उच्चतम न्यायलय ने भारतीय संस्कृति का गौरव बढ़ाया
हमारी संस्कृति पर अन्य जातियों ने वर्षो से हमले किये और उसे नेस्तनाबूत करने की
नाकामयाब कोशिशे आज तक जारी है। भला हो उच्चतम न्यायालय का जिसने "गे "
दुराचरण के खिलाफ फैसला दिया।
हमारी संस्कृति और सद साहित्य को मिटाने पर दूसरी जातियाँ मौके की तलाश में
रहती है ,हिंदुत्व की जीवन शैली को अन्य जातियाँ पुरानपंथी ठहराकर खुद के कुसंस्कार
के जहरीले बीज हिंदुस्तान में रोपना चाहती है। "गे " जीवन पद्धति भारतीय संस्कृति के
दर्शन के खिलाफ है। हमारे आदर्श राम और कृष्ण जैसे सर्वशक्तिमान दिव्यात्मा हैं ,
हमारा साहित्य वेद और उपनिषद है। हमारे वेदों में "गे "जीवन का उल्लेख तक नहीं है।
हमारे ऋषि मुनियों के लिखित यौन शास्त्रों ने इस प्रकार जीने की सोच वाले निकृष्ट
सोच वाले कुंठित लोगों का जिक्र करना भी उचित नहीं समझा। फिर सवाल यह उठता
है कि विश्व की अन्य जातियाँ जो खुद "गे "जीवन की निकृष्टता के दलदल में फँसी है
वो इस दलदल से बाहर आने का उपाय ढूंढने की जगह अन्य जातियों को इस विष का
पान कराने को क्यों आतुर है ?
क्या अप्राकृतिक यौन संबंध हमारी दैव संस्कृति से मेल खाते हैं ?क्या स्वतंत्रता के
नाम पर निकृष्ट ,अनुपयोगी ,अप्राकृतिक और हेय विचारों पर चिंतन ,मंथन या बहस
जायज है ?
यह इस देश का प्रतिकुल समय है क्योंकि भारतीय संस्कृति से अनजान, भारतीय
साहित्य से अनजान, भारतीय जनता की भावनाओं से अनजान राजनेता के पुत्र "गे "
जैसे निकृष्ट प्राणियों के अधिकारों के पक्ष में बात करते हैं।
अपनी संस्कृति को बचाने के लिए अब जग कर हुँकार भरने का समय आ गया है।
ये विदेशी दुराचरण भारत में पग पसारे उसके पहले उसे नष्ट कर दे। हमारी उच्च तम
न्यायलय ने इस विचार धारा को अपराध की श्रेणी में रखा इसके लिए साधुवाद …।
हमारी संस्कृति पर अन्य जातियों ने वर्षो से हमले किये और उसे नेस्तनाबूत करने की
नाकामयाब कोशिशे आज तक जारी है। भला हो उच्चतम न्यायालय का जिसने "गे "
दुराचरण के खिलाफ फैसला दिया।
हमारी संस्कृति और सद साहित्य को मिटाने पर दूसरी जातियाँ मौके की तलाश में
रहती है ,हिंदुत्व की जीवन शैली को अन्य जातियाँ पुरानपंथी ठहराकर खुद के कुसंस्कार
के जहरीले बीज हिंदुस्तान में रोपना चाहती है। "गे " जीवन पद्धति भारतीय संस्कृति के
दर्शन के खिलाफ है। हमारे आदर्श राम और कृष्ण जैसे सर्वशक्तिमान दिव्यात्मा हैं ,
हमारा साहित्य वेद और उपनिषद है। हमारे वेदों में "गे "जीवन का उल्लेख तक नहीं है।
हमारे ऋषि मुनियों के लिखित यौन शास्त्रों ने इस प्रकार जीने की सोच वाले निकृष्ट
सोच वाले कुंठित लोगों का जिक्र करना भी उचित नहीं समझा। फिर सवाल यह उठता
है कि विश्व की अन्य जातियाँ जो खुद "गे "जीवन की निकृष्टता के दलदल में फँसी है
वो इस दलदल से बाहर आने का उपाय ढूंढने की जगह अन्य जातियों को इस विष का
पान कराने को क्यों आतुर है ?
क्या अप्राकृतिक यौन संबंध हमारी दैव संस्कृति से मेल खाते हैं ?क्या स्वतंत्रता के
नाम पर निकृष्ट ,अनुपयोगी ,अप्राकृतिक और हेय विचारों पर चिंतन ,मंथन या बहस
जायज है ?
यह इस देश का प्रतिकुल समय है क्योंकि भारतीय संस्कृति से अनजान, भारतीय
साहित्य से अनजान, भारतीय जनता की भावनाओं से अनजान राजनेता के पुत्र "गे "
जैसे निकृष्ट प्राणियों के अधिकारों के पक्ष में बात करते हैं।
अपनी संस्कृति को बचाने के लिए अब जग कर हुँकार भरने का समय आ गया है।
ये विदेशी दुराचरण भारत में पग पसारे उसके पहले उसे नष्ट कर दे। हमारी उच्च तम
न्यायलय ने इस विचार धारा को अपराध की श्रेणी में रखा इसके लिए साधुवाद …।
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