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5.11.07

सड़क पर जंग--- बाइक सवार पैदल सेना, मिसाइल बनीं कारें, गदा उठाए ब्लूलाइन, मरने को तैयार भाईलोग.....जय हो

शाम को आफिस से घर जाते हुए आईटीओ ब्रिज ज्यों क्रास करता हूं, दाईं तरफ एनएच-24 पर चकमकाती कारों का जो रंग-बिरंगा रेला दिखता है, उसे देखकर पहले दिन तो मेरी आंखें उसी तरह फटी रह गईं जैसी किसी देहाती की, जो जीवन में पहली बार दिल्ली और मुंबई आया हो। बाप रे, इतनी कारें। सब तरह-तरह की लाइट फेंकती, आगे से, पीछे से, दाएं से, बाएं से। जितनी गाड़ियां जा रही हैं उतनी आ रही हैं। इन गाड़ियों की सम्मिलित रोशनी से माहौल दिवाली वाला दिखता है। भई, यहां तो रोज दिवाली है। सड़कों पर वैसे ही सोडियम लाइटें और न जाने कौन कौन सी लाइटें सरकार ने लगवा रखी हैं। उसके बाद इन कारों की रंग बिरंगी रोशनियों ने माहौल को और रंगीन कर दिया है। रात में इन चकमक चकमक को देखते हुए लग सकता है कि वाह, अपनी दिल्ली कितनी महान। अपना देश कितना धनवान। लेकिन इन कारों में बैठे प्राणियों और सड़क पर फंसे अन्य मानवों के दिलों से तो पूछिए, गांड़ का गुह निकल जाता है इनका काम में। दिल दिमाग दोनों बंद। बस, दो पैग मारा तब आदमियत आई और तीसरे पैर में नींद रूपी छोटी मौत ने आगोश में ले लिया। या इसके पहले कुछ घंटों तक धमाचौकड़ी। बस। बंदा त्रस्त और बंदा मस्त। इसी में जी रहे हैं दिल्लीवाले। दुनिया जाए भांड़ में। पाकिस्तान में इमरजेंसी हो तो हो। अपना का देश गांवों का हो तो हो। किसान मरें तो मरें। गरीबी-बेकारी बढ़े तो बढ़े। शहर में चकमक है। शहर में तो जगमग है। धन्य हैं। जय हो।

हां तो कह रहा था कि शाम को सड़क पर एक इंच की जगह खाली नहीं। गाड़ियां बिलकुल सेट हैं। कहीं कोई गैप नहीं रखा। स्पीड बिलकुल स्लो। सड़क की फटी पड़ी है, अबे सालों, थोड़े कम हो जाओ, इतने ढेर सारे एक साथ चढ़ोगे तो मेरी जान निकल जाएगी। पैदल सेना के बाइक वाले सवार थोड़े से गैप को पाते ही लप्प से उसमें घुस जाते हैं और किसी योद्धा की तरह हेलमेट पहने वे करामाती सैनिक से लपलपाते हुए आगे की ओर बढ़ते रहते हैं। कारें भी हर जाति की दिखती हैं। छोटी कारें दलितों-पिछडों की तरह दिखती हैं, बड़ी कारें ठाकुरों-बाभनों-बनियों की तरह। एकदम से रेल दिया और ठेल दिया और पेल दिया और निकल गए आगे फुर्र सुर्र ठुर्र करते......मक्खन मलाई की तरह कारें। कितनी चिकनी बाडी। कारें सड़कों पर चलने वाली जंग में दरअसल किसी कमसिन की तरह नजर आते हैं, सबसे बचना भी है, सबसे आगे भी रहना है, बिलकुल नहीं ठुकना है, कोई छू दे तो उस पर तुरंत छेड़खानी का आरोप। कभी कभी ये कारें किसी मिसाइल की तरह लगती हैं। तरह तरह के योद्धाओं के बीच से स्यूं स्यूं करती आगे निकल जाते हैं, मंजिल पर भड़ाक से गिरने के लिए। अब लीजिए ब्लूलाइन को। साली को हनुमान जी का साक्षात रूप कहिए। मुंह फुलाए, गदा उठाए, चल पड़े हैं हनुमान। जो आगे आएगा, रेला जाएगा, पेला जाएगा, जान गंवा जाएगा। इनसे नर, नारी, वानर, पशु-पक्षी और नाना प्रकार के जीव-जंतु तुरंत भय खाते हैं। इनका नाम सुनते ही तमाम घरों में सिसकारी गूंजने लगती है। तमाम घरों में मातम का माहौल फिर लौट आता है। लेकिन ये ब्लूलाइन रूपी आधुनिक हनुमान के बिना जीवन चलता भी नहीं। अब तो मुझे लगना लगा है कि ब्लू लाइनें कम मारती हैं, लोग मरने खुद ब खुद चले आते हैं। दो बसें एक साथ आईँ, रुकी नहीं लेकिन लोग कुत्ते की तरह शक्ल लिए बस के सामने दौड़ पड़ते है। अरे भाई, उसे रोकने दो चढ़ जाना। लेकिन किसे फुर्सत है साहब। सब भगवान के यहां से लंबे चौड़े कामों के लिस्ट लेकर इस धरती पर अवतरित हुए हैं। वे काम होने से रह जाएंगे, इसलिए वे काम करते हुए ही शहीद होकर भगवान के पास जाना चाहते हैं ताकि बता सकें, हे भगवन, मैं तो आपके काम करते हुए ही मरा हूं इसलिए मुझे शहीद का दर्जा देते हुए अप्सराओं वाले स्वर्ग में भेज दो ताकि मृत्युलोक पर पनपी कामनाओं और लालसाओं और वासनाओं की प्रतिपूर्ति कर सकूं। अब उन सालों को क्या पता कि वे पीछे पैदा कर गए हैं कई बच्चे, छोड़ गए हैं सिंदूर पोछने के लिए किसी औरत को। नहीं...जान देंगे, ब्लू लाइन ले लो तो भला, न लो तो काम हो ही जाएगा।

शायद संवेदनाएं जब ढीठ हो जाती हैं तो उसमें कोमलता और नाजुकता का अंत हो जाता है। जीवन-मृत्यु और मानवता से परे होने के भाव उगने लगते हैं और आदमी जो सोचे है, उसे पूरा करने को किसी हद तक चला जाता है, ब्लू लाइन से कुचलकर मरने तक भी। सड़क पर किसी से गाड़ी टच होने पर उसे स्वर्ग भेजने तक भी।

हां, तो बात हो रही थी सड़क पर चलने वाली जंग की। अगर कहीं रेड लाइट दिखी तो सबसे पहले पैदल सेना वाले बाइक सवार एकदम से रेड लाइट के पास पहुंच जाते हैं, बिलकुल आगे, कारों रुपी मिसाइलों के आगे ताकि सिग्नल मिलते ही पहले हमला करने के लिए पैदल सेना दौड़े, फिर महारथी रूपी कारें और फिर राक्षस और वानर सेना मतलब ब्लूलाइन, मिनी बस, कैंटर, जीप, कैब आदि.....।
इस सब में जो सुकून देने वाला पल होता है वो बाइक पर बैठे प्रेमी प्रेमिकाओं को देखना। एक दूसरे पर गिरते पड़ते ये लोग तमाम दिलों को शांति प्रदान करते हुए खुद भी बेहद सुकून से घर रूपी मंजिल पर पहुंचने की ओर अग्रसर होते हैं ताकि वे बेहद रोमांचित और रोमांसित जीवन को खुल दिल दिमाग से जी सकें। जय हो।

अप्पू घर में प्रेम तमाशा...

बात चली है जोड़ों की तो या आया कि कल संडे को दिल्ली में अप्पू घर गया, सपरिवार। आईटीओ और बहादुरशाह जफर मार्ग के आसपास ही दो ढाई किमी में अप्पू घर, चिड़ियाघर, इंडिया गेट आदि है। जब यह मालूम हुआ तो लगा कि इन चीजों का दर्शन खुद भी करना चाहिए, परिवार को भी कराना चाहिए। ये चाहत पहले भी थी लेकिन रास्ता न मालूम होने से और भटकने के भय से मैं कभी जाने को लेकर उत्साहित नहीं रहता था। इसलिए आज तक दिल्ली की किसी भी खास चीज को न देख सका। लेकिन जब नए आफिस के लिए आने-जाने में रास्तों की शिनाख्त कर ली तो एकदम से लगा कि संडे की छुट्टी के दिन बच्चों को घुमा लाना चाहिए। और, मेरा अनुभव....माइंड ब्लोइँग। लगा, न आकर गलती की थी। बच्चों ने वाटर पार्क और एम्यूजमेंट पार्क का इतना मजा लिया, मैने झूलों पर इतना हल्ला किया और गवाह बनीं अपनी श्रीमती जी। रोपवे मतलब वो जो पहाड़ों पर बिजली के तार पर लटककर चलता है....पहली बार चढ़े, लगा लंदन टू शिमला या शिमला टू लंदन की यात्रा पर है। दुनिया बहुत छोटी हो गई थी, हम बहुत बड़े दिख रहे थे। कुछ कुछ जहाज से उड़ने का अनुभव हो रहा था। ऐसा ही लगता होगा न जहाज पर चढ़ने पर, लौंडे ने पूछा तो मैंने हां में गर्दन हिला दिया। अब देक्खो भइया जहजवा पर कब चढ़ते हैं।
दरअसल तमन्ना ये है कि जहाज पर चढ़कर बनारस बाबतपुर एयरपोर्ट पर उतरूं और आने की सूचना गांव भेज दूं ताकि गांववाले मय ट्रैक्टर के हवाई अड्डे के बाहर जमा रहें और मुझे देखते हुए नारेबाजी करने लगें, इसलिए कि उनके गांव का एक लड़का जहाज से आया है...जसवंत भइया की जय, जहाज मइया की जय......। जय हो।

तो मैं कह रहा था जोड़ों की बात। अप्पू घर में जो झूले हैं उसमें कुछ झूले इस तरह डिजाइन हैं कि उसमें दो दो लोगों की टीम अलग अलग डिब्बों में बैठेगी और झूले जब तेज चलेगी तो दूसरा व्यक्ति पहले के देह पर इतनी बुरी तरह गिरा रहेगा कि अगर दोनों आदमी हुए और अपिरिचित हुए तो भिड़ जाएंगे...अबे हट, अबे कैसे हटूं झूली ही इधर गिरा रहा है। अगर मियां बीवी हुए तो मस्त। अगर प्रेमी प्रेमिका हुए तो.... अहा.....फिर तो सब फिट। इन झूलों पर सबसे ज्यादा संख्या में यही जोड़े थे। सब जोड़ीदारिनें जोड़ीदारों के देह पर गिरी पड़ी थीं उह आह की आवाज निकालते। दरअसल झूलों की स्पीड इतनी ज्यादा है कि यहां बिना चिल्लाए रहा नहीं जाता। बच्चों की कम उम्र से इस झूले पर चढ़ना एलाउ नहीं था और वाइफ ने इतनी स्पीड को झेलने से मना कर दिया। तो मैं अकेले ही खुद को सिकंदर समझते हुए एक अकेले बैठे सज्जन के बगल में बैठ गया और जब झूले ने स्पीड में अपना रूप दिखाना शुरू किया तो मेरा पूरा शरीर उन सज्जन की दुबली पतली देह पर। मुझे लग रहा था कि उनका चिल्लाना झूले की स्पीड से नहीं बल्कि मेरे शरीर के वजन से उनके दबने के कारण हो रहे दर्द के कारण था।

दोस्तों को दिया दिल
यह सप्ताह दोस्तों को दिल देने के नाम पर रहा। पहले एक ऐसी स्थिति में आ गया था कि सबसे भरोसा उठता नजर आ रहा था लेकिन अब लगता है, न यार, दुनिया में अगर कोई साथी है तो अच्छा दोस्त ही है, बस उसे पहचानने की अक्ल आनी चाहिए क्योंकि फर्जी दोस्त दाएं बाएं ढेरों हैं। ये आपकी सुनेंगे और उसी बात को दूसरों को तेल मिर्च लगाकर सुनाएंगे। ऐसे दोस्तों, ऐसे दोगलों से सावधान। दोस्त जो असली होगा वो बार बार दोस्त होने की बात न कहेगा, वो बस, समय आने पर आपके लिए साबित हो जाएगा, कर दिखाएगा। पिछले दिनों भड़ास के बेगूसराय के पाठकों के फोन आए। फर्रुखाबाद से फोन आए। न जाने कितने फोन आए जो सिर्फ भड़ास की वजह से मुझे जानते थे। पता नहीं यह क्या है लेकिन मुझे अच्छा लगा, लोग सच कहने और खुलकर कहने वालों का साथ देते हैं। तो दोस्तों, दोस्तों को चुनिए गुनिए और उनके लिए दुवाएं करिए। मेरा दर खुला है खुला ही रहेगा, दोस्तों के लिए।

जय हो
यशवंत

6 comments:

राजीव जैन said...

बहुत जबरदस्‍त रही
आपकी मिसाइल और वाहनों की रेलमपेल

प्रेमियों के अडडे अप्‍पू घर का भी जबरदस्‍त वर्णन किया आपने
वहां तो यह हाल है कि हम जैसा कुंवारा अकेले चला जाए तो जलकर ही मर जाए।

Srijan Shilpi said...

बढ़िया पिक्टोरियल वर्णन किया है, दिल्ली के ट्रैफिक का। इतनी अबाध आजादी और कहां दिखेगी !

Anita kumar said...

आपका ट्रेफ़िक वर्णन बहुत रोचक रहा, शैली भी अति सुन्दर , सच में भड़ास निकाली है। वैसे वो सज्जन जिनके ऊपर आप गिर गये थे जिन्दा बचे?

Sanjeet Tripathi said...

मस्त वर्णन किया है आपने!
अप्पू घर जाने के लिए कंपनी जुगाड़ कर लूंगा पन अकेले जा के जल भुन के राख नईहोउंगा!

पुनीत ओमर said...

aji jab itta hath pair mare hi the to jara sa bagal me "purana kila" bhi ho lete. tab aapko pata chalta ki ap galti kar gaye. akele jayenge to log aapko aise dekhenge jaise chidiaghar me koi naya bandar aaya ho. koi umradaraj banda jaye to log bechara bhatka panchi samajh kar maf kar dete hain par agar koi javan bina apni premika ke pahuch jaye to fir najara dekhiye..
Ye bhi dilli hai ji..

Manas Path said...

बहुत खूब वर्णन किया भाई. दोस्तों पर भरोसा बनाए रखना चाहिए.

अतुल