राजनीति के विभीषण
विभीषण के नाम से तो आप सभी वाकिफ ही होंगे...सीता को रावण जब उठा कर ले गया था तो सीता की तलाश में जब हनुमान लंका में पहुंचे थे तो वे विभीषण ही थे जिन्होंने रावण की ताकत औऱ कमजोरियां को भगवान राम के सामने उजागर किया था...जो रावण के अंत की वजह बना था। इसी तरह कुछ विभीषण हर जगह होते हैं...लेकिन हम बात कर रहे हैं उत्तराखंड में राजनीति के विभीषणों की...दरअसल उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव के दौरान राज्य के दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस में भी सैंकडों ऐसे ही विभीषण थे जिन्होंने अपनी नेता भक्ति के लिए अपनी ही पार्टी का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अब चुनाव का परिणाम आए हुए करीब डेढ़ महीने का वक्त गुज़र चुका है...राज्य में कांग्रेस की सरकार बन गयी है...तो दोनों ही पार्टियों भाजपा औऱ कांग्रेस ने ऐसे विभीषणों की पहचान कर उनको किनारे करने का काम शुरू कर दिया है। ये ऐसे विभीषण थे जिन्होंने चुनाव के दौरान अपनी अपनी पार्टी भक्ति को किनारे कर नेता भक्ति पर ज्यादा मेहनत की...कुछ अपने पसंदीदा नेता को विधायकी का टिकट न मिलने से नाराज़ थे तो कुछ खुद को टिकट न मिला तो बन गए विभीषण...इसका खामियाजा अधिकतर जगह उन नेताओं औऱ कार्यकर्ताओं ने भी भुगता औऱ सबसे ज्यादा भुगता उनकी पार्टी ने भी...क्योकि इन विभीषणों के चलते दोनों ही पार्टियों के करीब करीब आधा दर्जन से ज्यादा प्रत्याशियों को कहीं बहुत कं अतंर से तो कहीं पर बुरी हार का मुंह देखना पड़ा...ये हाल राज्य की दोनों की प्रमुख दल भाजपा औऱ कांग्रेस में लगभग एक जैसे ही थे। ऐसे में दोनों ही पार्टियों ने अब इन विभीषणों की पहचान का काम शुरू कर दिया है...भाजपा ने इस काम में बकायदा एक पूरी टीम लगा रखी है...जो विभीषणों को पहचानने के लिए तीसरी आंख का काम कर रही है। पहले चरण में तो भाजपा ने चार जिलों को पूरी कार्यकारिणी को ही भंग कर दिया है...जबकि भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल रही कोटद्वार सीट से खंडूरी के हारने पर भाजपा से कोटद्वार के ही अपने नेता औऱ पूर्व विधायक शैलेन्द्र रावत को नोटिस थमा दिया है...वहीं कांग्रेस ने भी चुनाव से लेकर सीएम के नाम की घोषणा तक विभीषण बने नेताओं को को अब सबक सिखाना शुरू कर दिया है...लेकिन कांग्रेस की ये कार्रवाई सिर्फ हवा हवाई ही दिखाई दे रही है...विभीषणों के सरदार हरीश रावत पर तो प्रदेश कांग्रेस हाथ डालने से कतराती दिखाई दे रही है जबकि सरदार के सिपहसालारों को जरूर नोटिस जारी कर कार्यकर्ताओं को संदेश देने की कोशिश कांग्रेस कर रही है। बहरहाल विभीषणों की पहचान का ये काम अभी दोनों पार्टियों ने शुरू ही किया है...आगे आगे देखते हैं होता है क्या।
दीपक तिवारी
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भितरघात, ये एक शब्द आजकल उत्तराखंड कि राजनीति में जैसे हार जीत कि सफाई देने का अमोघ अस्त्र बन गया है. यों तो बहुत से जीते हारे नेताओं ने भितरघात शब्द का प्रयोग किया लेकिन इस एक शब्द का जितना राजनैतिक फ़ायदा खंडूरी और उनकी टोली ने उठाया उतना किसी ने नहीं. आज प्रदेश क्या देश भर के हर छोटे बड़े पत्रकार के लिए भितरघात खंडूरी कि हार का पर्याय बन कर रह गया है. आखिर क्या हो गया ऐसा खंडूरी के साथ? अपने सैनिक होने का बखान वो गाहे बगाहे करते ही रहते हैं,तो फिर क्यों एक सैनिक कि भांति अपनी हार स्वीकार कर अपनी कमजोरियों को नहीं तलाशते? क्यों इस हार का ठीकरा वो निशंक के सर पर फोड़ना चाहते हैं ? जो खंडूरी उनकी पार्टी द्वारा राज्य भर में जरूरी कह कर प्रचारित किये गए, कोटद्वार कि जनता के लिए वो इतने गैर जरूरी कैसे हो गए कि उन्हें लगभग ५००० वोट के बड़े मार्जिन से शिकस्त मिली ? खंडूरी यदि इतने ही जरूरी थे तो एक निशंक तो क्या पूरी केंद्र कि सत्ता भी उन्हें हराने पर अमादा हो जाती तब भी वो जीत जाते. और इसका जीता जागता उदाहरण है १९८१ का लोकसभा उपचुनाव. कुछ लोग ( पत्रकारों सहित) जो आजकल खंडूरी के हारने पर आंसू बहा रहे हैं उन्हें उस चुनाव कि याद दिलाना बहुत जरूरी है. हो सकता है इन लोगों में से तब तक कुछ लोग पैदा भी नहीं हुए होंगे और कुछ के दूध के दांत भी न टूटे हों. कांग्रेस पार्टी एवं लोकसभा सीट से त्यागपत्र देने के बाद स्वर्गीय बहुगुणा ने गढ़वाल लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था. कहने को तो स्वर्गीय चन्द्रमोहन सिंह नेगी उनके विरुद्ध इस उपचुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गाँधी ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और ये चुनाव इंदिरा वर्सेस बहुगुणा बन गया. ये बात आज भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि श्रीमती गाँधी से अधिक शक्तिशाली प्रधानमंत्री न पहले कोई हुआ और गठबंधन कि राजनीति के चलते भविष्य में भी होने कि सम्भावना नगण्य ही है. जो लोग उस वक्त इस लोकसभा क्षेत्र में रह रहे थे उन्हें याद होगा कि पूरे गढ़वाल क्षेत्र को कैसे छावनी बना दिया गया था. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व सब कार्य छोड़कर गढ़वाल में डेरा जमाये बैठा था. राज्य में जातिवाद कि घिनौनी राजनीति का बीज भी उसी समय बोया गया. यंहा तक कि चुनाव के दिन ब्राह्मण बहुल गांवो में देश के विभिन्न क्षेत्रों से आये गुंडों द्वारा मतदाताओं को अपने मत का प्रयोग करने से भी रोका गया. लेकिन परिणाम जो रहा वो एक इतिहास है. जब उस विकट परिस्थिति में बहुगुणा जीत सकते थे तो खंडूरी के सामने ऐसी कौन सी परिस्थिति थी जो वो चुनाव हार गए? वो तो स्वयं मुख्यमंत्री थे और तथाकथित रूप से लोकप्रिय भी. और यदि निशंक इतने भ्रष्टाचारी थे और उनकी छवि इतनी ख़राब थी तो उनकी अपील का लोगों पर असर भी नहीं होना चाहिए था. पूरे प्रदेश क्या देश भर में ऐसा माहौल बना दिया गया था जैसे राज्य में सब कुछ गड़बड़ है और निशंक जैसा भ्रष्टाचारी न कभी पूर्व में हुआ न भविष्य में होगा. जो ऊर्जा खंडूरी ने निशंक को भ्रष्टाचारी सिद्ध करने में खर्च की उसकी आधी भी अगर कांग्रेस के केंद्र में हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने में की होती तो आज स्थिति कुछ और ही होती.
इसलिए भितरघात के असली आरोपी तो खंडूरी हैं जिन्होंने विपक्षी भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने के स्थान पर अपनी ही पार्टी के तथाकथित भ्रष्टाचार ( तथाकथित इसलिए की किसी भी जाँच एजेंसी , न्यायालय या प्राधिकरण द्वारा निशंक के विरुद्ध कोई चार्जशीट दाखिल नहीं की गयी) को मुद्दा बनाया और स्वयं तो डूबे ही पार्टी को भी ले डूबे.
इसलिए खंडूरी जी भितरघात का रोना छोडिये , साहसी बनिए और स्वीकार कीजिये कि आप में ही कमी थी. दूसरों को दोष देकर आप स्वयं को भी कमजोर कर रहे हैं और अपनी उस सैनिक वर्दी को भी जो इस देश की शान है.
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