हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरूष प्रभाष जोशी नहीं रहे। कल रात उन्हें भारत-आस्ट्रेलिया मैच देखते हुए हृदय का दौरा पड़ा और उसके बाद उनकी मौत हो गयी। उनकी उम्र 73 साल थी। पांच दशक से भी ज्यादा समय से वे हिन्दी पत्रकारिता में सक्रिय थे। प्रभाष जी के जाने से हिन्दी ने अपना सबसे बड़ा जुनूनी हिमायती खो दिया है। उनकी मौत के बाद पत्रकारिता में जो शून्य पैदा हुआ है उसकी सहज ही भरपाई नहीं हो पाएगी। प्रभाष जी जैसा मेधावी और ईमानदार पत्रकार दसियों सालों में तैयार होता है। प्रभाषजी की मेधा,कलम और ईमानदारी का सभी लोहा मानते थे। कारपोरेट पत्रकारिता में पचास सालों तक काम करने के बाद निष्कलंक पत्रकार का जीवन बिताना और अपनी कलम और ईमानदारी से सबको प्रभावित करना यह सचमुच में विरल बात है। प्रभाषजी के दो प्रधान विषय थे जहां पर उनकी कलम सभी तटबंध तोडती हुई चली जाती थी। एक था क्रिकेट और दूसरा था राजनीतिक अनीति।
वे किसी भी क्रिकेट मैच को देखना नही भूलते थे। वे मैच देखने विदेश तक गए और वहां से क्रिकेट पर लिखकर भेजा। राजनीति में अनीति का खेल खेलने वाले किसी भी दल को उप्होंने बख्शा नहीं। उन्हें राजनीति में जो भी अनीतिपरक लगा उसके खिलाफ जमकर बेबाक लिखा। हिन्दी में राजनीति के अनीतिगत पक्ष पर बेबाक लिखने वाले अकेले सबसे तेज पत्रकार थे। उनकी कलम की मार से देश के सभी प्रधानमंत्री कभी न कभी घायल हुए हैं। सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ उन्होंने अनीति के मामलों पर निर्मम ढ़ंग से लिखा है।
हिन्दी पत्रकारिता की नयी भाषा तैयार करने में उनके संपादकीय व्यक्तित्व की केन्द्रीय भूमिका रही है। उनकी छत्रछाया में प्रतिभाशाली पत्रकारों की एक बडी पीढी तैयार हुई,जो आज फलफूल रही है। पत्रकारिता में ईमानदारी की वे जीती जागती मिसाल थे।
प्रभाष जोशी का जाना साधारण घटना नहीं है यह असाधारण घटना है। उनके जाने से हिन्दी प्रेस में भाषा के देशज प्रयोगों का अवसान हो गया है। प्रेस में देशज भाषायी प्रयोगों के वे जनक थे। हिन्दी में पत्रकारों की कमी नहीं है, संपादकों की भी कमी नहीं है। लेकिन हिन्दी पत्रकारिता के प्रतीक पुरूष के रूप में प्रभाष जी ने ही अपनी इमेज स्थापित की थी। उनके जाने से हिन्दी प्रेस के प्रतीकपुरूष का स्थान खाली हुआ हो गया है जिसे भरना अब किसी भी संपादक या पत्रकार के बूते के बाहर है। हम सब उनकी असामयिक मृत्यु से मर्माहत हैं।
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