशकश....
प्रीत की लत मोहे ऐसी लागी
हो गई मैं मतवारी
बलि बलि जाऊँ अपने पिया को
कि मैं जाऊँ वारी वारी
मोहे सुध बुध ना रही तन मन की
ये तो जाने दुनिया सारी
बेबस और लाचार फिरूँ मैं
हारी मैं दिल हारी..हारी मैं दिल हारी..
तेरे नाम से जी लूँ, तेरे नाम से मर जाऊँ..
तेरे जान के सदके में कुछ ऐसा कर जाऊँ
तूने क्या कर डाला ,मर गई मैं, मिट गई मैं
हो री...हाँ री..हो गई मैं दीवानी दीवानी
इश्क जुनूं जब हद से बढ़ जाए
हँसते-हँसते आशिक सूली चढ़ जाए
इश्क का जादू सर चढ़कर बोले
खूब लगा दो पहरे, रस्ते रब खोले
यही इश्क दी मर्जी है, यही रब दी मर्जी है,
तूने क्या कर डाला ,मर गई मैं, मिट गई मैं
हो री...हाँ री..हो गई मैं दीवानी दीवानी
कि मैं रंग-रंगीली दीवानी
कि मैं अलबेली मैं मस्तानी
गाऊँ बजाऊँ सबको रिझाऊँ
कि मैं दीन धरम से बेगानी
की मैं दीवानी, मैं दीवानी
तेरे नाम से जी लूँ, तेरे नाम से मर जाऊँ..
तेरे जान के सदके में कुछ ऐसा कर जाऊँ
तूने क्या कर डाला ,मर गई मैं, मिट गई मैं
हो री...हाँ री..हो गई मैं दीवानी दीवानी
साभारः एक शाम तेरे नाम
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 2 comments
22.11.07
ऊंची दुकान फ़ीका पकवान!! "कबाब फ़ैक्टरी नोएडा..."
कई लोगो से तारीफ़ सुनने के बाद मैने व अन्य ने अपनी टीम को एक तथाकथित
रूप से उम्दा समझे जाने वाले रेस्टौरेण्ट में खाने पर ले
जाने की तजवीज़ की। मेरी शादी, एक दोस्त की बेटी होने की,
और एक अन्य साथी को अपने जनम्दिन की पार्टी देनी थी।
इरादा हुआ कि रैडिसन ग्रुप से संबंधित रेस्टौरेण्ट कबाब फ़ैक्टरी में जाया जाये।
खैर साहब हम सभी ने आज दोपहर के खाने की छुट्टी की
और शाम की रंगीन सोच में डूब गये।शाम को एक छोटी सी
ट्रेनिंग के बाद हम लोग अपने अपने वाहनों से पहुंच गये नोएडा
सेक्टर १८ के "कबाब फ़ैक्टरी" में।
शुरुआती दौर पर तीन तरह के कबाब पेश किये गये, ठीक ठाक थे।
कुछ ज़्यादा लज़्ज़तदार नही थे,उपर से चिकन मलाई कबाब परोसे गये जिनका
चिकन कई दिन से सडा हुआ था। खाने पर मालूम दिया कि चिकन खट्टा है,
और पकाया भी सही से नही गया है।
रेस्टोरेण्ट मैनेजर से कहा तो साला हमे ही पहाडे पढाने लगा।
हमने दिल को समझाया चलो कोई बात नही मेन कोर्स
में खाना अच्छा मिलने वाला है, रही सही कसर पूरी कर लेंगे।
अब बारी थी स्टार्टर्स के बाद मेन कोर्स की,हमने मेन्यू पूछा
मालूम हुआ कि सिर्फ़ दाल मखनी और दाल फ़्राई परोसी जाती है,
और एक वेजीटेरियन सब्ज़ी। भई अब तो हमारे सब्र का बांध टूटना ही था।
एक सेकण्ड में सीनियर मैनेजर मिस्टर शेखर और मास्टर शेफ़ मोहम्मद वकील साहब
तलब कर लिये गये, वो हमारे पास आये हमसे कुछ लम्हो तक गुफ़तगू की,
हमे गिनाने लगे कि किन किन नामी गिरामी शेफ़ व हस्तियों के साथ उन्होने
दाल पकाने का तजुर्बा हासिल किया है। उसी दाल को वो यहां पर अपने
पंच सितारा ग्राहकों को परोसते हैं। हमने पूछा कि भई
कबाब वगैरह खिलाने के बाद आप कुछ कोरमा वगैरह तो परोसिये,
कहने लगे कि भई यहां तो बस दाल ही परोसी जाती है।
पांच सितारा होटल के सितारे तो दूर की बात हमें तो वहां पर
कांटे ही कांटे नज़र आ रहे थे चारो ओर। सर्विस के नाम पर धब्बा।
कोई कटोरी रख कर जा रहा है तो चम्मच का कहीपता नही,
कोई पानी का गिलास रख कर जा रहा है तो मालूम नही पानी कब भरेगा।
खाना "ना" खाने के बाद जब हमसे मीठे के लिये पूछा गया तो
मालूम चला कि शाही टुकडा, फ़िरनी, गुलाब जामुन और मुज़ाफ़िर
नाम की डिश उप्लब्ध हैं हम सभी ने सोचा कि ट्रेलर इतना दकियानूसी था,
एण्डिंग अच्छी हो जाये शायद।
लेकिन यहां पर भी इन लोगो ने हमारी सोच की ऐसी तैसी कर डाली
शाही टुकडे के नाम पर दूध में भीगी हुई ब्रेड परोसी गई।
और दाम? बस पूछिये मत 900 रुपये प्रति व्यक्ति.......कुल मिला
कर मेरा अपना व्यक्तिगत अनुभव काफ़ी निराशाजनक रहा,
मै किसी भी भडासी या किसी अज़ीज़ को वहां खाने की सिफ़ारिश कभी नही करूंगा चूंकि
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Posted by Ankit Mathur 1 comments
अब बर्दाश्त नही होता...
यशवंत जी, नमस्कार
बहुत दिन भड़ास को देख पढ़ लिया, अब बर्दाश्त नही होता है सोचा चलो आज अपनी भड़ास निकल कर मन हल्का कर लिया जाये। भड़ास पाठशाला में आज मेरा पहला दिन होगा इसलिए कुछ सकुचाया कुछ सहमा सा दाखिल हो रहा हूँ, thoda सा होम वर्क करके laya हूँ उसको ही कर number दे दें। आपकी नजर हाल में ही लिखी कुछ line कर रहा हूँ . एक sulagti हुई pratikriya कि उम्मीद है ............
gar chand मेरे कमरे का bulb होता,
तो यह chadar chandni में dhul जाती
और tare sajte मेरे takiye per
यह khidki kahkashan पे khul jati
fhir suraj मेरे अख़बार कि ibarat bunta
subaha चाय कि payali में ghul jati
यह oas palkon per phisalti ayese
कि उम्मीद की सब kaliyan fhir khil jati
हर रात यही khawab लिए सो रहता हूँ
हर दिन एक haqiqat से aankh khul jati
hayatumar- hindustan meerut
@rediffmail.com
Posted by mindtwister 1 comments
नहीं पकड़ूंगा कलम, नहीं लिखूंगा कालम
कालम लिखने में आफत बन गया था बीसीसीआई, नौकरी बचानी है तो बोर्ड कि माननी ही पड़ेगी। काफी लंबे समय के बाद मुख्य चयनकर्ता दिलीप वेंगसरकर (कर्नल) अपने नाम से न्याय नहीं कर पाए और बीसीसीआई के आगे झुक गए। बीसीसीआई और वेंगी के बीच काफी लंबे से चल रहा खींचातानी आज समाप्त हो गया। कारण बताओ नोटिस जारी होने के बाद कर्नल ने बीसीसीआई से कहा कि वे आगे से कोई कालम नहीं लिखेंगे।
जब झुकना ही था तो बात का बतंगड़ क्यों बनाया
कुछ दिनों से कर्नल के एक समाचार पत्र में कालम लिखने का विवाद इस तरह गहराया कि बोर्ड बोर्ड ने कर्नल से यह कह दिया कि कालम लिखने का इतना ही शौक है तो छोड़ दो रास्ट्रीय चयन समिति। इसके जवाब में कर्नल कहाँ चुप बैठने वाले, उन्होने बोर्ड को करारा जवाब देते हुए कहा कि मुझे कालम लिखने से कोई नहीं रोक सकता है।
कर्नल का भड़ास किस पर कहर bankar टूटेगा
भारत-पाक वनडे क्रिकेट सीरिज बिना आलोचनाओं व बयानबाजी के साथ समाप्त हो गया। बोर्ड और चयनकर्ता इसे पचा नहीं पाए और आपस में ही भीड़ गए। बोर्ड उन्हें अनुशासन में रहने कि हिदायत दे रहा है जबकि कर्नल ऎंड कम्पनी ने उसे नकारते हुए साफ-साफ इस्तीफे कि धमकी दे दी। हालांकि पिछले १५ सालों से समाचार पत्रों में कालम लिखने वाले कर्नल इस आदेश से खफा तो जरूर होंगे, इसका भड़ास वे जल्द ही किसी पर निकालेंगे और वह किस पर कहर बनाकर टूटेगा यह आने वाला समय ही बताएगा।
Posted by आलोक सिंह रघुंवंशी 0 comments
ब्राह्मण और बकरे की कहानी
किसी गांव में एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना बनाई। एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा, “पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।”ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा है।” पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।” थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा, “पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना चाहिए।” पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया। आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला। उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है। थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया। इधर तीनों ठग ने उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई। इसीलिए कहते हैं कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है।
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जोकरों का समूह
श्रीलंका के अनुभवी बल्लेबाज मर्वन अटापट्टू ने चयनकर्ताओं से परेशान होकर उन्हें जोकरों का समूह कह दिया था। बाद में उन्हीं के चलते क्रिकेट को ही बाय-बाय कर दिया। एक तरफ वे क्रिकेट को अलविदा कर रहे थे तो इंडिया में शाहरुख़ खान को बीसीसीआई ने क्रिकेट मैंचो के बहाने फिल्मों का प्रमोशन करने का मुद्दा उठाया। इसके बाद शाहरुख़ ने भी कभी भी क्रिकेट नहीं देखने का कसम खा लिया। इस मामले के बाद यह लगाने लगा हैं कि केवल श्रीलंका के चयनकर्ता ही नहीं पुरा बीसीसीआई ही जोकरों का समूह है। क्रिकेट मैदान पर उपस्थित शाहरुख़ पर आपत्ति जताने वाला बीसीसीआई भूल गया है कि वह किसी को मैच देखने से नहीं रोक सकता। इस मामले में भी बोर्ड दो धडों में बंट गया है। एक तरफ जहाँ रत्नाकर सेत्टी शाहरुख़ कि आलोचना कर रहे हैं वहीं ललित मोदी ने साफ कह दिया कि शाहरुख़ बीसीसीआई के सम्मानीय अतिथि हैं । बीसीसीआई इसी तरह आपसी बयानबाजी में रोक नहीं लगाया तो उसे पूरी दुनिया ही जोकरों का समूह कहेगा।
Posted by आलोक सिंह रघुंवंशी 0 comments
21.11.07
ये कड़क सरकार... और इतने चैनल.....!!!
न्यूज से वास्ता रखने वालों और खासकर टीवी मीडिया से जुड़े लोगों के लिए दो महत्वपूर्ण खबरें हैं। एक से समझ में आता है कि आगे बाहर की दुनिया से सब कुछ इतना आसानी से नहीं होने वाला है और उनकी आजादी पर सवाल उठाने के लिए कमर कसा जा चुका है। अब अगर चुप रहे तो आगे बहुत देर तक और दूर तक झेलेंगे टीवी मीडिया वाले। दूसरी खबर से पता चलता है कि न सिर्फ आगे बाहर से मुश्किलें हैं बल्कि भीतरी घमासान भी घनघोर होने वाला है। मार्केट में ढेर सारे दुकानदार अपनी दुकानें लेकर आ रहे हैं। लग रहा है कि मछलीबाजार सा माहौल होने वाला है....। खैर, पढ़िए और थोड़ी टिप्पणी भी करिए, ज्यादा कहने का मन हो तो पोस्ट डालिए।
इन दोनों खबरों को आडियेन्समैटर्स डाट काम से उठाया है और हूबहू डाल रहा हूं, बिना अनुवाद किये, अगर किसी भाई को दिक्कत हो तो अपने पड़ोसी से पूछ ले........:):)
जय भड़ास
यशवंत
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The Government of India's 'Sting' Operation
The Government is seriously working to finalize the draft of the proposed Broadcasting Service Regulation Bill in close consultation with various stakeholders and State Governments. The Bill, inter alia, seeks to set up a Broadcasting Regulatory Authority of India to deal with content issues, amongst others. However, it is not specifically focused on Sting Operations. The present draft of the Bill is available on the Ministry’s website www.mib.nic.in
TV channels are autonomous and there is no proposal to curb their autonomy. However, they have to abide by the Cable Television Networks (Regulation) Act 1995 and rules framed there under and any other regulation issued from time to time.
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255 TV Channels Allowed Uplinking
The Ministry of Information & Broadcasting has permitted 149 news & current affairs TV channels and 106 non-news & current affairs TV channels to uplink from India, as on 15.11.2007. Five (5) TV channels, uplinked from abroad, have also been permitted to downlink in India. In addition to this, 52 TV channels, uplinked from abroad, have been provisionally permitted to downlink in India. The permissions are for operation on an all-India basis and are not State-wise.
Out of the total 255 channels permitted to uplink from India, 123 channels have Indian ownership whereas 132 have varying components of foreign equity in the parent company. Out of the total 57 TV channels uplinked from abroad and permitted to downlink in India, 2 TV channels have Indian equity whereas the remaining 55 TV channels have foreign equity.
The Ministry is considering the proposed draft of the Broadcasting Services Regulation Bill. The said Bill is still at drafting stage and is under consultation with States/UTs and other stakeholders. No time frame can be given for finalization of the said Bill as consultation is on-going process.
This information was given by Shri P.R. Dasmunsi, Minister for Information and Broadcasting & Parliamentary Affairs in a written reply to a question in the Parliament today.
साभारः audiencematters.com
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
जब गब्बर की शिन सेन से मुलाकात हुई
कल बच्चों ने फिर ज़िंद की कि पापा कहानी सुनाओ। क्या सुनाऊं, सोचता रहा। बचपन में जितनी कहानियां सुन रखी थीं हुंड़ार, सियार, भेड़िया, राजकुमार, हनुमान, राम, शंकर, राक्षस, नदी....सब सुना डाली। अब क्या सुनाऊं। तब लगा कि ये बच्चे जिन नए कैरेक्टर्स को बेहद पसंद करते हैं, उन पर कहानियां गढ़ी जाएं। और, इन कैरेक्टर्स को मैं भी खूब पसंद करता हूं। जैसे, मिस्टर बीन, टाम जेरी, शिन सेन....। लंबी लिस्ट है, लेकिन मेरे पसंदीदा ते यही चारों हैं। शिन सेन मुझे बड़ा अच्छा लगता है। मेरे बच्चे जितना पसंद करते हैं, शायद उनसे भी ज्यादा। वो खुलकरर हंसकर अपनी खुशी का इजहार कर लेते हैं तो मैं हलके हलके मुस्कराते हुए। कहानी सुनाने की जिद मैंने पूरी कि शिन सेन को लेकर एक और नई कहानी गढ़ते हुए। साथ में ले आया गब्बर सिंह को। कहानी कुछ यूं बनी....(इसमें मजा तब आयेगा जब ये पढ़ते हुए आप शिन सेन और गब्बर की स्टाइल में बोलने की भी कोशिश करें)
एक बार गब्बर घोड़े से जा रहा था। रास्ते में उसे शिन सेन मिला। वो गब्बर के घोड़े के सामने खड़ा हो गया। घोड़ा रुक गया। गब्बर को गुस्सा आया। वो बोला...
गब्बर - ये घोड़ा क्यों रुका सांबा
सांबा- आगे एक बच्चा है
गब्बर- मेरे घोड़े को आजतक कोई आदमी नहीं रोक पाया, इस छटंकी से कैसे रुक गया घोड़ा, लगता है इसे अपने जान की परवाह नहीं है या यह गब्बर को नहीं जानता
शिन सेन- ओ हो, ये छटंकी क्या होता है
गब्बर- इस आलू जैसी शक्ल वाले छटंकी की इतनी हिम्मत कैसे हो रही है कि वो जबान लड़ा रहा है गब्बर से
शिन सेन- ये गब्बर कौन है
गब्बर - तेरे सामने खड़ा है छटंकी, तुझे जान प्यारी है या नहीं
शिन सेन- जान खाने में चाकलेट जैसा लगता है क्या
गब्बर - तू हटता है सामने सा या घोड़े को तेरे उपर चढ़ा दूं...
शिन सेन- हां, मुझे घोड़े पे चढ़ना है, मुझे घोड़े पे चढ़ना है, मुझे घोड़े पर चढ़ा दो मोटू, घोड़े पर चढ़ा दो, बड़ा मजा आएगा, ओए ओए बड़ा मजा आएगा (गब्बर की तरफ पिछवाड़ा करके नाचते हुए)
गब्बर - ये पागल लड़का मरेगा आज घोड़े के पैरों से
शिन सेन- पागल तो बड़े लोग होते हैं
गब्बर - रुक, घोड़ा चढ़ाता हूं तेरे पर....चल घोड़े...
((शिन सेन ने लेजर लाइट वाला खिलौना आन किया और घोड़े की आंख पर रोशनी फेंक दी, घोड़ा हिनहिना कर पैर उटाता है और पीछे की ओर पलटकर भागता है, गब्बर गिरा धड़ाम से))
शिन सेन- बड़ा मजा आया, घोड़े ने मोटे को गिराया, बड़ा मजा आया, घोड़े ने मोटे को गिराया
शिन सेन- गिरने में मजा आता है अंकल
गब्बर- सांबा, कितनी गोलियां हैं रे
सांबा- तीन सरदार
गब्बर- तो ये लो, दो निकाल दिया..ठांय ठांय, अब कितनी बची
सांबा- एक सरदार
शिन सेन- तुम्हें काउंटिंग नहीं आती क्या मोटू....तीन में से दो निकलने पर तो एक ही बचेगा, फिर पूछ क्यों रहे हो...लगता है पढ़ने में कमजोर थे
((सांबा हंसता है, पूरा गिरोह हंसता है))
गब्बर - चुप रहो हरामजादों, तुम लोग खड़े खड़े मुंह क्या देख रहे हो
शिन सेन- तुम्हारा मुंह बहुत मोटा है, देखन में अच्छा लगता है.....
....
....
खैर..हरि अनंत, हरि कथा अनंता...
इस पूरी कहानी को सुनाते हुए मैंने गब्बर और शिन सेन की बोलने की स्टाइल की नकल करने की पूरी कोशिश की जिससे बच्चों को मजा आ गया। मुझे लगा, ये प्रयोग तो ठीक है। रोज एक कहानी इसी तरह बना सकते हैं....पारंपरिक भारतीय पात्र और एक विदेशी पात्र की मुलाकात कराकर। जैसे...मिस्टर बीन की मुलाकात अगर लालू यादव से करा दी जाए तो कैसे रहेगा....
नए भड़ासियों का स्वागत....भड़ासियों की संख्या 40 हो चुकी है। लेकिन अभी ढेर सारे भड़ासी, जो चुपचाप भड़ास देखते हैं लेकिन मेंबर नहीं बन रहे, अनुरोध है कि भई जल्द मैदान में आओ और अपनी क्रिएटिविटी दिखाओ, माने भड़ास निकालो।
फिलहाल इतना ही
जय भड़ास
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 2 comments
पत्रकार सहायता कोष!!
अनिल भारद्वाज जी के कथन से मै सहमत हूं।
नीरज इतिहास नही, हमारे दिलों में वो हमेशा वर्तमान रहेंगे !!
नीरज जी के परिवार को आर्थिक सहायता की आवश्यकता नही है।
शायद इस समय उन्हें भावनात्मक सहयोग की अधिक आवश्यकता है।
स्व० श्री नीरज चौधरी के नाम पर सहायता कोष की स्थापना के प्रस्ताव
को पूर्ण रूप से विश्लेषित करने के उपरांत ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जायेगा।
इस राहत कोष की स्थापना से पूर्व, नीरज जी के परिवारीजनों की सहमति
लेना अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
कोष की स्थापना का प्राथमिक उद्देश्य एक पत्रकार को उचित सम्मान देना है,
इस प्रयास में यदि उनके परिवार की सहमति प्राप्त होती है,
तभी इस दिशा में आगे कदम बढाया जायेगा,
अन्यथा इस कोष के लिये किसी अन्य उप्युक्त नाम की खोज की जायेगी।
इस विषय पर सभी मेम्बरान से सुझाव आमंत्रित हैं
विशेष रूप से सहारनपुर से जुडे़ सभी साथी।
अनिल भाई आशा है आप इस विषय पर उचित मार्गदर्शन करेंगे।
धन्यवाद...
अंकित माथुर...
Posted by Ankit Mathur 0 comments
Sir ji ki jay ho.
bhadas par hamara bhi admission sweekaqr karein.
Posted by brijesh dubey 0 comments
20.11.07
भा.ज.पा एवं जनता दल (एस) का हनीमून
कर्नाटक भा.ज.पा. और जनता दल (एस) का गठबन्धन की सुहागरात मनने से पहले ही तलाक हो गया इसमें किसकी गलती थी यह तो दोनो गठबन्धन करने पता लगायें किन्तु इस तरह के गठबन्धन को रोकने की कोई कानूनी या सामाजिक व्यवस्था होनी चाहिये क्योकि यदि कोई गठबन्धन होता है तथा कुछ दिन का तमाशा दिखा कर टूट जाता है तो निंशन्देह ही इससे जनता का धन और विश्वास दोनो का ही ह्रास होता है। क्या ये दोनो पार्टियाँ इसकी भरपाई ईमानदारी से करेंगी या इसकी भरपाई जनता स्वंय करें। यह तो शायद आने वाले चुनाव में ही पता लगेगा। परन्तु मेरी राय में इस तरह के मामले में राज्यपाल को भी पूरी तरह आश्वस्त होकर तथा यदि कानूनी रूप संभव हो तो लिखित समझोते के बाद ही बहुमत के लिए बुलाना चाहिये।
Posted by Ajit Kumar Mishra 0 comments
आज समाज दिल्ली में लांच, शुभकामनाएं...
गुड मार्निंग समूह का आज समाज नामक अखबार दिल्ली में आज लांच कर दिया गया। इसकी लांचिंग सूचना प्रसारण मंत्री और पंजाब के मुख्यमंत्री की मौजूदगी में की गई। अखबार के समूह संपादक मधुकर उपाध्याय हैं और स्थानीय संपादक प्रदीप सिंह हैं। पहली नजर में अखबार काफी आकर्षक और प्रभावकारी है। इस अखबार का भविष्य अच्छा दिख रहा है क्योंकि इसका प्रजेंटेशन और लेआउट काफी भला और साफ-सुथरा है। हालांकि अभी काफी कुछ किए जाने की संभावना भी है। जैसे इस अखबार को अपनी वेबसाइट और अपना मोबाइल कंपेन भी लांच करना होगा ताकि वह पाठकों को इंटरएक्टिवटी के जरिए जोड़ सके। साथ ही कंटेंट पर लगातार काम करना होगा क्योंकि सारी लड़ाई कंटेंट की है। दिल्ली में प्रसार पाना आसान नहीं है इसलिए उसे मार्केटिंग स्ट्रेटजी भी नई तरीके की प्लान करनी होगी। कुछ ही दिनों पहले दिल्ली में मेल टुडे भी लांच किया गया। इस तरह से दो नए अखबारों के आने से दिल्ली के मार्केट में लड़ाई और तीखी हो गई है।
फिलहाल भड़ास की तरफ से इन दोनों अखबारों के बेहतर भविष्य के लिए शुभकामनाएं और यहां काम कर रहे सभी पत्रकारों और गैर पत्रकारों को बधाई...बेहतर अखबार लाने के लिए।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
पत्रकार या बेकार
किसी ज़माने में अकबर इलाहबादी ने कहा था कि :-
खींचो न तीरो कमान न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तब अखबार निकालो।
अखबार की ताकत को बयाँ करने वाला यह जुमला शायद आज बेकार हो गया है या फिर शायद बदलते समय के साथ इस शेर और अखबारो की शक्ति क्षीण पड़ गई है। एक समय अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले एवं स्वतंत्र अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम माने जाने वाले इन अखबारों की स्थिति आज ऐसी हो गई है य कर दी गई है कि इन्हे भी अपनी लेखनी और कलम की शक्ति का प्रयोग करने की जगह ज्ञापन सौंपने और विरोधात्मक रैली निकालने जैसे दूसरे दर्जे के साधन अपनाने पड़ रहे हैं। हाल ही में समाचार पत्रों को नए संस्कार देने वाली जबलपुर नगर मे एक ऐसी घटना घटी जो यह सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इतना कमज़ोर हो गया है कि हवा का एक कमज़ोर झौका उसे आरम से हिला दे? जिस देश में पत्रकारों के लिए यह कहा जाता है कि:-
शक्ल से देखने में यह न गोरे हैं न काले हैं।
न इनके पास पिस्टल हैं न इनके पास भाले हैं।
तबीयत से हैं यह बेफिक्र फाकामस्त जीवन में,
कलम के और कागज़ के धनी अखबार वाले हैं।
उसी देश में पत्रकारों की कलम इतनी भोथरी हो गई है कि उन्हें ज्ञापन सौंपने और विरोधात्मक रैली निकालने जैसे दोयम दर्जे के हथकण्डे अपनाने पड़ रहे हैं। यह बात जितनी हास्यास्पद है उतनी शर्मनाक भी। हम यह भूल गए कि हम उस देश के पत्रकार हैं जिसमे आपातकाल का विरोध समाचार पत्रों ने अपने सम्पादकीय पृष्ठ को खाली रख कर किया था। स्वयं इस क्षेत्र से जुड़े होने के कारण मुझे भी इस बात का क्षोभ होता है कि दूसरों के अधिकारों के हनन के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले माध्यम को आज अपने अधिकारों एवं अस्तित्व की रक्षा करना मुश्किल पड़ रहा है। और आज यह बात कहने में थोड़ा दुख तो होता है परंतु कोई हिचक नहीं होती कि सर्वप्रथम मिशन के रूप मे प्रारंभ होने वाली यह विधा धीरे-धीरे प्रोफेशन में बदली उसके बाद सेंसेशन मे तब्दील हुई। यहाँ तक तो ठीक था परंतु पर आत्मा में कहीं न कहीं एक गहरी चोट लगती है कि अब वह धीरे-धीरे कमीशन में बदल रही हैं। आज विलासिता ने व्यक्ति को इतना निष्क्रीय कर दिया है कि वह कोई भी कदम बिना किसी विचार के उठा लेता है। और यही कारण है कि आज कलम के सिपाहियों को कलम की शक्ति से ज़्यादा भरोसा अन्य चीज़ों पर है।
यदि इस पूरे घटनाक्रम पर नज़र डाली जाए तो यह सम्पूर्ण घटनाक्रम महज़ एक समाचार पत्र मालिक और एक नेता के व्यक्तिगत विवाद से अधिक और कुछ नहीं है। दोनों व्यक्ति एक तरीके से अपनी-अपनी शक्ति प्रदर्शन में लगे हुए हैं। जहां एक ओर नेता अपने राजनीतिक हथकण्डों एवं जन समर्थन का शोषण कर रहा है वहीं समाचार पत्र के मालिक अपने व्यक्तिगत हितों के लिए पत्रकारों का अनुचित प्रयोग कर रहे हैं और एक व्यक्तिगत विवाद को राजनीतिक चादर से ढांकने की कोशिश कर रहे हैं।
यहाँ से नगर की पत्रकारिता में एक नकारत्मक कड़ी यह भी जुड़ती है कि यह घटना जनमानस में पत्रकारिता की छवि को ज़रूर धूमिल करती है और कहीं न कहीं आम जनता के मन मे पत्रकारो और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता पर एक सवालिया निशान लगा देती है। और ऐसा इसिलिए क्योंकि पत्रकारों ने अपने कार्य की मूल प्रवृति को छोड़ कर एक दोयम दर्जे का मार्ग अपना लिया जिसकी उनसे अपेक्षा नहीं की गई थी।
कभी कभी यह लगता है कि यह विधा कहीं अपनी चिता अपने ही हांथों से तो तैयार नहीं कर रही? परंतु यहं भी उम्मीद की एक किरण मुझे इसमे भी दिखाई देती है कि हो सकता है कि अपनी हाथों से तैयार की गई चिता मैं नष्ट होने के बाद यह विधा एक बार पुनः जन्म लेगी स्वयं की अस्थियों से फीनिक्स पक्षी की तरह।
Posted by विकास परिहार 1 comments
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