श्री प्रभाष जोशी चले गए। वह वहां चले गए जहाँ कोई जाना नहीं चाहता लेकिन सभी ने बारी बारी से जाना जरुर है। यह जाना किसी भी प्रकार की अप्रोच से रुक ही नहीं सकता। सब इस बात को जानते हैं। इस जाने पर कोई विवाद नहीं,कोई झगड़ा नहीं। बस, जैसे ही कोई गया उस के मुहँ पर चादर ढक देते हैं। कोई बड़ा हुआ तो उसकी मुहँ दिखाई अन्तिम दर्शनों के रूप में चलती रहती है। जाना इस जीवन का एक मात्र सत्य है। इसके बावजूद हम इस सच्चाई को भूल कर अपनी दिनचर्या को निभाते हैं। एक क्षण में आदमी है, दूसरे ही क्षण नहीं है। हैं ना कमाल की बात। हाँ, जाने का दुःख उतना होता है जितना जाने वाले से सम्बन्ध। थोड़ा सम्बन्ध तो क्षण भर का शोक,अधिक है तो दो चार दिन का। सम्बन्ध बहुत -बहुत अधिक है तो फ़िर यह शोक कई दिन, सप्ताह,महीने साल,सालों तक रह सकता है। समय धीरे धीरे इस शोक को आने वाली छोटी-बड़ी खुशी से कम करता रहता है। ऐसा ना हो तो जीवन चल ही नहीं सकता। बस इसी प्रकार से हम सब इस दुनिया में अपना पार्ट अदा करके इस रंग मंच से विदा हो जाते हैं। जैसे श्री प्रभाष जोशी चले गए। हमारा रोल अभी बाकी है इसलिए हम हैं। जब हमारा रोल समाप्त हो जाएगा तो हम भी चले जायेंगें श्री जोशी की तरह। उनकी तरह नहीं तो किसी आम आदमी की तरह। जाना तय है,जाना ही पड़ेगा। श्री जोशी को नमन। उनसे मिलने का अवसर कभी नहीं मिला। एक बार १९९६ में हमने श्रीगंगानगर में उनको एक पत्रकार सम्मलेन में आमन्त्रित किया था। लेकिन वे आ नहीं सके थे।
6.11.09
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