प्रभाष जोशी नहीं रहे। कल (5 नवंबर) रात जब वे अपने गाजियाबाद स्थित घर में भारत और आस्ट्रेलिया के बीच एकदिवसीय रोमांचक क्रिकेट मैच देख रहे थे, तभी उन्हें दिल का भारी दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया। पत्रकरिता के साथ ही क्रिकेट प्रभाष जी के जीवन की एक बड़ी उत्कंठा थी। हिंदी में अपने विशेष नैतिक मानदंडों के आधार पर श्रेष्ठ और विवादास्पद राजनीतिक और सामाजिक लेखन के साथ ही क्रिकेट पत्रकारिता की भी उन्होंने एक नयी भाषा तैयार की थी।
प्रभाष जी गांधीवादी थे। सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श का उन्होंने सिर्फ प्रचार ही नहीं किया, उसे जीया भी। इसीसे उन्होंने जो नैतिक शक्ति अर्जित की, उसके बूते वे कभी किसी सत्ता-प्रतिष्ठान के दबाव में नहीं आये और एक स्वच्छ और ईमानदार पत्रकारिता के उसूलों की ध्वजा को फहराये रखा।
प्रभाष जी भारत में सांप्रदायिकता के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष के अमर सेनानी थे। धर्म और सांप्रदायिकता को उन्होंने हमेशा अलग-अलग रखा और आरएसएस की तरह की सांप्रदायिक ताकतों को देश की एकता और अखंडता के लिये एक बड़ा खतरा माना। प्रभाष जी के इधर के लेखन का एक बड़ा हिस्सा आरएसएस और उसके राजनीतिक मंच भाजपा की सांप्रदायिक करतूतों और साजिशों का पर्दाफाश करने वाला लेखन रहा है।
प्रभाष जी एक कट्टर साम्राज्यवाद-विरोधी लेखक थे। अमेरिका और पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों के साथ केंद्रीय सरकार की सांठ-गांठ का उन्होंने हमेशा विरोध किया। मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों, भारत में ब्रिटिश राज के बारे में उनकी अशोभनीय चापलूसी भरी टिप्पणियों और अमेरिकी साम्राज्यवाद के एक कनिष्ठ सहयोगी बनने की उनकी निंदनीय लालसाओं का उन्होंने अपनी लेखनी से जमकर विरोध किया है।
सभ्यता, परंपरा और विकास के बारे में प्रभाषजी की अपनी खास अवधारणाएं थी, जिनका मूलाधार गांधीजी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' था। यह वर्ष 'हिंद स्वराज' की शताब्दी का वर्ष है। प्रभाष जी ने इस शताब्दी वर्ष में 'हिंद स्वराज' के बारे में खुद भी बहुत कुछ लिखा और देश के विभिन्न कोनों में घूम-घूम कर उसके संदेश का प्रचार किया। मृत्यु के दिन ही वे 'हिंद स्वराज' के बारे में वाराणसी में हुए एक सेमिनार में भाषण देकर लौटे थे। सभ्यता के बारे में अपने कुछ ऐसे ही नैतिकतावादी सोच के मानदंडों पर उन्होंने भारतीय वामपंथ की भी लानत-मलामत की। परंपरा संबंधी अपनी चंद अवधारणाओं के कारण ही प्रभाषजी एक समय में सतीप्रथा के बारे में उठी बहस में चरम रूढ़िवादी तत्वों की कतार में भी देखे गये थे। लेकिन उनके समग्र जनतांत्रिक व्यक्तित्व का यह एक अत्यंत क्षुद्र अंश था। भारत के दीन-हीन और उत्पीड़ित जनों के पक्ष में प्रभाष जी ने हमेशा पूरी बुलंदी से अपनी आवाज उठायी। इस अर्थ में वे मूलरूप से एक उत्कट वामपंथी थे।
प्रभाष जी इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के साथ ऐसे समय में जुड़े थे जब वह ग्रुप इंदिरा गांधी के तानाशाही हमलों का शिकार बना हुआ था। 1975 के आंतरिक आपातकाल के पहले और दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार और तानाशाही-विरोधी ऐतिहासिक संघर्ष में इंडियन एक्सप्रेस की शानदार भूमिका में ग्रुप के मालिक रामनाथ गोयनका के साथ जिन पत्रकारों का नाम अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था, प्रभाषजी उनमें अनन्य थे। परवर्ती दिनों में इस ग्रुप के हिंदी दैनिक 'जनसत्ता के मुख्य संपादक के तौर पर हिंदी पत्रकारिता को एक नयी भाषा और संघर्षशील तेवर प्रदान करने वाले पथ-प्रदर्शक संपादक-पत्रकार के रूप में उनकी भूमिका हमेशा अविस्मरणीय रहेगी।
प्रभाष जी के आकस्मिक देहांत से हिंदी पत्रकारिता में जो शून्य पैदा हुआ है, उसे आसानी से भरा नहीं जा सकेगा। वे उम्र की लगभग अंतिम घड़ी तक कार्यरत रहे। 'जनसत्ता' में उनके नियमित स्तंभ और अक्सर प्रकाशित होने वाले लेखों को बेहद चाव के साथ बड़े पैमाने पर पढ़ा जाता था। भारत में उन्हें सर्वपठित पत्रकारों में अगर सबसे अव्वल स्थान पर रखा जाए तो गलत नहीं होगा। इधर के वर्षों में टेलीविजन के चैनलों पर भी अपनी सटीक और चुटीली टिप्पणियों के जरिये उन्होंने अपने लिये चैनलों के एक आकर्षक टिप्पणीकार का स्थान अर्जित कर लिया था।
प्रभाष जोषी के निधन पर पूरा हिंदी जगत शोकाहत और मर्माहत है। भारतीय पत्रकारिता को उनका अभाव हमेशा खलेगा। हम उन्हें अपनी आंतरिक श्रध्दांजलि अर्पित करते हैं और उनके परिजनों तथा 'जनसत्ता' के उनके तमाम सहयोगियों के प्रति अपनी संवेदना प्रेषित करते हैं।
अरुण माहेश्वरी
कार्यकारी अध्यक्ष, जनवादी लेखक संघ, पश्चिम बंगाल
No comments:
Post a Comment