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4.2.13

कौन अन्ना..कैसा आंदोलन ?


2014 के आम चुनाव में अभी करीब 15 महीने का वक्त है लेकिन देश की दोनों बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा को उम्मीद ही नहीं पूरा भरोसा है कि सरकार उनकी ही बनेगी। यहां तक तो ठीक था लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी को लेकर भी जोर आजमाईश चरम पर है। कांग्रेस नीत यूपीए में तो अघोषित तौर पर राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार हैं तो भाजपा नीत राजग में प्रधानमंत्री की उम्मीदार को लेकर घमासान मचा है। सब कुछ यूपीए और एनडीए के आसपास ही घूमता दिखाई दे रहा है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर दो साल पहले शुरु हुई बदलाव और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की बयार आखिर क्यों मंद पड़ गई..?
वो नजारा मेरी तरह आपके जेहन में भी शायद ताजा होगा जब आज से करीब दो साल पहले समाजसेवी अन्ना हजारे ने अपने सहयोगियों संग दिल्ली के जंतर मंतर से लोकपाल के समर्थन में भ्रष्टचार के खिलाफ हुंकार भरी थी तो अन्ना के समर्थन में देशभर में सड़कों पर उतरा जनसैलाब एक नयी क्रांति के उदघोष का आभास करा रहा था..!
लगने लगा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरु हुई ये लड़ाई अपने अंजाम तक पहुंचेगी और 2014 का आम चुनाव निर्णायक सिद्ध होगा। लेकिन टीम अन्ना में विघटन के रूप में अरविंद केजरीवाल का राजनीतिक विकल्प चुनकर आम आदमी पार्टी का गठन करना शायद आम आदमी का भरोसा ले डूबा क्योंकि बड़ी संख्या में लोग राजनीति विकल्प के इस फैसले के समर्थन में नहीं थे..!    
टीम अन्ना का विघटन सरकार के साथ ही दूसरे राजनीतिक दलों के लिए संजीवनी की काम कर गया और उन्हें भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई पर सवाल उठाने के मौके मिल गए।
हालांकि अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल अलग अलग रास्तों से अपनी लड़ाई को आम आदमी के सहारे अंजाम तक पहुंचाने की उम्मीद लगाए बैठे हैं लेकिन ये बात अन्ना, केजरीवाल और उनके सहयोगी और समर्थक भी अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी राह आसान नहीं है..!
इसके पीछे की बड़ी वजह ये भी है कि जिस आम आदमी के साथ की उम्मीद में ये लड़ाई लड़ी जा रही है वही आम आदमी कहीं न कहीं अभी भी देश के दो प्रमुख राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाया है..!
भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई, बेरोजगारी से त्रस्त आम आदमी राजनीति में किसी तीसरे विकल्प पर मुहर लगाने की सोचता तो है लेकिन जब ऐसा करने की बारी आती है तो उसका ऊंगलियां कमल या हाथ की तरफ ही या फिर लोकप्रिय क्षेत्रीय दलों के चुनाव चिन्ह के आस पास ही घूमती नजर आती हैं..!
भारतीय राजनीति का इतिहास उठा कर अगर देख लें तो इक्का दुक्का मौके को छोड़कर ये बात साबित भी हो जाती है कि आम आदमी का मानस परिवर्तन कर सत्ता परिवर्तन इतना आसान तो कभी नहीं रहा।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि जनता को भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई, बेरोजगारी जैसी सौगातें देने वाले ऐसे राजनीतिक दलों को ढोना ही क्या अब इस देश की नियती बन गई है..?
सवाल ये उठता है कि क्या हम इन सब चीजों के आदि हो गए हैं और हमें इस सब से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता..?
इसका जवाब शायद यूएनडीपी की ह्यूमन डेवलेपमेंट रिपोर्ट में मिल जाए जिसके अनुसार भारत में गरीबों की संख्या 42 करोड से ज्यादा है। यूएनडीपी की नजर में गरीब का मतलब वह परिवार है जिसे हर रोज एक डॉलर से भी कम आमदनी में गुजारा करना पड़ता है जो आज के हिसाब से तकरीबन 50 रूपए के आस पास है।
121 करोड़ की आबादी वाले देश में ये वो संख्या है जिनकी ये हालत भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई, बेरोजगारी की वजह से ही है और इस सब से सबसे ज्यादा यही लोग प्रभावित भी हैं और दूसरे लोगों के साथ ही इनका वोट बदलाव की ताकत रखता है।  
लेकिन विडंबना देखिए यही लोग भ्रष्टाचार, घोटाले, महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं कर पाते क्योंकि इनको इस सब की जानकारी ही नहीं होती है और ये लोग चाहकर भी अपनी आवाज नहीं उठा पाते क्योंकि सुबह होते ही ये लोग दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में जुट जाते हैं।
इनके पास तो वक्त ही नहीं है अपनी आवाज उठाने का..वैसे भी जब पेट ही नहीं भरेगा तो आवाज कोई कैसे उठाएगा..?
कहते भी हैं - भूखे पेट तो भजन भी नहीं होते हैं..! सत्ता परिवर्तन, व्यवस्था परिवर्तन के खिलाफ आंदोलन कैसे होगा..?

deepaktiwari555@gmail.com

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