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3.3.11

मर्यादाओं का बोझ


महिला आयोग, महिला हेल्प लाईन, नारी सशक्तीकरण योजना, नारीवाद इस तरह के शब्द आज भी यह बताने के लिये काफी हैं कि तमाम परिवर्तनों के बावजूद भी हम स्त्रियां पुरुषसत्तात्मक समाज की गुलाम ही हैं. हमारी स्थितियों में सुधार की कथित कोशिश की जा रही है. कुछ अपवाद जरूर मिल जायेंगे. हमे बहलाने, फुसलाने और बरगलाने के लिये ढेर सारे विशेषण और उपमायें दिये गये हैं. खुद का शोषण और दोहन करते करवाते हुए हम इस तथाकथित सभ्य समाज की संस्कृति के पोषण और संवर्धन का जिम्मा उठाये हुए हैं. सब कुछ सहते-झेलते हुए चुपचाप बनावटी मुस्कान लिये जी लेना ही आज की सुसंस्कृत नारी की पहचान है.
समाज में व्यापक पैमाने पर बदलाव आये हैं. हमारा समाज पहले की तुलना में उदार भी हुआ है. सब कुछ होने के बावजूद भी अगर आज नारी निर्णय लेने की को्शिश करती है तो वह पुरुषों को खटक जाती है (अधिकांशतः). हमारे रिवाज, जिसे पोषित करने का जिम्मा हमने उठा रखा है अब तक हमारे लिये बेड़ियां ही सिद्ध हुई हैं.
रिवाजों के अनुसार हिंदु धर्म में शादी एक बार ही होती है. अगर आप सभ्य हैं तो आपको सिर्फ और सिर्फ अरेंज मैरेज पर ही भरोसा करना होगा. हां कुछ हद तक लड़कों को इस मामले में छूट है कि वो अपने पसंद की लड़की से शादी कर सकते हैं. जिस लड़के से आपकी शादी कर दी जाती है ताउम्र उस बंधन को निबाहना आपकी नैतिक जिम्मेवारी बन जाती है. आपके विचार उससे कितने मेल खाते हैं ये कभी मुद्दा बनता ही नहीं है. हमारे समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि एक बार जिसके साथ आपको बांध दिया गया है हर हाल में आपको वहीं रहना होगा. यही वजह है कि अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां तलाक की घटना कम होती है. इस वजह से हम यह न मान लें कि हमारे यहां सारे विवाहित जोड़े खुशहाल जीवन जी रहे हैं.
दाम्पत्य जीवन में छोटे-मोटे झगड़े और नोंक-झोंक का होना आम बात है. कुछ हद तक इससे पति-पत्नी के बीच प्रेम बढता भी है. जैसा कि एक गाना भी हमलोगों ने सुना है कि “तुम रूठी रहो मैं मनाता रहुं इन अदाओं पे और प्यार आता है……….”. हां अगर दंपति के बीच विचारों की समानता नहीं है तो ये झगड़े कभी-कभी रिश्तों मे अवसाद घोल देते हैं. कई बार ऐसा देखा गया है कि सालों बीत जाने के बाद भी उनके बीच प्रेम पनपता ही नहीं है और दोनों विवश होकर एक दूसरे के साथ जीने को मजबूर होते हैं. इन आपसी कलह और दूरी का दुष्प्रभाव बच्चों पर भी पड़ता है. इन बच्चों को अपने माता-पिता से ज्यादा लगाव तो नहीं ही होता है इनका नजरिया ज़िंदगी और रिश्तों के प्रति बदलने भी लगता है.
कहने के लिये तो इनका परिवार होता है, बच्चे होते हैं और दिखावे के लिये इनके पास एक खुशहाल ज़िंदगी भी होती है. इन सबसे अलग ये जोड़े डिप्रेशन में जी रहे होते हैं. अब सवाल उठता है कि जहां रिश्तों में प्रेम हो ही नहीं उसे ढोने से क्या फायदा ? दोनो खुशहाल रहें तो बात समझ में आती है. रिश्ते अगर मजबूरी बन जाये तो दोनो को अपना रास्ता अलग कर लेना ही समझदारी कही जायेगी.
अलग होने या तलाक लेने का निर्णय अगर एक महिला ले तो यह समाज के लिये अपच हो जाती है. यहां तक कि हिन्दी या संस्कृत में इसका कोई पर्यायवाची शब्द भी नहीं है. इस श्ब्द और घटना को वर्जित ही मान लें. अगर कोई महिला आजिज होकर यह कदम उठा भी ले तो हमारा थाकथित सभ्य समाज उसका जीना दूभर कर देती है. घरवालों-पड़ोसवालों से उसे इतनी प्रताड़ना मिलती है कि वह मान लेती है कि उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो. हद तो तब हो जाती है जब खुद की मां-बहन भी उसे यह नसीहत देते मिलती है कि जिस घर को तेरी डोली गई है वहीं से तेरी अर्थी निकले तो ज्यादा बेहतर. उसे समाजिक परंपराओं की दुहाई देते हुए कष्ट और तकलीफ सहकर रिश्तों को बचाने की नेक सलाह दी जाती है. यहां आकर परंपरा और सभ्यताओं की आड़ में मानवता मर जाती है. एक इंसान की खुशी का गला घोट दिया जाता है. उसे दर्द और तकलीफ को सहते हुए भी उसी रिश्ते में जीने को मजबूर कर दिया जाता है.
हिन्दु मैरेज एक्ट में 1976 में संशोधन कर धारा 68 के तहद हिन्दुओं को तलाक लेकर अलग रहने का अधिकार दिया गया है. हर साल इसके द्वारा काफी लोग अलग भी हो रहे हैं लेकिन आज भी हमारा समाज इसे स्विकार करने को तैयार नहीं है. हालांकि पुरुषों को इस मामले में आजादी है. वो जिससे चाहे जब चाहे अपनी हैसियत के हिसाब से संबंध बना और तोड़ सकता है. यही फैसला अगर एक त्रस्त होकर लेती है तो उसे मानसिक ही नहीं शारीरिक प्रताड़नाओं से भी गुज़ड़ना पड़ता है. उसे उपदेश दिया जाने लगता है कि भला है बुरा है जैसा भी है तेरा पति तेरा देवता है. इस तरह के उपदेश उससे मिलने वाला हर शख्स देने को आतुर रहता है, भले ही उसकी समझ जितनी भी हो.
आज हमारे समाज की जरूरतें बदल रही है. विकसित होते इस दौर में वह भी सुविधा सम्पन्न हो रहा है. आये दिन अपनी सुविधाओं में इजाफा भी कर रहा है. अब जरूरत है कि वह अपनी सोच भी बदले. हम पहले इंसान हैं लड़कियां तो बाद में हैं. जीवनसाथी तो वो है जो हर सुख-दुख, धूप-छांव में एक-दूसरे के साथ रहे. वो एक दूसरे के पूरक भी हों. समझौते की स्थिती को आगे बढाने से बेहतर है कि रास्ते अलग कर लें. ऎसे मामले में नई ज़िंदगी की शुरुआत करना ही समझदारी कही जायेगी.
सुनीता
उप-कापी संपादक
टी.वी 99 (बिहार)

1 comment:

samar said...

Manniya Sunita ji,


Aap Shayad nahi jaanti ki aajkal kadkiyan talaak lene ke 498a kitna galat istemaal kar rahi hain aur vo aaj majboor nahi hain vo to achche bhale sanskaari ladko ko majboor kar kar rahi un jaisi majboor ladkiyon ko katal karke 72 pieces me kaatne ke liye????/

Is par kya vichaar hain devi ji aapke............prateeksha karoonga.........