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30.6.23

केपी सिंह-

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारत को भी झकझोरेगा
अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ताजा फैसले में काॅलेजों के एडमिशन में अश्वेतों को आरक्षण को गैरकानूनी बता दिया है। भारत में भी एक प्रभावशाली मुखर वर्ग आरक्षण के प्रावधानों के खिलाफ लंबे समय से मोर्चा खोले हुये है जिसे अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत उत्साहित करेगा।

अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय पीठ द्वारा बहुमत से दिये गये इस फैसले में कहा गया है कि भले ही एक समय अश्वेत छात्रों को काॅलेज में एडमिशन के लिये न्यायपूर्ण रहा हो लेकिन अब इसे जारी रखने की तुक नहीं है। भेदभाव समाप्त करने के नाम पर लागू की गयी इस व्यवस्था में खुद ही भेदभाव के तत्व हैं क्योंकि इसमें यह देखना पड़ता है कि एडमिशन लेने वाला छात्र किस नस्ल का है - श्वेत या अश्वेत। जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट का अभिमत यह रहा कि आरक्षण की परिधि में श्वेत छात्र का प्रवेश विचारणीय नहीं होता जो उसके साथ अन्याय का द्योतक है। 

अमेरिका में विशेष अवसर के सिद्धांत को सकारात्मक कार्रवाई का नाम दिया गया था ताकि पहले नस्लीय भेदभाव के कारण अश्वेत हर अवसर में दरकिनार कर दिये जाते थे जिससे काॅलेजों, प्रशासन, प्राइवेट नौकरियों आदि में एक ही पक्ष को स्थान मिल पाता था उसमें एकरूपता आ सके। मतलब यह है कि इसके पीछे कोई नकारात्मक भावना न होकर समाज में विविधता को संजोने की सकारात्मक ललक निहित रही। यह टर्म बेहद सदभावपूर्ण था और अभी तक इस पर अमल जारी था। पूर्व रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाॅल्ड ट्रम्प ने अपने अनुदारवादी रूझान के तहत कई फैसले किये जिनमें से एक में उन्होंने अमरीकी सुप्रीम कोर्ट मे 3 जड़वादी न्यायाधीशों की नियुक्ति कर दी। इसका प्रभाव यह हुआ कि अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट से ऐसे फैसले आने शुरू हो गये जो उसकी प्रगतिशील दिशा को पलटने वाले थे। काॅलेजों के एडमिशन में आरक्षण को समाप्त करने वाली बैंच में भी 6 अनुदार जज शामिल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर वहां बटी हुयी प्रतिक्रिया सामने आयी है। पूर्व राष्ट्रपति डोनाॅल्ड ट्रम्प ने जहां इसका स्वागत किया है वहीं वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन ने इस पर असहमति जताई है। 

लेकिन अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्थानीय प्रभाव तक सीमित नहीं है। समूचा विश्व समाज इससे आंदोलित होने वाला है। भारत में लोग यह समझते है कि आरक्षण के प्रावधान सिर्फ उनके यहां लाद दिये गये हैं जबकि अन्य देश इससे मुक्त हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। जब मानवता के पैमाने पर समूचे विश्व समाज को तौले जाने की प्रवृत्ति जाग्रत हुयी तो ग्लोबल आॅर्डर इसी अनुरूप व्यवस्थित हुआ। नस्ल, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के आधार पर वंचित बनाये गये वर्गों के साथ न्याय के लिये विशेष अवसर के सिद्धांत का प्रवर्तन हुआ जिसके तहत कई देशों में भेदभाव के शिकार वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया। भारत में वर्ण व्यवस्था के दुराग्रह सर्वाधिक कठोर थे इसलिये आजादी की लड़ाई के समय प्रबल हुयी नैतिक चेतना के चलते समाज के अगुआ वर्ग में भेदभाव से पीड़ितों के प्रति सहानुभूति का भाव उमड़ा और इन वर्गों द्वारा अपने अधिकारों के लिये किये जा रहे आंदोलनों के प्रति उन्होंने सकारात्मक दृष्टिकोंण अपनाया। जाहिर है कि यहां अफरमेटिव एक्शन अमेरिका की तरह सृजित न होकर स्वतः स्फूर्त था। यह अजीब विरोधाभास है कि भारत में रेनेेसां का उभार गुलामी के दौर के समय देखने में आया जबकि स्वदेशी शासन में उत्तरोत्तर पुनरूत्थान के भाव जोर मारने लगे। वैसे यह भी एक सच है कि आज सारी दुनिया रूढ़िवाद की लहर का सामना कर रही है। अमेरिका में डोनाॅल्ड ट्रम्प इसी के प्रतिबिम्ब थे। भारत में भी यह प्रवृत्ति आज चरमोत्कर्ष पर है।

2014 के बाद से ही भारत में वर्ण व्यवस्था की पैरवी का दौर शुरू हो गया था। जिसके तहत वंचितों को अपमान का पात्र ठहराये जाने को जायज माना जाने लगा था। भाजपा मुख्य धारा की पार्टी है इसलिये उसके सामने इसके कारण असमंजस की स्थिति बन गयी थी। जो तत्व उसकी वर्ग सत्ता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे भाजपा उनके खिलाफ भी नहीं जा सकती थी लेकिन दूसरी ओर खुलेआम हठधर्मियों के साथ भी खड़ी नहीं हो सकती थी। उसे एकतरफा माहौल बनने तक सब्र करने की जरूरत का एहसास था। इसलिये उसने पहले आरक्षण को खत्म करने वालों के दबाव के प्रतिकार का आभास कराया लेकिन व्यवहारिक स्तर पर वह उनके अनुकूल कार्य करती रही। लेटरल इंट्री जैसी व्यवस्थाओं से उसने आरक्षण को निष्प्रभावी करने के लिये चोर दरवाजा खोला। कई विभागों में भर्तियों में आरक्षण को चकमा दे दिया। इस बीच उसके समर्थक संत धर्मभीरूता के एहसास को गहराते रहे। उन्होंने वंचितों में यह भावना भरने की कुशलता दिखायी कि अच्छे अवसरों से वंचित रहना उनके लिये ईश्वरीय नियति है। नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन ने प्रतिपादित किया था कि शोषण के चक्र के पुराने होने के साथ शोषित वर्ग यह अनुभव करने के लिये विवश हो जाता है कि उत्पीड़न और भेदभाव को सहना ही उसका जीवन है। उसके अंदर इसके प्रतिरोध तक की इच्छाशक्ति समाप्त हो जाती है, विद्रोह तो बहुत दूर की बात है। आज स्थिति कुछ इसी तरह की है।

आरक्षण विरोधी तबके ने 2014 के शुरूआती वर्ष में जो तेवर दिखाये थे रणनीति के तहत उसने इसे बदल दिया था। उसे विश्वास हो गया था कि सत्ता में बैठे उसके चंद्रगुप्त आरक्षण को ठिकाने लगाने के अपने कर्तव्य को निश्चित रूप से अंजाम तक पहुंचायेंगे। आरक्षण की व्यवस्था एक प्रतीक है जो स्थापित करती है कि देश के बहुसंख्यक वर्ग को लंबे समय तक अन्याय का शिकार बनाया गया वरना वंचितों के पास भी योग्यता और पुरूषार्थ कम नहीं है। विशेष अवसर के सिद्धांत से इसको प्रस्फुटित किया जा रहा है जिससे देश की पूरी आबादी की क्षमताओं का लाभ उसे मिलेगा और  यह देश के लिये अत्यंत फायदेमंद होगा। इस स्थिति के तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले आरक्षण की प्रतिबद्धता से मुकरने का मतलब वर्ण व्यवस्था के औचित्य को सिद्ध करना है और यही होने का अवसर आ गया है।

2024 के लोकसभा चुनाव के बाद विशेष अवसर के प्रावधानों को वापस लिये जाने की पूरी उम्मीद वर्ण व्यवस्था की समर्थक ताकतों की थी और तब तक वे सब्र करने के लिये अपने को मानसिक रूप से तैयार किये हुये थे लेकिन अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उन्हें जैसे नया हांैसला दे डाला है। वैसे तो पूरे विश्व में इसका प्रभाव पड़ने की संभावना जतायी जा रही है लेकिन भारत में तो निर्णायक बदलाव का जोश ठाठें मार सकता है। हालांकि लोकसभा चुनाव के पहले तक सरकार के सामने इधर कुंआ उधर खाई की स्थिति बन सकती है क्योंकि वह न तो आरक्षण समर्थकों को नाराज करने का जोखिम मोल ले सकती है और न ही आरक्षण समर्थकों से एक सीमा से आगे दुराव कर सकती है। आखिर बहुसंख्यक जनता तो वंचित वर्ग से है। यह दूसरी बात है कि बहुसंख्यक होते हुये भी इस वर्ग में पर्याप्त चेतना नहीं है, धर्मभीरूता सर्वाधिक है और दूसरे वह दूसरे वर्ग का जितना मुखर भी न होने से बहुत प्रभावी नहीं है। सामाजिक न्याय के आंदोलनों की धार भी इस बीच बहुत भौथरी हो चुकी है। 

वैसे सरकार और जिस वर्ग सत्ता पर वह टिकी है दोनों ही बहुत हुनरमंद हैं। आंखों से अंजन चुरा ले जाने में उन्हें महारथ हांसिल है इसलिये 2024 तक आपदामोचन का कोई प्रबंध वे कर लें तो आश्चर्य न होगा। लेकिन अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की ध्वनि इतनी असरदार है कि भारत में जल्द ही इसके तख्तापलट जैसे परिणाम घटित होंगे।
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