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24.12.16

व्यवस्था-परिवर्तन और जनमुक्ति का मार्ग सिर्फ़ और सिर्फ़ जन-क्रान्ति से होकर ही जाता है

देश में आज भी ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है जो 1947 में मिली आजादी को केवल सत्ता-हस्तान्तरण और अधूरी आजादी मानते हैं। ऐसे ही समान विचार वाले कुछ व्यक्तियों ने 2006 में दिल्ली से 'तीसरा स्वाधीनता अभियान' शुरू किया। जिनमें डॉ. राकेश रफ़ीक, गोपाल राय (वर्तमान में दिल्ली सरकार में मंत्री), मैं स्वयं व कुछ अन्य साथी शामिल थे। अपने विचारों का व्यापक प्रचार-प्रसार करने व समाज को जोड़ने के निमित्त इस अभियान ने सितंबर, 2007 से 'तीसरा स्वाधीनता स्वर' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरभ किया, जिसके संपादन का दायित्व मुझे सौंपा गया। बाद में इस अभियान से जुड़े प्रो. जगमोहन सिंह (शहीद-ए-आजम भगतसिंह साहब के भांजे) को राष्ट्रीय प्रमुख और ईश्वर चंद्र त्रिपाठी (मप्र. में सर्वोदय व किसान आन्दोलन के प्रमुख कार्यकर्ता) तथा डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट (अल्मोड़ा) को इसका राष्ट्रीय संगठक बनाया गया।


इसी बीच देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने के लिए वर्ष 1857 में हुई जनक्रांति के 2007 में 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष में केन्द्र सरकार ने अनेक कार्यक्रम आयोजित किये। इसी सिलसिले में 1857 की जनक्रांति के अंग्रेज मृतकों को 31 मई के ऐतिहासिक दिन श्रद्धांजलि देने इंग्लैंड से उनके 150 परिजन भारत आये, जिन्हें उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य अतिथि का दर्जा देकर उनके कार्यक्रम मेरठ, झांसी, उन्नाव, कानपुर, आगरा आदि शहरों में रखे। लेकिन हमारे सचेत साथियों व जनता के कड़े विरोध के चलते उन्हें मेरठ से ही वापस लौटना पड़ा।

इसके पहले 31 मई के दिन दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने हमें तो किसी भी प्रकार के कार्यक्रम के आयोजन की अनुमति नहीं दी, लेकिन जब हमें पता चला कि अंग्रेजों को वहाँ एक गोष्ठी की इजाजत दी गई है, इस पर हमारी तीखी प्रतिक्रया के कारण हमें भी कुछ शर्तों के साथ अनुमति दे दी गई। और हमने वहाँ एक अच्छा आयोजन किया जिसमें मेधा पाटकर, योगेन्द्र यादव, स्वामी अग्निवेश, बनवारी लाल शर्मा आदि समेत जन-सरोकारों से सम्बद्ध अनेक विख्यात समाजसेवी सम्मिलित हुए।    

देश को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त करने के लिए हुई 1857 की जनक्रांति में मारे गये अंग्रेजों और उनके पक्ष में युद्ध करते मरने वाले कतिपय भारतीयों की स्मृति में बने 'इंडिया गेट' को भारतीय संप्रभुता के लिए लज्जाजनक मानते हुए उसे वहाँ से हटाने की कोशिश अनेक बार हो चुकी है, हमने भी की, लेकिन विगत 69 वर्षों में किसी भी सरकार ने इसकी जरूरत महसूस नहीं की और मामला अब तक जस का तस है।

इसके अतिरिक्त सरकार से हमारी मांग थी कि 1857 तथा उसके बाद 90 वर्ष तक हुए आजादी के संघर्ष में शामिल सभी देशसेवकों को स्वाधीनता संग्राम सेनानी माना जाये, लेकिन सरकार सन 1919 से पहले के लोगों को स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती। इसके अतिरिक्त अंग्रेज शासक जॉर्ज पंचम की स्तुति में लिखे 'जनगण मन अधिनायक जय हो' के स्थान पर 'वंदेमातरम्' को राष्ट्रगान घोषित किया जाये। अंग्रेजों के बनाये अनेक कानून हटा कर उनके स्थान पर देश की जरूरत के अनुसार नये कानून लाये जायें।

तीन साल तक निरंतर संघर्ष करते हुए यह देखा कि लोग हमसे सैद्धान्तिक रूप से तो सहमत होते लेकिन व्यवस्था परिवर्तन के लिए कूद पड़ने को कोई तैयार नहीं होता। सबकी सोच यही देखी--'देश को भगत सिंह-आजाद की नितांत अवश्यकता है, लेकिन उन्हें मेरे घर नहीं किसी अन्य के यहाँ जन्म लेना चाहिए।' लोगों को क्रिकेट, सिनेमा, उद्योग-व्यापार, राजनीति आदि क्षेत्रों में चमकती संतान चाहिए, उन्हें सुभाष बोस, विवेकानन्द, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, अशफाक उल्ला खां, बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त आदि जैसी औलाद की जरूरत नहीं।

यही वह मूल सोच है जिसके कारण देश में व्यवस्था-परिवर्तन को कोई जन-क्रान्ति नहीं हो पा रही है। इसीसे नेता-उद्योगपति-नौकरशाह का लुटेरा गठजोड़ नहीं टूट पा रहा है। इसीके शोषण व अत्याचारों के बोझ तले दबे देश के एक अरब से भी अधिक लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम का चीत्कार कर रहे हैं, जिनकी मुक्ति और व्यवस्था-परिवर्तन का मार्ग सिर्फ़ और सिर्फ़ जन-क्रान्ति से ही होकर जाता है--नाsन्यपंथा विद्यतेsयनाय।

श्यामसिंह रावत
वरिष्ठ पत्रकार
ssrawat.nt@gmail.com

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