"मैं फ़िर गधा हूँ "
मैं था एक गधा
चलता था घोड़े की चाल
अस्तबल जा पहुंचा
छोड़ के अपना धोबीघाट ।
अस्तबल में कोई घोड़ा न था
सब मेरी ही तरह आए हुए थे ;
कोई मुझ से ठीक पहले
कुछ पीढ़ियों से आसन जमाये थे।
अब मैं घोड़ों के संग दौड़ लगाता था
पूर्व परिजनों से न परिचय जताता था;
अभिभूत था आभिजात्य होने की अनुभूति से,
उन्मुक्त ढेंचू के बदले बंद कक्षों में गाता था।
अब सभाओं में मैं , सम्मानित अतिथि होता
उत्सवों के अवसर पर, आमंत्रित अतिथी होता;
सभ्यता, साहित्य और संस्कृति की बहसों में
भारी -भारी शब्दों के संग मैं उनकी शोभा होता।
थे अस्तबल में अभिव्यक्ति के ढंग अनूठे
भावहीन शब्द, और मुद्राओं को प्रमुखता
जीव चिन्हों की अपेक्षा अश्व चिन्हों को वरीयता
खुश होने पे मुस्कुराना भी छिछोरपन कहलाता।
किंतु
अस्तबल में हर तथाकथित घोड़े को
दूसरे से एक निश्चित दूरी पे रहना था;
यही थी परम्परा, यही दोनों के हित में था,
वरना भेद खुल जाने का खतरा था।
और....
इन सब से घबरा कर
मैं लौट आया ......
मैं लौट आया अपने धोबीघाट!
मैं खुश हूँ ,
मैं सुखी हूँ,
मैं फ़िर गधा हूँ!
मैं फ़िर गधा हूँ!
-कुलदीप
12.8.08
"मैं फ़िर गधा हूँ "
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1 comment:
कुलदीप भाई,
चलिए देर आए दुरुस्त आए, अपने आपको पहचाना अब घोडों और गधों के समस्या से त्रान मिली समझो.
जय जय भड़ास
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