सवेरे का वक्त था,
आसमान कुछ आर्द्र, हल्का नीला
हरित पत्तियों पर ठिठकी
नन्हीं-नन्हीं जल की कुछ बूँदें,
प्रकृति की सुघड़-स्वच्छ घटा में
बारिश की आड़ी-तिरछी-फुहार
मदोन्माद से बहता खुला-खुला-सा निरंकुश नाला
सुदूर पूरबी क्षितिज से झाँकते
धुँधले नीले पहाड़,
तब भी सड़कों पर पसरा अंधेरा,
जैसे झुट्पुटे के वक्त,
मलिष्ठ सड़कें
जलाचित बिखरे गड्ढे
मकानों से निकलता यहाँ-वहाँ पड़ा
कूड़े-करकट का ढेर
और बिखरता धूम;
सामने दीवार फाड़ते
पीपल की निर्वसना शाख पर
पराबध्द कुछ कौवे
नीचे ओहत कुकुर की सड़ती लोथ
वहीं पीछे छूटती
अभावमंडित
एक नीची छत की इमारत
बहुत छोटी और कुरूप
कुछ वर्गफुटों की
नितांत अकथनीय ।
अकस्मात !!!
खुला उसका कवाट
निकली एक पीवरी सद्यस्नात
धरे सिर पर पल्ला
ग्रह की सरल परिधि को लाँघ
आभा-परिहित-दमक रहा आनन उसका
भरिभाल पर झूलते मूँज से बाल,
सवत्स; जा रही हो जैसे मन्दिर
भग्न-प्रतिमा-सी तल्लीन
था जिसमे सहज समर्पण
अहं-मुक्त-भावों में लीन ।
पहन पीत वर्ण की साड़ी कस के पकड़े
यथा खींच लगाम, करें नियंत्रित
कर्दम-निमग्न-निगुंफित-हरित-बिछावन
पर धर अलक लगाए नंगे पाँव,
पड़े जिसमे कलरव करते नुपूर-युग्म,
निराशा में ज्यों विवर्धित हो प्रकाश
तेज होता उत्तरोत्तर बिन्दुकलनिनाद ।
भर उफाल
कर गई पार
वह कुछ मोड़ों के कटान,
अभिमुख उसके एक बस स्टॉप,
वही था उसका मन्दिर, शुभ स्थान;
यातायात के उस अवज्ञात चिह्न पर लगा
तिलक अक्षत हुई वह नतमस्तक, कर प्रणाम
बैठ दंडवत, हो भावों में अभिरत करा विचार विगत का,
-“कल मिले थे यहीं कुछ ग्राहक, आज भी
करना वही क्रपा हे ईश तुम मुझ पर”-
भर आये उपात अवरूद्ध हुआ कंठ चूम ललन का ललाट बोली,”
अयाचित से कुछ अधिक ही पाया, तेरे प्रसाद को भी समझा निर्माल्य,
विलोक जब पुत्र के लिलार पर पड़ती मेरे कर्मों की प्रतिच्छाया
फूले थे हाथ-पाँव लगा भविष्य अंधियारा,तब विसर्जन का भी
एक बार उपजा विचार पर देख उस नवजात की
सहज-सलोनी-चितवन भूल बैठी मैं
समस्त जग के भावी चिंतन
हुए अंतर्हित वे गत विचार, फैल उठे आशाओं
के हर्म्यस्थलों के अंतहीन विस्तार;
यहाँ पुत्र ही मेरा संबल, जीवनाधार,है अब ध्येय
एकमात्र हो इसका श्रेष्ठ-उत्तम-विकास
समाज के मुक्त हस्तक्षेप के चलते जो नहीं पा सकी
मैं हतभागी, उससे भी लक्षाधिक देना हे ईश
पुत्र को मेरे, यही बस याचित मनोभिलाष ।
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
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