अन्ना हजारे कर बैठे बड़ी गलती-
5 अप्रैल से अन्ना ने अपनी दिसंबर मे किए संकल्प को साकार कर दिखाया। इसके नतीजे भी आए, एक के बाद एक संघ संघठन व्यक्तित्व जुड़े और जुड़ेते ही चले गए। मीडिया ने अपनी खराब आदत के अनुसार अच्छा काम किया कि पूरा अनशन कवरेज का अखंड पाठ सा बिठा दिया। वल्र्डकप के सतही देशप्रेम में डूबे भारतीय कब वास्तविक राष्ट्रहित और परमात्म सोच में डूब गए यह पता तक नहीं चला। अन्ना एक आवाज बन गए, लोकतंत्र के उस आम की जो इसे महज अपने ऊपर थोपा हुए उपले (गोबर का कंडा) मानता था। और शुरू हुआ देश में पहली बार देश की असली बात पर गैर सियासी दांव पेंचों का महासंग्राम। अबतक भ्रष्टाचार पर सियासी बोल बयान, योगी आसनों में छुपे निहितार्थ ही सतह पर थे। लेकिन पहली बार किसी ने देश में चेतना जगाई। आंदोलन की राह दिखाई। निराश, किंकर्तव्य व्यूमूढ़ सा बैठा भारतीय जनमानस इस सोच से उबर नहीं पा रहा था, कि 15 अगस्त 1947 को क्या हुआ था और इससे पहले क्या था मेरा देश। उसे दी सोच प्रज्ञा और चेतना। इस ब्रेन स्टॉर्मिंग के प्रणेता बने अन्ना। और खड़ा हो गया भ्रष्टाचार से महापीडि़त जन।
देश में शायद ऐसा कभी मौका नहीं रहा होगा, जब रूस की वोल्सेविक और फ्रांस की क्रांति सा माहौल बना हो। वल्र्डकप, दबंग में उलझी युवा पीढ़ी ने शायद इससे पहले भ्रष्टाचार को इतने करीब से खुद से जुड़ा पाया होगा और इसके समाधान के लिए स्वयं को सक्षम। देश के महा इवेंटों की बात की जाए जो राष्ट्र नाम की संस्था के लिए हुए तो अन्ना के अनशन को टॉप लिस्ट में रखा जा सकता है। अन्ना के साथ मुंबई के वैसे सफेदपोश भी ख
ड़े दिखे जो मजबूरी में इस महा-करप्शन के साथ रहते हैं। मैं बात कर रहा हूं, फिल्मी जनगण की। इस माहौल को अन्ना ने अपने जीवन की सार्थकता और संपूर्णता को जस्टीफाइ कर दिया।
लेकिन अन्ना फैल हो गए। वे अवाज तो दे गए लेकिन मानस की रगों की ऊर्जा को एकत्र करके अमल में नहीं ला सके। अन्ना ने अपने आंदोलन की शुरुआत गलत समय पर कर दी। अभी उन्हें फिल्मी सितारों, बड़ी शख्सियतों, वेटिंग इन पॉलिटिशियंस और तथा कथित सामाजिक पशुओं का साथ मिला। मीडिया के पास कोई और जिंदा रहने की खबरिया ऑक्सीजन न होने से अन्ना तुम हिट हो गए। लेकिन वास्तव में फैल ही रहे। क्योंकि सरकारों के पास मधुमख्खियों, मछलियों, जंगली जानवरों, आदमियों और अन्यान्य प्राणियों को अपने में फांसने के अल्हदा से जाल होते हैं। इन जालों के सरकार के पास अलग-अलग कारीगर भी हैं, मसलन कपिल सिब्बल, अभिषेक मनुसिंघवी, जयराम रमेश, दिगविजय सिंह आदि आदि। अन्ना तुम भूखे तो रहे, जन में आवाज भी फूंकी, तंतुओं में साहस भी भरा, लेकिन संपूर्ण समाधान के मुहाने पर आकर अंश से संतुष्ट हुए। अन्ना के इन आंदोलन को कुछ इस तरह से समझें तो ज्यादा अच्छा होगा।
अन्ना अन्न-ना को फायदे:
अन्ना के भूख हड़ताल पर बैठने से आम आदमी में साहस दिखा, समस्या पर निराश होते मध्यम वर्ग में दूर से चौंधिया रही किरण आंखों में प्रवेशित होती दिखी, नेता, कार्यकर्ता, योगकर्ता, भोगकर्ता, सरकार, मीडिया, न्याय, आदि से मोह भंग होते मनुष्य का भरोसा लौटा कि अभी लोग सच्चे भी मौजूद हैं, सरकार को सर्वमान्य सर्वोच्च ताकत समझने और आत्मसात करने वालों के मन में इसे खारिज करने का माद्या आया। युवाओं ने फिल्म, फैशन, क्रिकेट से इतर भ्रष्टाचार को समस्या और समाधान दोनों को माना, जाना और रक्तवाहिनियों में क्रोध को संचारित महसूस किया, इस देश में क्रांति कभी न हो सकने का पूर्वाग्रह टूटा। नक्ललियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों के लिए नई बात यहां आई, कि अहिंसा से भी लोकतंत्र में कुछ किया जा सकता है, मंच, मन, नंबर वन की सियासी भेड़चालों से हटकर भी कुछ हुआ। कुल मिलाकर तथाकथित प्रबुद्धों और अपने आलीशान घरों की चित्रशालाओं (ड्रॉइंग रूम) में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ गरीब जन की बात करने वालों की भी कलई खुली, वहीं हर्ष मंदर जैसे गरीब और अपराधी के बीच के अंतर को न समझने वाले सतही वक्ता, विचारक छपास भी कर्टेन ऑउट हुए। योग आसानों में छुपी सियासी चालें बेपर्दा हुईं।
अन्ना के भोजन विमुखता के नुकसान:
अन्ना हीरो द ग्रेट के इस कदम के लिए अभी उचित समय नहीं था, लोगों के जेहन में करप्शन के प्रति क्रोध तो था, लेकिन सडक़ों पर उतर थानेदार को पीट-पीट कर मार डालने का साहस नहीं था, तहसीलदार को जमीनें डकारने में बिल्डरों की थाली का राजदार के आरोपों में ऑफिसों से निकालकर जला देने की हिम्मत नहीं थी, आईएएस की घुर्र घुर्र करती गाडिय़ों को बमों से उड़ाने के हालात नहीं थे, भ्रष्टाचार को लोकाचार में तब्दील होते देखने वाले रोए नहीं थे, सफेदपोश अभी बेफिक्र कमरों में सिगरेटिया छल्ले नहीं उड़ा रहे थे। अन्ना यह अगर दो साल बाद करते, तो देश की सडक़ों पर लोग निकलते, अधिकारियों को ऑफिसों से निकालकर पीटते, थानेदारों को आग लगाकर जला डालते। अन्ना तेरा साथ पाकर लोग आजादी के लिए लड़ पड़ते। हिंसा के नफरतिया लबादे के भीतर के मोती में समाई आजादी के लिए ईंट से ईंट बजा देते। इस व्यवस्था की एक कमी नहीं सारी कमियां पूरी कर देते। मगर अन्ना तुमने जल्दबाजी कर दी, अपने जीवन की सबसे बड़ी जल्दबाजी।
लेकिन फिर भी तुम सही हो अन्ना:
इस सबके बाद भी तुम सही हो अन्ना, लेखन चिंतन में अन्ना भारत में ऐसे लोग 10 लाख हैं, जो कुछ करना चाहते हैं, ऐसे लोग 1 लाख हैं जो व्यवस्था को उखाड़ फेकना चाहते हैं, वो भी बिना किसी ऑल्टनेट के। ऐसे लोग 50 हजार हैं जो व्यवस्था से खिन्न हैं और इसका विकल्प भी रखते हैं, जिन्हे दूर से लोग नक्सली भी कहते हैं, करीब से सच्चे देशभक्त। ऐसे लोग एक हजार हैं, जो व्यवस्था के सारे खोटों को एक साथ एक ही किसी काल्पनिक रामवाण से ठीक करना चाहते हैं। और अन्ना ऐसे लोग महज 10 हैं जो क्रमश: व्यवस्था को ठीक करना चाहते हैं, जबकि ऐसा एक ही अन्ना है, जो व्यवस्था के एक हिस्से को अपने जीवन की कुर्बानी देकर सुधारना चाहता है, जिसे लोग जन लोकपाल विधेयक कहते हैं। 100 अन्ना मिलकर इस व्यवस्था के सारे दोषों को खत्म कर सकते है।
बाकी अन्नाओं तुम भी जागो:
देश के लाखों अन्नाओं साहस जुटाओ, जागो, न भागो, आओ, खाने वालों का खाओ, कुछ तो कर जाओ, नहीं तो क्या देश, दुनिया, समाज, परिवार, और यह सबकुछ जो दिखता है। हिमालय की कंदराओं में अल्लाह के भगवान रूप को खोजते योगियों, आसमान को चूमती मस्जिदों की मीनारों सो चिल्लाते अल्ला हो अकबर के मुरीदों, चर्च के घंटे पर टन टन करते भक्तों, अरदास पढ़ते सरदारों, नमो अरिहंताणौ जैनों इस पर कुछ करो। अल्लाह, भगवान, खुदा, न जाने क्या कहते हैं उसे, वह खुद ही साकार हो उठेगा वो भी तुम्हारे अंतस में कहीं और नहीं तुम्हारे अस्तित्व में।
जय हो अन्ना द ग्रेट
sakhajee.blogspot.com
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