नोट-इस आलेख को पढ़ने से पहले कृपया नोबेल विजेता क्विस्त की कहानी नरक की ओर जानेवाली लिफ्ट को पढ़ लें जिसमें नायक को सिर्फ मानसिक यातना झेलनी पड़ती है क्योंकि तब आपको मेरे द्वारा भोगे गए नरक का सही-सही अंदाजा हो पाएगा।
मित्रों,आपका परलोक अर्थात् स्वर्ग और नरक में कितना विश्वास है मुझे नहीं पता। मेरा भी परलोक में विश्वास नहीं है परन्तु इस बात में मेरा पक्का विश्वास है कि हम जैसे किराएदारों के लिए स्वर्ग और नरक दोनों इसी धरती पर हैं। जब मकान-मालिक अच्छा मिल जाए तो समझिए कि आप स्वर्ग में हैं और अगर खराब मिल गया तो समझिए कि आपने पूर्व में कभी कोई-न-कोई महापाप किया है यानि आप नरक में हैं। अभी-अभी जिस मकान को छोड़कर मैं और मेरा परिवार आया है उसको अगर मुगल बादशाह जहाँगीर ने देखा होता तो मुझे पूरा यकीन है कि वे कश्मीर को भूल गए होते और कहा होता कि अगर इस धरती पर कहीं नरक है तो यहीं पर है,यहीं पर है, यहीं पर है।
मित्रों, पिछले साल 5 अप्रैल को जब हम ठेले पर अपनी खानाबदोश गृहस्थी को लादे हुए इस मकान में पहली बार पधारे तो मकान-मालिक जो रसायन-विज्ञान के अवकाश-प्राप्त प्रोफेसर थे को पिताजी के साथ सोफे पर विराजमान पाया। अपने संस्कारोनुरूप मैंने उनके चरण-स्पर्श किए और बताया कि मैं एक नामी लेकिन बिना आमदनीवाला पत्रकार हूँ। शाम में उनकी पत्नी भी आई परन्तु वे कुछ खुश नहीं दिख रही थीं। उनका मानना था कि हमारे पास सामान ज्यादा था। हालाँकि मैंने उनको समझाना चाहा कि घबराने की कोई बात नहीं सामान सेट हो जाने के बाद आपको ऐसा नहीं लगेगा परन्तु न तो उनका मूड ही बदला और न ही उन्होंने इस बात की रट लगानी बंद ही की कि हमारे पास सामान ज्यादा है। फिर कई दिनों तक हम सामान सजाने में व्यस्त रहे। इस बीच में देख चुका था कि किचेन के सिंक में पानी नहीं आता है और न ही निकासी पाईप ही लगाई गई है। वायरिंग की हालत भी कुछ ज्यादा ही खराब थी। शौचालय की टंकी शायद ऊपर तक भरी हुई थी जिससे पानी ऊपर तक भर जाता था और लैटरिन भीतर जाता ही नहीं था। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि मकान में जो सुविधाएँ नहीं हैं हमेशा से नहीं हैं और पिछले बीस वर्षों में एक दर्जन से ज्यादा किराएदारों के आने और चले जाने के बावजूद भी स्थिति जस-की-तस हैं। फिर भी हमने मकान-मालिक को बुलाकर जब समस्याएँ बताईँ तो उन्होंने बड़े मीठे स्वर में कहा कि अभी तक आपलोगों ने एडवांस नहीं दिया है। दे देंगे तो समाधान भी हो जाएगा। हमने तत्काल तत्क्षण एक महीने का किराया दे दिया। फिर तो कई दिन बीत गए। इस बीच एक नई समस्या शुरू हो गई। मेरे मकान-मालिक कभी भी बिना दरवाजे पर दस्तक दिए धमक जाते और बार-बार यह बल्ब क्यों जल रहा है,पंखा क्यों चल रहा है,घर में झाड़ू क्यों नहीं पड़ा जैसे सवाल ठोंकने लगते। एक-दो दिन तो मैंने बर्दाश्त किया फिर कहा कि श्रीमान् आप तो अपनी ही हाँके जा रहे हैं हमारी समस्याओं का समाधान तो आपने किया ही नहीं जबकि एडवांस दिए कई दिन हो गए। बस फिर क्या था बुजुर्गवार जोर-जोर से चीखने लगे और पूरे मोहल्ले को जमा कर लिया। आपने फरमाया कि आप मकान पर एक पैसा भी खर्च नहीं करने जा रहे हैं। चूँकि हम उनके निर्देशानुसार नहीं रहे हैं सो हमें अभी घर खाली कर देना होगा। मैं तो सुनकर हैरान रह गया। अभी तो हमें आए हुए सात दिन भी नहीं हुए थे। उस पर बिहार लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा और अधीनस्थ न्यायालय का साक्षात्कार सिर पर था। अब मुझे भी तैश आ गया और मैंने कहा कि मकान में जब सुविधाओं की भारी कमी थी तो किराया पर लगाया ही क्यों तो उनका जवाब था कि आपको पहले आकर सबकुछ देख लेना चाहिए था। तब मैंने कहा कि तब भी मुझे कैसे पता लगता कि आप झूठ बोल रहे हैं कि सच?
मित्रों,कुछ ही दिनों बाद नलों में पानी का प्रवाह कम हो गया। मैंने जब इसकी शिकायत की और कहा कि आपलोगों ने पानी का प्रवाह ऊपर टंकी के पास से तो कम नहीं किया है तो मकान-मालकिन जो एक शिक्षिका रह चुकी हैं झूठी कसमें खाने लगीं। फिर तो पूरे प्रवाह में कभी पानी आया ही नहीं। अगर 12 बजे नहाना हो तो 10 बजे से ही नल खोल दीजिए तब जाकर बाल्टी भर पाती थी। बर्तन धोने के लिए पीछे गलियारे में जाना पड़ता था और वहाँ भी पानी के कम फ्लो की समस्या थी। एक दिन फिर मकान-मालिक आ धमके और कहा कि पीछे के गलियारे में साइकिल नहीं रखनी चाहिए क्योंकि यह तो उनके मतानुसार बाथरूम था। मैं भौंचक्का रह गया उनके इतिहास-ज्ञान पर कि श्रीमान् कहीं मोहनजोदड़ो की यात्रा करके तो नहीं आए हैं जहाँ कभी बड़े-बड़े खुले स्नानागार थे। इसी बीच एक दिन सुबह-सुबह शौचालय ने और अधिक शौच को समाहित करने से मना कर दिया। उस पर गजब यह कि उस दिन मेरा और मेरे पिताजी का एकसाथ पेट खराब हो गया। अब हम कितनी देर तक चपक धिन्न चाँप के रक्खो करते। आखिर न चाहते हुए भी मकान-मालिक जी को बुलाया। उन्होंने एक गदानुमा उपकरण उपलब्ध करवाया और बताया कि जब भी लैटरिन जाम हो जाए तो इसका इस्तेमाल किया जाए। फिर तो दोस्तों बार-बार उस गदा का कपड़ा सड़ता रहा और खुलकर लैटरिन के बेसिन में गिरता रहा और हम अपने करकमलों से निकालते रहे और नया कपड़ा उस पर लपेटते रहे। इस बीच मोहल्ले के कई लोगों ने अपनी लैटरिन की टंकी को साफ करवाया मगर इन श्रीमान् को न करवाना था सो नहीं करवाया।
मित्रों, इसी बीच एक नए संकट से भी हमें जूझना पड़ा। श्रीमान् ने सीढ़ी पर चेंजर लगा रखा था सो जब मन करे बिजली काट देते थे। चूँकि शुरू में हम समझ नहीं पाए इसलिए बिजली जाने पर यही समझते रहे कि पूरे मोहल्ले की बिजली गई होगी। बाद में जब बात समझ में आई और हमने शिकायत की तो उन्होंने फरमाया कि उनके निवास का तार कमजोर है सो ज्यादा देर तक लगातार बिजली रहने पर गलने लगता है। उस समय भीषण गर्मी पड़ रही थी मगर हम लाचार थे। रात को छत पर वे खुद सपरिवार कब्जा जमा लेते थे इसलिए हम छत पर भी सोने के लिए नहीं जा पाते थे और इस तरह न जाने कितनी रातें हमने जागकर बिता दीं। कई बार हमने कपड़ा धोकर छत पर सूखने को डाला तो बाद में अलगनी से गिरा हुआ पाया हालाँकि हम चाँप लगा देते थे। फिर तो हमने कपड़ा छत पर डालना भी बंद कर दिया। इस बीच हमारा नल दो-चार बाल्टी पानी देने के बाद बंद हो जाने लगा। अब हमें सारा काम चापाकल से पानी लाकर करना था। एक बार चापाकल पर बर्तन धोने लगा तो मकान-मालिक आ धमके और पुलिस को बुलाने की धमकी दे डाली। मैंने भी बड़े ही विनम्र स्वरों में कहा कि श्रीमान् आपकी बड़ी कृपा होगी। जेल में भी शायद इस मकान से ज्यादा सुविधा मिलती होगी।
मित्रों, कुल मिलाकर उस मकान में सुविधाओं का अभाव ही नहीं अकाल था। हमारे मकान-मालिक हमें यानि किराएदारों को आदमी समझते ही नहीं थे। हालाँकि इस मकान में आने से पहले पिताजी उनके लिए बड़े ही आदरणीय थे लेकिन मकान में आते ही न जाने क्यों वे उनकी नजरों में आदमी भी नहीं रह गए थे। पैसों के बारे में श्रीमान् बड़े काईयाँ किस्म के थे। एक बार फ्यूज में खराबी आ जाने पर हमने मैकेनिक बुलवाया मगर श्रीमान् ने उसका पैसा हमें आज तक नहीं दिया। इसी तरह एक बार जब चापाकल खराब हो गया तो उन्होंने कृपापूर्वक उसे कई सप्ताहों तक खराब ही छोड़ दिया और हम कई सप्ताहों तक पड़ोसियों के चापाकल से पानी लाकर काम चलाते रहे। बिजली के मामले में पहले तो उन्होंने कहा कि हमलोगों का अलग मीटर है और उसी के अनुसार बिजली का पैसा देना होगा लेकिन बाद में कहा कि जो भी कुल बिल उठेगा उसमें से हमें आधा देना होगा। हमने जब कहा कि आप हमारे मीटर से पैसा क्यों नहीं लेते बिजली को लेकर झिक-झिक की जरूरत ही क्या है? तो फिर से एक बार फिर वही धमकी कि जैसे हम कहते हैं रहिए वरना आपसे दो मिनट में हम डेरा खाली करा लेंगे। कहने को तो श्रीमान् सपत्निक गायत्री परिवार के सदस्य थे और दरवाजे पर लिखवा भी रखा था कि सभ्यता का स्वरूप है सादगी, अपने लिए कठोरता और दूसरों के लिए उदारता परंतु उनका व्यवहार इसके ठीक उलट था। घर के बाहर लिखी ईबारत को देखकर ही तो हम धोखा खा बैठे थे और समझा था कि हम एकदम सही जगह पर रहने आए हैं।
मित्रों,इस तरह किसी तरह उस नरक में हमने 10 महीने बिताए और अब इसी 1 फरवरी को खाली किया है। वैसे अगर आप भी नरक का मोल देकर मजा लेना चाहते हैं,अगर आप भी विद्वान मगर ईन्सानियत से पूर्णतया रिक्त मकान-मालिक का आनंद लेना चाहते हैं तो इस अवसर को बिल्कुल भी हाथों से नहीं जाने दीजिए। वह मकान फिर तो बस आपके लिए ही खाली है। पता मैं वता देता हूँ-प्रोफेसर एस. पांडे, प्रोफेसर कॉलोनी, आर.एन. कॉलेज के पास, हाजीपुर (वैशाली)। अब कुछेक सवाल अपनी सरकारों से। श्रीमान् नीतीश कुमार जी क्या किरायेदारों का कोई कानूनी या मानवाधिकार नहीं होता? जब जी चाहे भाड़ा में मकानमालिक बढ़ोत्तरी कर देते हैं,नहीं बढ़ाने पर तुरंत खाली करने का फरमान जारी कर देते हैं,क्या इनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं होना चाहिए और अगर ऐसे कानून हैं तो क्या उनका जोर-शोर से प्रचार-प्रसार नहीं होना चाहिए? क्या किराएदार भी उपभोक्ता नहीं होते और इसलिए उनको भी उपभोक्ता-कानूनों का लाभ नहीं मिलना चाहिए? मनमोहन सिंह जी भारत में करोड़ों लोग किराएदार के रूप में रहने को अभिशप्त और मजबूर हैं। क्या इतनी बड़ी जनसंख्या को अत्याचार और जुल्म सहने के लिए यूँ ही अपने हाल पर छोड़ देना उचित है? क्या शासन-प्रशासन को आगे बढ़कर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि अधिकतर किराएदारों का मतदाता-सूची में नाम नहीं होता? क्या शासन-प्रशासन को आगे बढ़कर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करनी चाहिए? मैं पूछता हूँ कि चंद हजार वार्षिक कमानेवाले नौकरीपेशा लोगों पर तो आयकर विभाग का कोड़ा खूब चलता है लेकिन लाखों रूपये मासिक की आमदनीवाले मकान और दुकान-मालिक 1 पैसे का भी अतिरिक्त कर नहीं भर रहे हैं फिर भी सरकार मूकदर्शक क्यों है? क्या यही कानून और कानून का शासन है? वैसे दोस्तों जब आप उक्त मकान में नरकवासी बनने को आ जाएँ तो कृपया अपने अनुभवों से मुझे भी समय-समय पर अवगत करवाईएगा। अपने पड़ोसियों से पूछ लीजिएगा वे लोग जानते हैं कि मैं इस समय कहाँ स्वर्गवास कर रहा हूँ। मैं आपका सबसे बड़ा शुभचिंतक आपका बेसब्री से इंतजार करूंगा।
मित्रों,आपका परलोक अर्थात् स्वर्ग और नरक में कितना विश्वास है मुझे नहीं पता। मेरा भी परलोक में विश्वास नहीं है परन्तु इस बात में मेरा पक्का विश्वास है कि हम जैसे किराएदारों के लिए स्वर्ग और नरक दोनों इसी धरती पर हैं। जब मकान-मालिक अच्छा मिल जाए तो समझिए कि आप स्वर्ग में हैं और अगर खराब मिल गया तो समझिए कि आपने पूर्व में कभी कोई-न-कोई महापाप किया है यानि आप नरक में हैं। अभी-अभी जिस मकान को छोड़कर मैं और मेरा परिवार आया है उसको अगर मुगल बादशाह जहाँगीर ने देखा होता तो मुझे पूरा यकीन है कि वे कश्मीर को भूल गए होते और कहा होता कि अगर इस धरती पर कहीं नरक है तो यहीं पर है,यहीं पर है, यहीं पर है।
मित्रों, पिछले साल 5 अप्रैल को जब हम ठेले पर अपनी खानाबदोश गृहस्थी को लादे हुए इस मकान में पहली बार पधारे तो मकान-मालिक जो रसायन-विज्ञान के अवकाश-प्राप्त प्रोफेसर थे को पिताजी के साथ सोफे पर विराजमान पाया। अपने संस्कारोनुरूप मैंने उनके चरण-स्पर्श किए और बताया कि मैं एक नामी लेकिन बिना आमदनीवाला पत्रकार हूँ। शाम में उनकी पत्नी भी आई परन्तु वे कुछ खुश नहीं दिख रही थीं। उनका मानना था कि हमारे पास सामान ज्यादा था। हालाँकि मैंने उनको समझाना चाहा कि घबराने की कोई बात नहीं सामान सेट हो जाने के बाद आपको ऐसा नहीं लगेगा परन्तु न तो उनका मूड ही बदला और न ही उन्होंने इस बात की रट लगानी बंद ही की कि हमारे पास सामान ज्यादा है। फिर कई दिनों तक हम सामान सजाने में व्यस्त रहे। इस बीच में देख चुका था कि किचेन के सिंक में पानी नहीं आता है और न ही निकासी पाईप ही लगाई गई है। वायरिंग की हालत भी कुछ ज्यादा ही खराब थी। शौचालय की टंकी शायद ऊपर तक भरी हुई थी जिससे पानी ऊपर तक भर जाता था और लैटरिन भीतर जाता ही नहीं था। अब तक हम यह अच्छी तरह से समझ चुके थे कि मकान में जो सुविधाएँ नहीं हैं हमेशा से नहीं हैं और पिछले बीस वर्षों में एक दर्जन से ज्यादा किराएदारों के आने और चले जाने के बावजूद भी स्थिति जस-की-तस हैं। फिर भी हमने मकान-मालिक को बुलाकर जब समस्याएँ बताईँ तो उन्होंने बड़े मीठे स्वर में कहा कि अभी तक आपलोगों ने एडवांस नहीं दिया है। दे देंगे तो समाधान भी हो जाएगा। हमने तत्काल तत्क्षण एक महीने का किराया दे दिया। फिर तो कई दिन बीत गए। इस बीच एक नई समस्या शुरू हो गई। मेरे मकान-मालिक कभी भी बिना दरवाजे पर दस्तक दिए धमक जाते और बार-बार यह बल्ब क्यों जल रहा है,पंखा क्यों चल रहा है,घर में झाड़ू क्यों नहीं पड़ा जैसे सवाल ठोंकने लगते। एक-दो दिन तो मैंने बर्दाश्त किया फिर कहा कि श्रीमान् आप तो अपनी ही हाँके जा रहे हैं हमारी समस्याओं का समाधान तो आपने किया ही नहीं जबकि एडवांस दिए कई दिन हो गए। बस फिर क्या था बुजुर्गवार जोर-जोर से चीखने लगे और पूरे मोहल्ले को जमा कर लिया। आपने फरमाया कि आप मकान पर एक पैसा भी खर्च नहीं करने जा रहे हैं। चूँकि हम उनके निर्देशानुसार नहीं रहे हैं सो हमें अभी घर खाली कर देना होगा। मैं तो सुनकर हैरान रह गया। अभी तो हमें आए हुए सात दिन भी नहीं हुए थे। उस पर बिहार लोक सेवा आयोग की मुख्य परीक्षा और अधीनस्थ न्यायालय का साक्षात्कार सिर पर था। अब मुझे भी तैश आ गया और मैंने कहा कि मकान में जब सुविधाओं की भारी कमी थी तो किराया पर लगाया ही क्यों तो उनका जवाब था कि आपको पहले आकर सबकुछ देख लेना चाहिए था। तब मैंने कहा कि तब भी मुझे कैसे पता लगता कि आप झूठ बोल रहे हैं कि सच?
मित्रों,कुछ ही दिनों बाद नलों में पानी का प्रवाह कम हो गया। मैंने जब इसकी शिकायत की और कहा कि आपलोगों ने पानी का प्रवाह ऊपर टंकी के पास से तो कम नहीं किया है तो मकान-मालकिन जो एक शिक्षिका रह चुकी हैं झूठी कसमें खाने लगीं। फिर तो पूरे प्रवाह में कभी पानी आया ही नहीं। अगर 12 बजे नहाना हो तो 10 बजे से ही नल खोल दीजिए तब जाकर बाल्टी भर पाती थी। बर्तन धोने के लिए पीछे गलियारे में जाना पड़ता था और वहाँ भी पानी के कम फ्लो की समस्या थी। एक दिन फिर मकान-मालिक आ धमके और कहा कि पीछे के गलियारे में साइकिल नहीं रखनी चाहिए क्योंकि यह तो उनके मतानुसार बाथरूम था। मैं भौंचक्का रह गया उनके इतिहास-ज्ञान पर कि श्रीमान् कहीं मोहनजोदड़ो की यात्रा करके तो नहीं आए हैं जहाँ कभी बड़े-बड़े खुले स्नानागार थे। इसी बीच एक दिन सुबह-सुबह शौचालय ने और अधिक शौच को समाहित करने से मना कर दिया। उस पर गजब यह कि उस दिन मेरा और मेरे पिताजी का एकसाथ पेट खराब हो गया। अब हम कितनी देर तक चपक धिन्न चाँप के रक्खो करते। आखिर न चाहते हुए भी मकान-मालिक जी को बुलाया। उन्होंने एक गदानुमा उपकरण उपलब्ध करवाया और बताया कि जब भी लैटरिन जाम हो जाए तो इसका इस्तेमाल किया जाए। फिर तो दोस्तों बार-बार उस गदा का कपड़ा सड़ता रहा और खुलकर लैटरिन के बेसिन में गिरता रहा और हम अपने करकमलों से निकालते रहे और नया कपड़ा उस पर लपेटते रहे। इस बीच मोहल्ले के कई लोगों ने अपनी लैटरिन की टंकी को साफ करवाया मगर इन श्रीमान् को न करवाना था सो नहीं करवाया।
मित्रों, इसी बीच एक नए संकट से भी हमें जूझना पड़ा। श्रीमान् ने सीढ़ी पर चेंजर लगा रखा था सो जब मन करे बिजली काट देते थे। चूँकि शुरू में हम समझ नहीं पाए इसलिए बिजली जाने पर यही समझते रहे कि पूरे मोहल्ले की बिजली गई होगी। बाद में जब बात समझ में आई और हमने शिकायत की तो उन्होंने फरमाया कि उनके निवास का तार कमजोर है सो ज्यादा देर तक लगातार बिजली रहने पर गलने लगता है। उस समय भीषण गर्मी पड़ रही थी मगर हम लाचार थे। रात को छत पर वे खुद सपरिवार कब्जा जमा लेते थे इसलिए हम छत पर भी सोने के लिए नहीं जा पाते थे और इस तरह न जाने कितनी रातें हमने जागकर बिता दीं। कई बार हमने कपड़ा धोकर छत पर सूखने को डाला तो बाद में अलगनी से गिरा हुआ पाया हालाँकि हम चाँप लगा देते थे। फिर तो हमने कपड़ा छत पर डालना भी बंद कर दिया। इस बीच हमारा नल दो-चार बाल्टी पानी देने के बाद बंद हो जाने लगा। अब हमें सारा काम चापाकल से पानी लाकर करना था। एक बार चापाकल पर बर्तन धोने लगा तो मकान-मालिक आ धमके और पुलिस को बुलाने की धमकी दे डाली। मैंने भी बड़े ही विनम्र स्वरों में कहा कि श्रीमान् आपकी बड़ी कृपा होगी। जेल में भी शायद इस मकान से ज्यादा सुविधा मिलती होगी।
मित्रों, कुल मिलाकर उस मकान में सुविधाओं का अभाव ही नहीं अकाल था। हमारे मकान-मालिक हमें यानि किराएदारों को आदमी समझते ही नहीं थे। हालाँकि इस मकान में आने से पहले पिताजी उनके लिए बड़े ही आदरणीय थे लेकिन मकान में आते ही न जाने क्यों वे उनकी नजरों में आदमी भी नहीं रह गए थे। पैसों के बारे में श्रीमान् बड़े काईयाँ किस्म के थे। एक बार फ्यूज में खराबी आ जाने पर हमने मैकेनिक बुलवाया मगर श्रीमान् ने उसका पैसा हमें आज तक नहीं दिया। इसी तरह एक बार जब चापाकल खराब हो गया तो उन्होंने कृपापूर्वक उसे कई सप्ताहों तक खराब ही छोड़ दिया और हम कई सप्ताहों तक पड़ोसियों के चापाकल से पानी लाकर काम चलाते रहे। बिजली के मामले में पहले तो उन्होंने कहा कि हमलोगों का अलग मीटर है और उसी के अनुसार बिजली का पैसा देना होगा लेकिन बाद में कहा कि जो भी कुल बिल उठेगा उसमें से हमें आधा देना होगा। हमने जब कहा कि आप हमारे मीटर से पैसा क्यों नहीं लेते बिजली को लेकर झिक-झिक की जरूरत ही क्या है? तो फिर से एक बार फिर वही धमकी कि जैसे हम कहते हैं रहिए वरना आपसे दो मिनट में हम डेरा खाली करा लेंगे। कहने को तो श्रीमान् सपत्निक गायत्री परिवार के सदस्य थे और दरवाजे पर लिखवा भी रखा था कि सभ्यता का स्वरूप है सादगी, अपने लिए कठोरता और दूसरों के लिए उदारता परंतु उनका व्यवहार इसके ठीक उलट था। घर के बाहर लिखी ईबारत को देखकर ही तो हम धोखा खा बैठे थे और समझा था कि हम एकदम सही जगह पर रहने आए हैं।
मित्रों,इस तरह किसी तरह उस नरक में हमने 10 महीने बिताए और अब इसी 1 फरवरी को खाली किया है। वैसे अगर आप भी नरक का मोल देकर मजा लेना चाहते हैं,अगर आप भी विद्वान मगर ईन्सानियत से पूर्णतया रिक्त मकान-मालिक का आनंद लेना चाहते हैं तो इस अवसर को बिल्कुल भी हाथों से नहीं जाने दीजिए। वह मकान फिर तो बस आपके लिए ही खाली है। पता मैं वता देता हूँ-प्रोफेसर एस. पांडे, प्रोफेसर कॉलोनी, आर.एन. कॉलेज के पास, हाजीपुर (वैशाली)। अब कुछेक सवाल अपनी सरकारों से। श्रीमान् नीतीश कुमार जी क्या किरायेदारों का कोई कानूनी या मानवाधिकार नहीं होता? जब जी चाहे भाड़ा में मकानमालिक बढ़ोत्तरी कर देते हैं,नहीं बढ़ाने पर तुरंत खाली करने का फरमान जारी कर देते हैं,क्या इनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई कानून नहीं होना चाहिए और अगर ऐसे कानून हैं तो क्या उनका जोर-शोर से प्रचार-प्रसार नहीं होना चाहिए? क्या किराएदार भी उपभोक्ता नहीं होते और इसलिए उनको भी उपभोक्ता-कानूनों का लाभ नहीं मिलना चाहिए? मनमोहन सिंह जी भारत में करोड़ों लोग किराएदार के रूप में रहने को अभिशप्त और मजबूर हैं। क्या इतनी बड़ी जनसंख्या को अत्याचार और जुल्म सहने के लिए यूँ ही अपने हाल पर छोड़ देना उचित है? क्या शासन-प्रशासन को आगे बढ़कर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसा इसलिए नहीं है क्योंकि अधिकतर किराएदारों का मतदाता-सूची में नाम नहीं होता? क्या शासन-प्रशासन को आगे बढ़कर उनके अधिकारों की रक्षा नहीं करनी चाहिए? मैं पूछता हूँ कि चंद हजार वार्षिक कमानेवाले नौकरीपेशा लोगों पर तो आयकर विभाग का कोड़ा खूब चलता है लेकिन लाखों रूपये मासिक की आमदनीवाले मकान और दुकान-मालिक 1 पैसे का भी अतिरिक्त कर नहीं भर रहे हैं फिर भी सरकार मूकदर्शक क्यों है? क्या यही कानून और कानून का शासन है? वैसे दोस्तों जब आप उक्त मकान में नरकवासी बनने को आ जाएँ तो कृपया अपने अनुभवों से मुझे भी समय-समय पर अवगत करवाईएगा। अपने पड़ोसियों से पूछ लीजिएगा वे लोग जानते हैं कि मैं इस समय कहाँ स्वर्गवास कर रहा हूँ। मैं आपका सबसे बड़ा शुभचिंतक आपका बेसब्री से इंतजार करूंगा।
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