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28.8.08

मीडियाई मठ, मठाधीश और 'मट्ठेबाज'

  • अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'
सुनो भोपाली बन्धु रे!
भोपाली मीडिया में इन दिनों तीज-त्यौहार-सा माहौल हैं। नए 'मीडियाई मठों के अवतरण से पत्रकारों की भक्ति को अधिक 'भाव' नसीब हुआ है। दो कोड़ी के भाव वाले पत्रकार भी खूब भाव खा रहे हैं। मठों के धीशों की विवशता है कि उन्हें शीर्ष की लड़ाई में सड़ा-गला माल भी ऊंचे रेट पर खरीदना पड़ रहा है। यह कमाल ही तो है कि हर माल बिक रहा है। यह मंडी पूरे साल तक जमी रहने की उम्मीद है। सो, संभव है कि पत्रकारों की बीवियां इस तीज पर अपने पति की सदबुद्धि के लिए व्रत रखें, ताकि वे 'ठेकेदरों' के प्रलोभनों में पड़कर बुद्धू न बनें। दरअसल, कारपोरेट कल्चर के बावजूद ये मठ ठेकेदारी प्रथा से मुक्त नहीं हो पाए हैं। ...और इसे मठाधीशों की व्यावसायिक कमजोरी भी मान सकते हैं, क्योंकि अपना मठ बचाने की खातिर प्रतिद्वंद्वी मठों में मट्ठा देना 'साम' का एक हिस्सा है। ...और इस 'साम' में माहिर मट्ठेबाज लड़ैये किसी न किसी ठेकेदार के पाले में पल-बढ़ रहे हैं। इन ठेकेदारों और मट्ठेबाजों का गठबंधन वैसा ही है, जैसे शेर और लड़ैयों की यारी। इस भाईचारे में बंधु जैसा कोई भाव नहीं है, मोल है, तो सिर्फ चारे का ....क्योंकि दोनों एक-दूसरे के बगैर नकारा और दुर्बल हैं, ...और अकेले में इन्हें कौन चारा डालेगा?मृत्युलोक में गति और मति ही नियति और नीयत तय करते हैं। बहुत अधिक वक्त नहीं गुजरा जब भोपाल में एक नए मीडियाई मठ की आधारशिला रखी गई थी। इसे यहां के धीश का दुर्भाग्य कहें या उसकी मति मारी गई, उसके मठ में ठस ही ठस जा घुसे। यह घोर आश्चर्य ही रहा कि यहां सांप और छंछूदर भी हम प्याला बने। इस प्याले में जिन्हें पीने का सौभाग्य नसीब नहीं हुआ, वे अपने ही मठ में मट्ठा डालने में जुट गए। गोया इस मठ की आधारशिला में ही मट्ठा यूज किया गया हो? राज़ की इस लड़ाई में लड़ैयों की खूब पौ बारह हुई। यह कोई राज की बात नहीं, सार्वजनिक हो चुका है कि दर-दर लतियाते रहे इन लड़ैयों ने दोगलाई करके शेरों पर घेरा बनाया और पीठ पर वार किया। बाद में शेर की खाल चढ़ाकर अपनों की ही खाल खींचने में जुट गए। इन मट्ठेबाज लड़ैयों ने अपना पेट पालने की खातिर दूसरों के पेट पर लात मारने में कोई संकोच और शर्म नहीं की । खैर, इस राज-नीति से मठ और धीश को जो भी नफा-नुकसान हुआ हो, मट्ठेबाजों ने खूब चांदी काटी। इस लड़ाई में उन लड़ैयों ने भी मलाई चाटी, जो हर मोर्चे पर पैर में 'मोच' का बहाना बनाकर भागते रहे हैं। यह वो शुरुआत थी, जिसने भोपाली मीडियाई मठों के बीच 'ऊंच' की लड़ाई में 'नीचता' के बीज बोए। यह शास्वत सत्य है कि मीडियाई मठों की कुंडली और काल में सदैव सर्पयोग बना रहता है। इन मठाधीशों की आस्तीनों में बेशुमार सर्प कुंडली मारे बैठे रहते हैं, लेकिन वे अपनी कमीज उतारकर झिड़क नहीं पाते। वजह, आस्तीनों में पले-बढ़े ये सर्प पाला बदलने पर और अधिक घातक साबित होते हैं। बहरहाल, कुछ महीने पहले एक और नये मठ का अवतरण हुआ। वहीं एक पुराने मठ ने अपना परंपरावादी चोला उतार फेंका। इन मठों के आने से उन ठेकेदारों की दुकान चल पड़ी, जिनके अहाते में खूब सड़ा-गला माल पड़ा था, वो सबका सब खप गया। खफा-खपाई के इस दौर में एक नया परिवर्तन जरूर देखने को मिला, यहां लट्ठ बूढ़ों के बजाय नौजवान लड़ाकों के हाथों में आ पहुंचा। गोया पुरातनपंथी ठेकेदार रीढ़विहीन कर दिए गए हों। हालांकि इन दोनों हालात में मट्ठेबाज लड़ैयों की तादात कतई कम नहीं हुई। दोनों ही मठों की नींव में मट्ठा देने का काम सतत जारी है। इस प्रयोजन में वे ठेकेदार प्रायोजक बने हुए हैं, जिनकी दाल नहीं गल पाई।किसकी दाल गली और किसकी नहीं, अगर इस प्रसंग को छोड़ दिया जाए, तो समूचे भोपाली मीडियाई लड़ैयों के लिए यह रमजान और दीपावली काफी सौगातें ला रहा है। कुछ नए इलेक्ट्रोनिक मीडियाई मठ चालू हो गए हैं, तो कुछ नए मठों की नींव पड़ चुकी है। इसमें प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक दोनों ही किस्मों के मठ शामिल हैं। मौका मलाई मारने का है, इसलिए...
हे! मेरे बंधु रे, मट्ठा करो इकट्ठा, मुंह फाड़ो, विषधर बनो अपने फन का फैलान करो।

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

धम धम धड़म धड़ैय्या रे... सबसे बड़े लड़ैय्या रे.. भाई लोग सिर्फ फ़न फैलाना और फ़ुफ़कारना, काटना नहीं उसी से काम बनते रहेंगे..पेले रहो....
जय जय भड़ास

Anonymous said...

अमिताभ भाई,
वो समय अब बीतता जा रहा है जब "माल मारे गोरख नाथ और भभूत लपेटे चेला" गोरखनाथ यानि की लाला जी और चेले यानि की पत्रकार हुआ करते थे, समय आ गया है जब हमारी आपकी वास्तविक कीमत देना लाला की मजबूरी हो और संग ही पत्रकारिता को जीवंत करने की आजादी भी.
जय जय भड़ास