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28.9.20

त्रिवेंद्र चचा, क्या गरीब के बच्चे को डाक्टर बनने का हक नहीं?

- क्या प्राइवेट मेडिकल कालेज में भी अमीर का बच्चा और सरकारी में भी अमीर का बच्चा ही पढ़ेगा डाक्टरी?
- बांड सिस्टम समाप्त कर गरीबों के डाक्टर बनने का सपना चकनाचूर


कोरोना काल में मनुष्य जाति को स्वास्थ्य और स्वच्छता कर्मियों की अहमियत का आभास हो गया है। उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत किसी से छिपी नहीं है। पहाड़ चढ़ने को कोई डाक्टर तैयार नहीं है। कोरोना महामारी के दौरान अधिकांश लोगों की आर्थिक स्थिति खराब हो चुकी है। मध्यम और गरीब वर्ग के लाखों लोग बेरोजगार हो चुके हैं। व्यवसाय भी प्रभावित हैं। ऐसे में गुजर-बसर की चुनौती है। प्रदेश सरकार दून और हल्द्वानी मेडिकल कालेज में एमबीबीएस की फीस चार लाख रुपये प्रति साल वसूल रही है। अब ऐसे में क्या कोई गरीब का बच्चा डाक्टर बन सकेगा? यह सवाल किसी के भी जेहन में आ सकता है। सवाल यह है कि जब कोई डाक्टर बनने के लिए 50 लाख से एक करोड़ रुपये खर्च करेगा तो वो क्यों पहाड़ चढ़ेगा? क्या प्राइवेट मेडिकल कालेज में भी अमीर का बच्चा पढ़ेगा और सरकारी में भी वही पढ़ेगा? गरीबों के सपनों का क्या होगा।


अक्टूबर पहले सप्ताह में नीट का रिजल्ट आएगा। गरीब बच्चों ने डाक्टर बनने के लिए अथक मेहनत की है। वो नीट में पास भी हो जाएंगे लेकिन उनके परिवार को नींद नहीं आ रही है कि आखिर वो चार लाख प्रतिवर्ष की फीस कहां से लाएंगे? एमबीबीएस फर्स्‍ट ईयर के जिन बच्चों ने पिछले साल किसी तरह से फीस भर दी थी उन्हें अब दूसरे साल की फीस भरने के लाले पड़ रहे हैं। कई बच्‍चों के अभिभावकों ने अपनी जमीन और घर तक गिरवी रख दिए हैं।

त्रिवेंद्र सरकार ने छोटे-छोटे घरौंदों में पल रहे डाक्टर बनने के सपनों को चकनाचूर कर दिया है। पहले हल्द्वानी, दून और श्रीनगर मेडिकल कालेज में बांड सिस्टम था। और फीस महज 70 हजार रुपये। लेकिन त्रिवेंद्र सरकार ने दून और हल्द्वानी मेडिकल कालेज में बांड व्यवस्था समाप्त कर दी और अब यहां के ये मेडिकल कालेज देश में सबसे अधिक फीस वसूली करने वाले सरकारी कालेज बन गए हैं।

आपको बता दें देश के नामी कालेजों में शुमार मौलाना आजाद मेडिकल कालेज दिल्ली की फीस 15 हजार तो केजीएमसी लखनऊ की फीस लगभग 80 हजार है। इसके अलावा पटना मेडिकल कालेज की फीस 61 हजार, वाईएस परमार नाहन की फीस 60 हजार, एसएन मेडिकल कालेज आगरा की फीस 32 हजार तो पटियाला मेडिकल कालेज की फीस 80 हजार है। मेरठ के एलएलएम कालेज की फीस दो लाख तीन हजार है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या उत्तराखंड के मेडिकल कालेज इन नामी-गिरामी मेडिकल कालेजों से भी अधिक प्रख्यात हो चुके हैं।

गौरतलब है कि 2010 में जब नि:शंक सरकार थी तो एमबीबीएस की फीस महज 15 हजार थी जो कि अब चार लाख हो गई है। इस आधार पर पिछले दस साल में एमबीबीएस की फीस पिछले दस साल में लगभग 300 गुणा बढ़ गई है, जबकि हकीकत यह है कि यहां के मेडिकल कालेजों में न तो ढंग की सुविधाएं हैं और न ही अच्छी फैकल्टी। गुणवत्ता के आधार पर हमारे मेडिकल कालेज सबसे फिसड्डी कालेजों की श्रेणी में आते हैं।

[वरिष्‍ठ पत्रकार गुणानंद जखमोला की फेसबुक वॉल से साभार]

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