गए हफ्ते झारखण्ड सुर्खियों में रहा। खबरिया चैनल के सारे पत्रकार अचानक व्यस्त हो गए। किसी-किसी चैनल के रिपोर्टर २५-२५ फोनों करते पाए गए। चलिए अच्छा लगा कुछ तो हो रहा है । लेकिन ख़बर कुछ और है । ख़बर लेने के पीछे जो गला काट प्रतियोगिता हुई वो बड़ा मजेदार रहा। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया के पत्रकार के बीच हाथा पाई तक की नौबत आगई। कुछ लोग अपने फोनों में शिबू सोरेन को गुरूजी कह कर संबोधित कर रहे थे । जहाँ तक मेरी समझ है पत्रकारिता में किसी को विशेषण से संबोधित नही करनी चाहिये । कुछ लोंगो को तो झारखण्ड विधान सभा की सीटों की गिनती नही पता है वो यहाँ एक राष्ट्रीय चैनल के व्यूरो हेड हैं । उदहारण तो कई हैं। सोचने वाली बात है की लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ किनके कर कमलों में है??
दुष्यंतजी के शब्दों में :
जितना सोचा था ज्यादा निकला
जिसकी उठाई पूँछ वो मादा निकला
जय भड़ास
21.8.08
पत्रकारिता झारखण्ड से
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1 comment:
दरअसल, झारखण्ड हो या कोई और राज्य चैनल वालों का एक ही फंडा है. चाहे खबर कितनी भी गंभीर क्यों न हो, उसे किसी भी तरह परोस दीजिये और इसके लिए अपने चैनल के उन चेहरों की सहायता लीजिये, जो सिर्फ़ सतही ज्ञान रखते हैं और पब्लिक उन्हें पहचानती हो. उदहारण के लिए दीपक चौरसिया. दीपक जब आज तक में थे तो उन्हें उन विषयों में भी एंकर बना के बैठा दिया जाता था, जिसके बारे में उन्हें कुछ भी नहीं मालूम होता था. फ़िर भी दीपक बके चले जाते थे. क्या करेंगे नौकरी कर रहे हैं तो जो कहा है संपादक ने वो तो मन्ना ही पड़ेगा. खैर पब्लिक भी वैसी ही है, उसकी भी चेतना इतनी जाग्रत नहीं की वो कुछ फर्क महसूस करने वाले निर्णय ले. उसे तो बस चैनलों की बाढ़ में ख़बर नामक मनोरंजन चाहिए, ले रही है, और आगे भी लेती रहेगी.
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