मुंबई में इन दिनों इन्द्र देवता मेहरबान हैं। सागर उफान मार रहा है। साथ में हड़ताल राज्य सरकार के ऊपर ज्वार भाटा की तरह आ रही है। पहले तो मानसून ने महाराष्ट्र में बहुत देर से दस्तक दी। इसके बाद दस्तक का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अभी तक राज्य सरकार के ऊपर मुसीबत बनाकर आता जा रहा है। पहले रेसिडेंट डॉक्टरों ने हड़ताल की। अपनी मांगों पर अड़ गए। और न राज्य सरकार झुकी, न ही डॉक्टर । अंततः सरकार को झुकाना पड़ा और फ़िर तो इसके बाद महाराष्ट्र के सरकारी कर्मचारियों का मिजाज़ ही बदल गया। और अब डाक्टर , शिक्षक हड़ताल पर चले गए है। वैसे अगर देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने बंद और हड़ताल पर पाबंदी लगा रखा है। बावजूद इसके अपनी मांगों को लेकर विभिन्न संगठन गाहे- बगाहे हड़ताल करने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे मानकर चलते हैं किअपनी मांगें मनवाने का यही एक रास्ता है। घी कभी सीधी उंगली से नहीं निकलता है। कई श्रम संगठन आज भी हड़ताल को अपना अधिकार मानते हैं। हड़ताल करने वाले कभी ये नहीं सोचते कि हड़ताल करने से आम जनता में क्या असर पड़ेगा। और जनजीवन कितना प्रभावित होगा। जब समझौता और समाधान के सभी रस्ते बंद हो जाए तो हड़ताल करना उनका अन्तिम अस्त्र बनता है। अगर अतीत में जाएँ तो मुंबई में दत्ता सावंत हड़ताल कराने में अग्रणी थे। उन्होंने कपडा मिल मालिकों की लम्बी हड़ताल कराई थी। इससे फायदा नहीं बल्कि बहुत बड़ा नुकसान हुआ था। मिल मालिक झुके नहीं और मजदूरों पर भुखमरी और बेकारी की नौबत आ गयी। मिल मालिकों ने मिलों की जमीन को बेंचकर अपनी रकम खड़ी कर ली। और मजदूरों के परिवारों पर तबाही टूट पड़ी। हड़ताल जब लम्बी खिचती है तो मालिक या नियोक्ता नहीं बल्कि सीमित साधनों वाला श्रम जीवी वर्ग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। यानी कि चाकू खरबूजे पर गिरे या फ़िर खरबूजा चाकू पर गिरे। नुकसान खरबूजे का ही होना है। अभी रेसिडेंट डॉक्टरों का इलाज हुआ ही था कि वैद्यकीय अधिकारी और प्राध्यापक बीमार हो गए हैं। वो भी इन दिनों सरकार से मांगे मनवाने में अडे हुए हैं। ज़ाहिर है इस हड़ताल से मरीजों का इलाज और छात्रों की शिक्षा पर विपरीत असर पडेगा।लेकिन जब सरकार की नीतियां ही ग़लत हो तो असंतोष के बादल फटना लाज़मी है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जब सरकार हड़तालियों की मांगें मान लेती है तो फ़िर आखिरकार सरकार इतना देर क्यों लगाती है। जिससे अव्यवस्था फैलती है। देश का विकास रुक जाता है। और देश आगे बढ़ने के बजाय पीछे की ओर जाता है। अब क्या ये माना जाए कि आज नेताओं में वो क्षमता नहीं है जो विवेक का इस्तेमाल करके किसी समस्या के उत्पन्न होने से पहले उसका समाधान ढूंढ सकें। जब सब कुछ नुकसान हो जाता है तब सरकार के दिमाग की नसें काम करना शुरू करती है। साल भर का लेखा - जोखा लिया जाए तो डॉक्टरों, शिक्षकों,बैंक कर्मियों, एयर लाइंस कर्मचारियों , उद्योग में कार्यरत श्रमिकों की हड़ताल होती ही रहती है। हड़ताल तो विदेशों में भी होती रहती है। लेकिन वहाँ का तरीका अलग है। जापान में एक जूता फैक्ट्री में हड़ताल हुयी तो कर्मचारियों ने अपना विरोध प्रकट कराने के लिए इस दौरान एक ही पैर का जूता बनाया। उन्होंने काम करते हुए अपना विरोध जारी रखा। अंततः प्रबन्धन झुका और मांगें पूरी हो गयी। अब तो मुंबई में बारिश के मौसम में जहाँ हाई टाइड की धमकी मिलती है तो वही सरकारी कर्मचारी भी पानी की बूँद में हड़ताल की फुहार मार रहे हैं।
24.7.09
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