छत्तीसगढ़
की जेलों में बंद दो हजार से अधिक आदिवासी बंदियों को बाहर निकालने के लिए एक नई
मुहिम का शंखनाद हो चुका है। अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद, सर्व आदिवासी समाज, कुछ सेवानिवृत्त
अफसर और गैर सरकारी संगठन अंडर ट्रायल आदिवासी कैदियों को बाहर लाने के लिए अब मिलकर अभियान चलाएंगे। इसमें वकीलों के
साथ-साथ कानून के छात्रों की मदद भी ली जा रही है।
आदिवासी
संगठनों का आरोप है कि प्रदेश की अलग-अलग जेलों में दो हजार से ज्यादा आदिवासी
छोटे-छोटे अपराधों में वर्षों से बंद हैं। लेकिन गरीबी के कारण उन्हें न्याय मिलने
में देर हो रही है। राज्य सरकार की हाई पॉवर कमेटी भी आदिवासी बंदियों को न्याय
दिलाने में अब तक नाकाम रही है।
राज्य
सरकार की हाई पावर कमेटी ने तय किया था कि सूबे की अलग-अलग
जेलों में बंद आदिवासियों की ज़मानत याचिका का
अदालत में विरोध नहीं करेगी। इनमें नक्सली होने के आरोपित आदिवासी भी शामिल हैं। लेकिन
राज्य सरकार के हलफनामे के बावजूद हाईकोर्ट समेत स्थानीय अदालतों में अब तक
आदिवासी बंदियों को जमानत नहीं मिल पाई है।
दरअसल
2012 में माओवादियों द्वारा सुकमा के तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन की रिहाई
के बदले रखी शर्त के तहत राज्य सरकार ने एक हाई पावर कमेटी बनाई थी। डॉक्टर बीडी शर्मा,
प्रोफेसर हरगोपाल, मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्य
सचिव निर्मला बुच और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्य सचिव एसके मिश्रा की मध्यस्थता के
बाद कलेक्टर को रिहा किया गया था। समझौते के तहत राज्य सरकार ने कलेक्टर एलेक्स
पॉल मेनन की रिहाई के तुरंत बाद मध्यप्रदेश
की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच की अध्यक्षता में प्रदेश के मुख्य सचिव एवं पुलिस
महानिदेशक की सदस्यता वाली एक उच्चाधिकार वाली स्थायी समिति का गठन भी कर दिया।
समिति को राज्य की अलग-अलग जेलों में बंद आदिवासी बंदियों के साथ माओवादियों
द्वारा सौंपी गई सूची के मामलों की भी समीक्षा करनी थी।
सर्व
आदिवासी समाज के बीपीएस नेताम कहते हैं कि “छत्तीसगढ़ की जेलों में दो हज़ार से अधिक निर्दोष आदिवासी बंद
हैं, लेकिन हाईपॉवर कमेटी पौने दो साल में केवल 159 मामलों पर ही विचार कर पाई है।
लेकिन आदिवासियों की रिहाई नहीं करवा पाई”।
अखिल
भारतीय आदिवासी विकास परिषद के सोनऊराम नेताम कहते हैं, “अब हम अपने निर्दोष भाईयों को बाहर
निकालने के लिए हरसंभव कोशिश करेंगे। बुच कमेटी से हमें आशा तो बहुत थी, लेकिन हाथ
कुछ भी नहीं लगा। अब हम खुद इसके लिए जनमत तैयार करने के साथ-साथ कानूनी लड़ाई
लड़ेंगे”।
मध्यप्रदेश
के पूर्व मुख्य सचिव शरतचंद्र बेहार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहते
हैं कि “उन अंडर ट्रायल बंदियों की रिहाई जरूरी है,
जिन्होंने अपने अपराध की सजा न्याय के इंतजार में ही पूरी कर ली है”।
जेलों
में बंद कैदियों की रिहाई के मुद्दे पर अलग-अलग धड़े में बंटा आदिवासी समाज इस
वक्त एक मंच पर नजर आ रहा है। ये इस बात का भी संकेत है कि इस बार लड़ाई आर या पार
की होगी। फिलहाल तो आदिवासी नेता मिलकर सरकार पर नए सिरे से दबाव बनाने की रणनीति
तैयार कर रहे हैं।
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