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25.2.13

इंसाफ- मौत के बाद..!


हैदराबाद बम धमाकों की गूंज के बीच एक ख़बर ऐसी भी थी जो न तो मीडिया की सुर्खियां बन पाई और न ही इस पर बहुत ज्यादा चर्चा हुई लेकिन ये ख़बर देश की निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालतों में वर्षों से लंबित लाखों मामलों से संबंधित करोड़ों लोगों के साथ ही पश्चिम बंगाल के पार्थ सारथी सेन रॉय के परिजनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण थी। हालांकि पार्थ सारथी सेन रॉय इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पार्थ सारथी सेन रॉय की 32 साल पहले 27 फरवरी 1981 को बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड से बर्खास्तगी को गलत ठहराते हुए रॉय के हक में फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कंपनी को रॉय की बर्खास्तगी से लेकर सेवानिवृति तक के वेतन का 60 फीसदी रॉय के वारिस को देना का आदेश दिया है। (पढ़ें- मौत के बाद मिला सुप्रीम कोर्ट से इंसाफ)।
दरअसल पार्थ सारथी सेन रॉय मई 1975 में बामर लॉरी एंड कंपनी लिमिटेड में भर्ती हुए थे लेकिन कंपनी ने 27 फरवरी 1981 को रॉय को कंपनी से बर्खास्त कर दिया। रॉय ने अपनी बर्खास्तगी को कलकत्ता हाईकोर्ट में चुनौती दी लेकिन कंपनी ने हाईकोर्ट में दलील दी कि वह सरकारी कंपनी नहीं है और हाईकोर्ट को इस मामले में सुनवाई का अधिकार नहीं है। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट में केस आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाया का हाईकोर्ट ने इस मामले का मेरिट के आधार पर फैसला नहीं किया और कंपनी को सार्वजनिक उपक्रम मानते हुए रॉय के पक्ष में फैसला दिया।
लंबी कानूनी जंग के बीच रॉय ने दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन मौत के बाद ही सही रॉय को इंसाफ जरूर मिला। रॉय इंसाफ की इस लड़ाई को अधूरा जरूर छोड़कर चले गए लेकिन रॉय का केस अपने आप में भारतीय न्याय व्यवस्था को लेकर कई सवाल खड़े करता है। जिसमें सबसे पहला सवाल सालों लंबी अदालती लड़ाई को लेकर है जो आम आदमी में न्याय व्यवस्था के प्रति एक अविश्वास पैदा करता है..!
हिंदुस्तान में आजादी के 65 साल बाद भी लोग सही होने के बाद भी कानूनी लड़ाई लड़ने से परहेज करते हैं। वजह साफ है- कानूनी लड़ाई का लंबा इतिहास। एक आम आदमी जो सुबह उठने के साथ ही अपनी दो वक्त की रोजी रोटी के जुगाड़ में जुट जाता है अगर किसी कारणवश ऐसी स्थिति में फंसता है कि उसे अदालत तक जाना पड़ सकता है तो वह अपने कदम पीछे खींच लेता है।
वो सालों तक चलने वाली कानूनी लड़ाई के लिए न तो मानसिक रूप से तैयार होता है और न ही आर्थिक रूप से। साथ ही अदालत के चक्कर काटने पर रोजी रोटी का जुगाड़ वो कैसे करेगा ये सवाल भी मुंह बांए उसके सामने हर वक्त खड़ा रहता है।
बात ये नहीं है कि अदालतों से न्याय नहीं मिलता...पार्थ सारथी सेन रॉय का ताजा केस सामने है...रॉय को इंसाफ मिला...रॉय के हक में फैसला हुआ लेकिन एक बहुत लंबी थका देना वाली कानूनी लड़ाई के बाद...ये लड़ाई इतनी लंबी थी कि रॉय ने इस बीच दुनिया को ही अलविदा कह दिया।   
एक और ऐसे ही केस का जिक्र करना चाहूंगा...मुंबई के एम यू किणी का जिन्हें 24 साल की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद इंसाफ मिला जब सीबीआई की विशेष अदालत ने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया में अधिकारी किणी पर लगाए सभी आरोपों को समाप्त कर उन्हें बरी कर दिया। किणी कहते हैं कि 24 साल की लंबी कानूनी लड़ाई न सिर्फ थकाऊ थी बल्कि ये 24 साल उनके लिए किसी सजा से कम नहीं थे। (पढ़ें- 24 साल बाद एक बैंक अधिकारी को मिला इंसाफ)।
निचली अदालतों को छोड़कर अगर देश के सर्वोच्च अदालत की ही अगर बात करें तो एक आंकड़े के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों की संख्या करीब 60 हजार के करीब है तो देशभर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में वर्ष 2011 तक लंबित मामलों की संख्या करीब 43 लाख 22 हजार है यानि लगभग आधा करोड़। इससे देशभर की विभिन्न अदालतों में लंबित मामलों की संख्या का अंदाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। वहीं सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के 31 पदों में से 6 रिक्त हैं तो देशभर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 895 में से 281 पद खाली पड़े हैं जो कि न्यायालयों में लंबित मामलों की एक वजह है। (पढ़ें- चौटाला केस- भ्रष्टाचारियों के लिए सबक)।
अपने हक के लिए लड़ रहे एक आम आदमी को सालों तक चलने वाली लंबी कानूनी लड़ाई न सिर्फ अंदर से तोड़ देती है बल्कि न्याय व्यवस्था पर लोगों के भरोसे को भी डिगाती है। उसे न्याय मिलता तो है लेकिन कई बार देर से मिला न्याय सजा के समान होता है या फिर इसे पाने के लिए वे अपना सब कुछ गंवा चुके होते हैं...और अधिकतर की स्थिति पार्थ सारथी सेन रॉय और एम यू किणी जैसी ही होती है...जो इस बात पर बार-बार सोचने पर मजबूर करती हैं कि ऐसा न्याय आखिर किस काम का..!

deepaktiwari555@gmail.com

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