क्या राजनीति से कभी नैतिकता का जन्म हुआ ?
आज देश में एक शोर सुनायी दे रहा है कि देश को राजनीति के गर्भ से नैतिकता दे देंगे।
क्या बबुल भी कभी आम का फल देते हैं ,नहीं ना ; तो फिर देशवासियों को यह आशा
क्यों जगायी जा रही है ? क्या धर्म ग्रंथ सदाचरण की शिक्षा के सार से लबालब नहीं है ?
फिर क्यों हर जगह अनैतिकता फैलती जा रही है ?क्या कठोर कानून से समाज नैतिक
बन जाएगा ?यदि ऐसा हो सकता था तो सजा ए मौत ही हर अपराध को रोकने में
समर्थ होती।
राजनीति से नैतिकता लाने कि बात करने वाले नेता देश और समाज को भ्रमित कर
खुद का स्वार्थ ही पूरा करते हैं। आम जनता नैतिकता की बात करती है और चाहती भी
है कि कोई ऐसा सूत्र या उपाय मिल जाए जिससे अपराध कम हो जाये और यही कारण
है कि वह जो भी नैतिकता कि बात करता है उसका बिना सोचे समझे समर्थन करने
निकल पड़ती है वह यह नहीं देखती है कि सामने कोई ढोंगी बाबा है या कुशल विक्रेता।
राजनीति के क्षेत्र में नैतिकता का झण्डा लेकर कुछ व्यक्ति निकल सकते हैं मगर
उनके पीछे चल रही करोड़ो कि भीड़ नैतिक है ,इसमें पूरा सन्देह है। सन्तो के प्रवचन
को सुनने वाले सभी सात्विक और धार्मिक प्रवृति के लोग होते तो यह देश कभी का
सात्विक बन गया होता ,अगर सात्विक विचारों का प्रवाह लोगों का नैतिक नहीं बना
सकता है तो फिर राजनीति से नैतिकता का जन्म कैसे हो सकता है क्योंकि राजनीति
में तो छल बल छद्म सब कुछ जायज है।
सत्ता से नैतिक मूल्यों कि स्थापना हो सकती थी तो राजकुँवर सिद्दार्थ को राजा
बन जाना चाहिए था उसे बुद्ध क्यों बनना पड़ा ?सत्ता के परिवर्तन मात्र से देश या
समाज नैतिक और स्वच्छ बनता है तो कितनी सत्ता हजारों वर्षों में बदली लेकिन
नैतिकता का पतन क्यों होता गया ?
नैतिकता का सपना दिखा कर वोट और सत्ता पा लेना सरल है मगर सत्ता से नैतिकता
की स्थापना का सपना दिखाना समाज को मुर्ख बनाना है। कोई कहता है कड़ा कानून
ले आओ ,कोई कहता है मुझे आजमा कर देखो ये सब आडंबर से देश का क्या भला होगा ?
कोई संत चोरों की बस्ती में जाकर बढ़िया प्रवचन दे दे और उपस्थित लोग उनकी बात
का समर्थन भी कर दे तो क्या यह मान लिया जाए कि वहाँ नैतिकता का साम्राज्य हो गया ?
नैतिकता के लिये मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किसी राजनैतिक पार्टी की
जरूरत नहीं होती है ,उसके लिए खुद को अपने परिवार को सुधारने कि आवश्यकता होती है
यदि मनुष्य खुद स्वत: नैतिक बनने का संकल्प करता है तभी नवचेतना आ सकती है
पार्टी बनाने ,आलोचना करने,दुसरो में खामियाँ ढूंढने से नैतिकता नही आने वाली है और
इसीलिए शायद गाँधीजी पद से दूर कर्म से ये साबित करते रहे और उनका अनुकरण
करते अन्ना हजारे दिखायी पड़ते हैं ……………
आज देश में एक शोर सुनायी दे रहा है कि देश को राजनीति के गर्भ से नैतिकता दे देंगे।
क्या बबुल भी कभी आम का फल देते हैं ,नहीं ना ; तो फिर देशवासियों को यह आशा
क्यों जगायी जा रही है ? क्या धर्म ग्रंथ सदाचरण की शिक्षा के सार से लबालब नहीं है ?
फिर क्यों हर जगह अनैतिकता फैलती जा रही है ?क्या कठोर कानून से समाज नैतिक
बन जाएगा ?यदि ऐसा हो सकता था तो सजा ए मौत ही हर अपराध को रोकने में
समर्थ होती।
राजनीति से नैतिकता लाने कि बात करने वाले नेता देश और समाज को भ्रमित कर
खुद का स्वार्थ ही पूरा करते हैं। आम जनता नैतिकता की बात करती है और चाहती भी
है कि कोई ऐसा सूत्र या उपाय मिल जाए जिससे अपराध कम हो जाये और यही कारण
है कि वह जो भी नैतिकता कि बात करता है उसका बिना सोचे समझे समर्थन करने
निकल पड़ती है वह यह नहीं देखती है कि सामने कोई ढोंगी बाबा है या कुशल विक्रेता।
राजनीति के क्षेत्र में नैतिकता का झण्डा लेकर कुछ व्यक्ति निकल सकते हैं मगर
उनके पीछे चल रही करोड़ो कि भीड़ नैतिक है ,इसमें पूरा सन्देह है। सन्तो के प्रवचन
को सुनने वाले सभी सात्विक और धार्मिक प्रवृति के लोग होते तो यह देश कभी का
सात्विक बन गया होता ,अगर सात्विक विचारों का प्रवाह लोगों का नैतिक नहीं बना
सकता है तो फिर राजनीति से नैतिकता का जन्म कैसे हो सकता है क्योंकि राजनीति
में तो छल बल छद्म सब कुछ जायज है।
सत्ता से नैतिक मूल्यों कि स्थापना हो सकती थी तो राजकुँवर सिद्दार्थ को राजा
बन जाना चाहिए था उसे बुद्ध क्यों बनना पड़ा ?सत्ता के परिवर्तन मात्र से देश या
समाज नैतिक और स्वच्छ बनता है तो कितनी सत्ता हजारों वर्षों में बदली लेकिन
नैतिकता का पतन क्यों होता गया ?
नैतिकता का सपना दिखा कर वोट और सत्ता पा लेना सरल है मगर सत्ता से नैतिकता
की स्थापना का सपना दिखाना समाज को मुर्ख बनाना है। कोई कहता है कड़ा कानून
ले आओ ,कोई कहता है मुझे आजमा कर देखो ये सब आडंबर से देश का क्या भला होगा ?
कोई संत चोरों की बस्ती में जाकर बढ़िया प्रवचन दे दे और उपस्थित लोग उनकी बात
का समर्थन भी कर दे तो क्या यह मान लिया जाए कि वहाँ नैतिकता का साम्राज्य हो गया ?
नैतिकता के लिये मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए किसी राजनैतिक पार्टी की
जरूरत नहीं होती है ,उसके लिए खुद को अपने परिवार को सुधारने कि आवश्यकता होती है
यदि मनुष्य खुद स्वत: नैतिक बनने का संकल्प करता है तभी नवचेतना आ सकती है
पार्टी बनाने ,आलोचना करने,दुसरो में खामियाँ ढूंढने से नैतिकता नही आने वाली है और
इसीलिए शायद गाँधीजी पद से दूर कर्म से ये साबित करते रहे और उनका अनुकरण
करते अन्ना हजारे दिखायी पड़ते हैं ……………
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