मोहल्ले पे अविनाश जी ने अपनी इस हेडिंग और संपादकीय इंट्रो के साथ ब्लागिंग पर दीपू राय की बात को आगे बढ़ाई है....
हेडिंग...आइए, बात ख़त्म नहीं करते, आगे बढ़ाते हैं... संपादकीय इंट्रो....दीपू राय ने अपनी समझ से हिंदी ब्लॉगिंग के बारे में कुछ बात रखी। हिंदी ब्लॉगिंग के वर्गीकरण से निकलने वाले निचोड़ पर कुछ लोग फोन से टिलबिलाये ज़रूर, लेकिन कायदे से लिख कर बात करना गवारा नहीं समझा। भड़ास में भी यशवंत ने इनक़लाबी अंदाज़ में उस लेख का प्रचार ही किया, न कि अपनी तरफ से कोई वैचारिक हस्तक्षेप। टिप्पणियों के ज़रिये कुछ बातें-बहसें हुईं, जो इस आग्रह से दे रहे हैं कि अगर वाक़ई दीपू ने काम का मुद्दा उठाया है, तो उस बात आगे बढ़े।
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अविनाश ने अपने इंट्रो में कई बातें कहीं हैं, उनका एक-एक कर विश्लेषण करना चाहूंगा.....
नंबर एक...अगर यह लग रहा हो कि ब्लागिंग पर कोई गंभीर वैचारिक बहस चलाई जा रही है, (जैसा कि कहा गया है....हिंदी ब्लॉगिंग के वर्गीकरण से निकलने वाले निचोड़... ) तो यह मेरे खयाल से गलत है। कई बार गंभीर शब्दों और क्लिष्ट शब्दावलियों के जरिए एक गंभीर बहस का नाटक भर किया जाता है, जो कि आजकल बेहद रूटीन है, पूरे भारत में, पूरी दुनिया में, लेकिन जब उन शब्दों और उन शब्दावलियों की चीरफाड़ की जाती है, तथ्यों की कसौटी पर कसा जाता है, मानकों का सहारा लिया जाता है, एक मेथाडालोजी पर कसा जाता है तो वे सिवाय एक सतही और सूखी बौद्धिक प्रलाप-एंगिलबाजी-भाषणबाजी-तेवरबाजी-इंटेलेक्चुअलबाजी से ज्यादा कुछ नहीं नजर आतीं। अव्वल तो ये कि ये जो बच्चा विश्लेषक दीपू राय है, उनकी बातों को मैंने लाख तरीके से समझने की कोशिश की लेकिन वो मेरी समझदानी से परे की चीज लगी। खासकर भड़ास और फुरसतिया की पंचलाइन उद्धृत करने के बाद इन ब्लागों के चलाने वालों या इन ब्लागों से जुड़े लोगों या इन ब्लागों के बारे में जो निष्कर्ष है, वो किन घटनाओं, उदाहरणों, लेखों, पोस्टों के जरिए निकाली गई हैं, मुझे बिलकुल समझ में नहीं आती।
साइंटिफिक तरीके से बात की जाती तो बात समझ में भी आती। माना, कि इस आधुनिक दौर की पेचीदगियों और बदले समय-समाज की जटिलताओं का मूल्यांकन करने की निगाह किसी बच्चा विश्लेषक में हो भी नहीं सकती क्योंकि इसके लिए जिस अनुभव, जिस आधार, जिस दृष्टि की जरूरत होती है उसे पाने के लिए सिद्धांत और व्यवहार दोनों की दुनिया में काफी समय होम करना होता है, तब आप वो दृष्टि पाते हैं जिसे दुनिया मानती है और समझता है क्योंकि आप उस लेवल की चीज देते हैं। लेकिन कम से कम मोहल्ले पर इसे लाने से पहले अविनाश को सोचना-जांचना चाहिए था कि एक वर्गीकरण या एक निचोड़...जो भी नाम दिया जा रहा हो, को लाने के पीछे किन आधारों-पैमानों-तथ्यों का सहारा लिया जा रहा है। इसका पता करना चाहिए था। अगर ऐसा हुआ था तो उसका उल्लेख कर दिया जाना चाहिए था। आपने तो सीधे-सीधे दो ब्लागों और उनके चलाने वालों को कमीने टाइप का इंसान घोषित कर दिया। फिर पढ़िए, एक बार जरा ध्यान से....
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भड़ास: कोई बात गले में अटक गयी हो तो उगल दीजिए, मन हलका हो जाएगा...
फुरसतिया: हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै ?
आपको अक्सर इस तरह के वाक्य दिखेंगे। ये ऊपर से बहुत ही उदार भीतर से सख्त लोग होते हैं। वे बेहद चतुराई के साथ अपने राजनीतिक विचारों को जीते हैं। वे सबसे पहला काम अपने विरोधियों के चरित्र हनन का करते हैं।
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आपने सीधे-सीधे आरोप लगा दिया कि ये चरित्रहनन करते हैं।
ये न तो कोई विश्लेषण है, न कोई निचोड़। यह सब कुछ करने के लिए किया गया कुछ काम है जिसके पीछे कोई आधार नहीं है। ब्लागिंग पर बहस चलाने या लिखने का मतलब होता है आपके पास एक ठीकठाक सर्वे हो, आधार हो, शोध हो...फिर कूदिये मैदान में। यूं नहीं कि बहुत दिन से कुछ लिखने का मन था और बस, लिख दिया। और उसके बाद किसी ने छाप दिया। अब मैं अविनाश से पूछूं या बच्चा विश्लेषक से कि अरे भाई, एक उदाहरण तो बताओ चरित्रहनन का, जो इन ब्लागों ने या इन ब्लागरों ने किया हो। अगर साफ बोलने को तुम चरित्रहनन मानते हो तो मुझे तुम्हारे मनुष्य होने पर ही संदेह है क्योंकि अगर कोई बोलेगा तो किसी को चोट तो पहुंचेगी ही। मीठी मीठी बोलने को आप अच्छा मानते हो और खुलकर बोलने को दूसरों का चरित्रहनन करना तो इस मानसिक दिवालियेपन के लिए मैं क्या कर सकता हूं। संभवतः कवि/लेखक धरती से इतर कल्पनाशीलता रखता है जिसे समझने की कोशिश करना हम धरती वालों के लिए दुःसाध्य कार्य सरीखा है। भई, विश्लेषण, वर्गीकरण, निष्कर्ष, निचोड़...का इतना ही शौक है तो पहले ठीक से पढ़ो-लिखो, देश-दुनिया और समाज के गहरे जाकर समझो। फिर मोती चुन पाओगे। अभी तो केवल खाली और बदसूरत सीप ही सीप है जिसे अविनाश जी सोने के रूप में परोसे जा रहे हैं।
फिलहाल इतना ही....बाकी फिर.....अभी टेम थोड़ा कम है, काम ज्यादा है...
जय भड़ास
यशवंत
27.11.07
तो भई, भड़ास ने भी बात थोड़ी आगे बढ़ाई
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3 comments:
जय भड़ास...बात में दम है...अपने देश की सबसे बड़ी कमी यही है कि यहाँ बिन मांगे सलाह मिल जाती हैं.. दीपू भी उन्ही में से एक लगते हैं.
रिलायंस का नया एड इसी थीम पर बना है कि हमारे देश में एडवाइस बहुत दी जाती हैं। रही बात एथिक्स की तो ब्लाग सिर्फ अपने मन की भड़ास निकालने के लिए हैं। इनसे समाज और दुनिया नहीं बदल सकती है। आखिर कितने लोग इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं और वो भी ब्लाग के लिए।
नीमन लेखाई है..
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