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24.12.16

चिंता का विषय ट्रंप नहीं, अमेरिकी प्रभुवर्ग की सोच में आया बदलाव है

एच.एल.दुसाध 

टाइम मैगजीन द्वारा 2016 के लिए ’पर्सन ऑफ़ द इयर‘ के खिताब से नवाजे गए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में दोबारा मतगणना में भी जीत हासिल कर अपने विरोधियों को अब पूरी तरह से निराश कर दिया है. विस्कोंसिन,जो डेमोक्रेटिक पार्टी का गढ़ माना जाता रहा है, में दोबारा मतगणना के बाद भी नतीजे उनके ही पक्ष में आये हैं.इसके बाद अब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे बदलने के प्रयास समाप्त हो गए हैं.दरअसल एक सफलतम बिजनेसमैन, टीवी एंकर और कुछ बेस्ट सेलर किताबों के राइटर से अपना सफ़र आगे बढ़ाते हुए 70 वर्षीय डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव जीतकर कब का ह्वाईट हाउस में प्रवेश का अधिकार अर्जित कर चुके हैं, किन्तु अमेरिका में ऐसे ढेरों लोग हैं जो इस पर आज भी विश्वास नहीं करना चाहते. वे उन्हें इतना अपात्र मानते हैं कि यकीन ही नहीं कर पा रहे हैं कि उनके जैसा व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति भी बन सकता है. इसीलिए 8 नवम्बर को अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति के रूप में ट्रंप का नाम घोषित होने के बाद ऐसे लोग हक्के-बक्के रह गए.


अगले दिन इस अचम्भे से उबरने के बाद उनके राष्ट्रपति चुने जाने के विरोध में हजारो-हजारों लोग,जिनमें सर्वाधिक संख्या हिस्पैनिक्स, अफ़्रीकी अमेरिकी, मुसलमानों की रही, सड़कों पर उतर आये.शायद ही दुनिया के किसी चुने हुए राष्ट्राध्यक्ष के खिलाफ इस तरह लोग सड़कों पर उतरे होंगे. हालांकि ट्रंप के खिलाफ खुले विरोध का सिलसिला थम चुका है, पर अब भी ढेरों लोग उन्हें राष्ट्रपति के रूप में स्वीकृति देने का मन नहीं बना पाए हैं.बहरहाल अमेरिकी अल्पसंख्यक ही नहीं, दुनिया भर के अधिकांश देशों सहित खुद अमेरिका के गोरे बुद्धिजीवी वर्ग को ट्रंप का राष्ट्रपति बनना एक डरावने सपना जैसा लगा है .कुल मिलाकर अमेरिकी अल्पसंख्यक, अन्तरराष्ट्रीय जगत और खुद अमेरिकी बौद्धिक वर्ग ट्रंप के राष्ट्रपति बनने से बुरी तरह चिंतित है. लेकिन मेरे हिसाब से ट्रंप उतने चिंता के विषय नहीं हैं,चिंता का विषय अमेरिकी प्रभुवर्ग के सामाजिक विवेक, जिसकी प्रशंसा में डॉ.आंबेडकर ने कई पन्ने रंगे हैं, में आया बदलाव है.

यह श्वेतांगी हैरिएट बीचर स्टो थीं जिन्होंने 1851 में ‘अंकल टॉम्स कैबिन ‘लिखकर अमेरिकी प्रभुवर्ग के विवेक को अभूतपूर्व रूप से झकझोरा.उस किताब में दास-प्रथा के तहत अश्वेतों की दुर्दशा का करुणतम चित्र देखकर संगदिल गोरों में मानवता का झरना फूट पड़ा था. उसका ऐसा असर हुआ कि दास-प्रथा के अवसान के मुद्दे पर अमेरिका में जो गृह –युद्ध अनुष्ठित हुआ, उसमें विवेकवान गोरों ने थाम लिया था बन्दूक, अपने ही उन भाइयों के खिलाफ जिनमें वास कर रही थी उनके उन पुरुखों की आत्मा जिन्होंने कालों का पशुवत इस्तेमाल कर मानवता को शर्मसार किया था. किन्तु दास-प्रथा की गुफा से निकलने के सौ बाद भी अफ़्रीकी अमेरिकी तमाम मानवीय अधिकारों से शून्य थे .उनको इस दारुण स्थिति से उबारने के लिए मार्टिन लूथर किंग (जू) ने  शांतिपूर्ण तरीके से ‘सिविल राइट्स मूवमेंट’ चलाया, जो नागरिक अधिकारों की पहली महानायिका रोजा पार्क्स के ऐतिहासिक प्रतिवाद के बाद 1960 के दशक में नस्लीय दंगों का रूप धारण करता गया. इन दंगों पर काबू पाने के लिए 15 मार्च,1968 को प्रकाशित कर्नर आयोग की सिफारिशों का अनुसरण कर तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी.जॉनसन ने वंचित नस्लीय समूहों को राष्ट्र की संपदा-संसाधनों में शेयर दिलाने का निर्णय लिया. इसके लिए उन्होंने नारा दिया- ‘अमेरिका हर जगह दिखे’ अर्थात अमेरिका की नस्लीय विविधता का प्रतिबिम्बन प्रत्येक क्षेत्र में हो.इस बड़े लक्ष्य के लिए उन्होंने भारत की आरक्षण प्रणाली से आइडिया उधार लेकर विभिन्न नस्लीय समूहों का प्रतिनिधित्व सिर्फ नौकरियों में ही नहीं,उद्योग-व्यापार इत्यादि में भी सुनिश्चित कराने के लिए विविधता नीति(डाइवर्सिटी पालिसी) अख्तियार किया, जिसका उनुसरण उनके बाद के सभी राष्ट्रपतियों-निक्सन, कार्टर, रीगन इत्यादि ने भी किया. इसके फलस्वरूप अमेरिकी अल्पसंख्यकों (कालों, रेड इंडियंस, हिस्पैनिक्स,एशियन-पैसेफिक मूल के लोगों) को धीरे-धीरे नहीं, बड़ी तेजी से सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ ज्ञान उद्योग, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-टीवी इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में भागीदारी सुनिश्चित हुई.इस क्रम में अमेरिका विश्व का समृद्धतम देश और वहां का लोकतंत्र दुनिया के लिए एक मिसाल बना.

बहरहाल जॉनसन की जिस विविधता नीति के फलस्वरूप अमेरिका में सुखद बदलाव आया ,उसे सफल बनाने में सबसे बड़ा योगदान वहां के प्रभुवर्ग का था.गृह-युद्ध में वंचित अश्वेतों के प्रति अभूतपूर्व सदाशयता का परिचय वाले अमेरिकी प्रभुवर्ग राष्ट्रपति जॉनसन के आह्वान सम्मान करते हुए अपने निजी नुकसान की सम्भावना को दरकिनार कर वंचित नस्लीय समूहों को प्रत्येक क्षेत्र में हिस्सेदार बनाने के लिए ख़ुशी –ख़ुशी सामने आया. उसके जाग्रत विवेक के चलते ही अमेरिका की डाइवर्सिटी पालिसी परवान चढ़ सकी.लेकिन डाइवर्सिटी पालिसी को दुनिया के लिए अनुकरणीय बनाने के बावजूद अमेरिका के गोरे प्रभुवर्ग को अपने जाग्रत विवेक का चरम दृष्टांत स्थापित करना बाकी था और उसने अश्वेत बराक ओबामा को राष्ट्रपति बनाकर वह कर दिखाया.जिन कालों का पशुवत इस्तेमाल कर उन्होंने रंगभेद का काला इतिहास रचा था, उन्हीं में एक की संतान ओबामा को राष्ट्रपति बनाकर अपने सारे पापों को धुल डाला था. लेकिन ओबामा को दोबारा व्हाइट हाउस में भेजने के बाद के वर्षो में जिस तरह अन्यान्य छिटफुट घटनाओं के साथ अगस्त 2014 में फर्ग्युसन के एक अश्वेत युवक को गोलियों से उड़ाने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डरेन विल्सन पर नवम्बर,2014 में ग्रांड ज्यूरी द्वारा अभियोग चलाने से इंकार करने एवं 18 मई,2015 को 21 साल के श्वेत युवक डायलन रूफ द्वारा साउथ कैरोलिना स्थित अश्वेतों के 200 साल पुराने चर्च में गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने जैसी बड़ी घटनाएं सामने आयीं,उसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि विविध कारणों से अमेरिकी प्रभुवर्ग पहले जैसा उदार नहीं रहा, उसका विवेक शिथिल पड़ रहा है.इसका सबसे  बड़ा प्रमाण ऑस्कर 2015 और 2016 में मिला.

काबिले गौर है कि ऑस्कर 2002 में डेंजिल वाशिंगटन और हैलेबेरी को एक साथ बेस्ट एक्टर और ऐक्ट्रेस से सम्मानित किये जाने के बाद ऑस्कर पुरस्कारों में विविधता लगातार दिखने लगी अर्थात किसी न किसी श्रेणी में अश्वेतों को भी नामित व सम्मानित किया जाने लगा.किन्तु 2015 में यह सिलसिला अचानक थम गया जिसे लेकर पूरी दुनिया में ऑस्कर देने वाली ज्यूरी की तीव्र भर्त्सना हुई.इससे लगा अंततः अगले वर्ष कुछ विविधता अवश्य दिखेगी. किन्तु 2016 में स्थिति और बदतर हो गयी. 2015 में तो मार्टिन लूथर किंग जू के वोटाधिकार के लिए 1965 के अलबामा मार्च पर बनी ‘सेल्मा’ को बेस्ट पिक्चर की कटेगरी में नामांकन मिला था, पर 2015 के मुकाबले बेहतर करने के बावजूद ऑस्कर-2016 में फिल्मों की प्रमुख श्रेणियों-बेस्ट एक्टर, एक्ट्रेसे, पिक्चर और डायरेक्शन में किसी अश्वेत को नामांकन तक नहीं मिला.2015 और 2016 के ऑस्कर में नॉमिनेशन का वोटाधिकार अकादमी के क्रमशः 6028 और 6,114 सदस्यों को रहा,जिनमें औसतन 94 प्रतिशत सदस्य ही श्वेत समुदाय से रहे और इनमें 77 प्रतिशत पुरुष रहे. इन दोनों ऑस्कर पुरस्कारों ने साबित कर दिया कि गोरा समुदाय अश्वेतों के प्रति काफी हद तक अनुदार हो चुका और वह उन्हें पुरस्कृत व सम्मानित करने की मानसिकता खो चुका है.

नरेंद्र मोदी के अमेरिकन क्लोन डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिकियों में साईक में आये इस बदलाव को पढ़ा और अपना चुनावी नारा बनाया -‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ अर्थात अमेरिका को फिर से महान बनाओं.इस नारे के जरिये उन्होंने सन्देश देने की कोशिश किया है कि अमेरिका अपने अल्पसंख्यकों की भारी भरकम उपस्थिति के कारण महानता की श्रेणी से स्खलित हो गया है.हम सत्ता में आयेंगे तो अमेरिका इन बाधाओं से पार पा लेंगे.मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को परवान चढ़ाने के लिए उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान सिर्फ और सिर्फ गोरों के हित के एजेंडे पेश किये.ऐसा कर ट्रंप ने अमेरिकी प्रभुवर्ग की सुप्त नस्लीय भावना को फिर से भड़का दिया. है.फलतः आठ नवम्बर को जब चुनाव परिणाम सामने आया,देखा गया कि ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ हिलेरी क्लिंटन के नारे ’स्ट्रांगर टुगेदर’ पर बहुत भारी पड़ा है.  

बहरहाल ढेरों कमियों और सवालों के बावजूद ट्रंप उतने चिंता के विषय नहीं हैं,चिंता का विषय है अमेरिकी प्रभुवर्ग की सोच में आया बदलाव.इससे उनमें विविधता को सम्मान देने की भावना का विलोप सा हो गया है. ट्रंप अधिक से अधिक आठ साल राष्ट्रध्यक्ष रहेंगे. मुमकिन है उनके जाने के बाद कोई बेहतर आदमी राष्ट्रपति बन जाय.किन्तु अमेरिकी प्रभुवर्ग की सोच में जो दुखद बदलाव आया है उसमें अगर फर्क नहीं आया तो शक्ति के स्रोतों (आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, शैक्षिक इत्यादि) में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिम्बन के जरिये दुनिया को सुन्दर बनाने के प्रयास को भारी आघात लगना तय है. तब अमेरिका की कुल आबादी में प्रायः 70 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले गोरे अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए नए-नए ट्रंपों को चुन कर अल्पसंख्यकों के हितों कुठाराघात करते रहेंगे. बहरहाल भारत के लिए ट्रंप की विजय का यही सन्देश है कि यदि बहुजन नेतृत्व शक्तिसंपन्न अल्पजन वर्ग की बेरहमी से अनदेखी कर अपना एजेंडा सिर्फ बहुजन हित पर केन्द्रित कर दे तो बेहद कम संसाधनों में भी सत्ता पर कब्ज़ा जमा सकता है,जैसे अराजनीतिक डोनाल्ड ट्रंप ने राजनीति के माहिर खिलाड़ी हिलेरी क्लिंटन के मुकाबले आधी धनराशि खर्च करके भी चुनाव में हैरतंगेज विजय हासिल कर ली.  



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