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30.6.23

इमरजेंसी की ज्यादतियों का सच और वर्तमान दौर

केपी सिंह-

भारतीय राजनीति में वर्तमान दौर गड़े मुर्दों के विमर्श का दौर है। इसी रिवाज के कारण इमरजेंसी की दफन हो चुकी चर्चा फिर सतह पर ला दी गयी है। जबकि आज की नयी पीढ़ी को इमरजेंसी में कोई रूचि नहीं होनी चाहिये थी। उसने न इमरजेंसी को देखा है न भोगा है। उसने जब होश संभाला था तब के बहुत पहले इमरजेंसी की चर्चा बंद हो चुकी थी। पर 2014 के बाद इमरजेंसी का प्रेत एकदम से जिंदा किया गया। इसकी चर्चा से आज कई मतलब साधे जा रहे हैं। कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व को भी इमरजेंसी का बहुत अनुभव नहीं है लेकिन फिर भी उसे इस चर्चा से अपराध बोध में धकेलने में सहूलियत देखी गयी है। दूसरे वर्तमान सत्ता पर लोकतंत्र को कुचलने का जो आरोप तीव्रता से उछाला जाता है उसकी भी काट इमरजेंसी का मुद्दा कर देता है।


आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के सबसे काले दौर के रूप में इमरजेंसी का चित्रण इन वर्षों में बहुत जोर शोर से किया गया है। इसकी चर्चाओं से जो धारणा बनती है उसके तहत होना तो यह चाहिये था कि दमन की उस समय की तथाकथित इन्तहा को झेलने की वजह से भारतीय समाज कई दशकों तक कांग्रेस को सत्ता के नजदीक न फटकने देने के लिये कृत संकल्प होता लेकिन वह तो ढ़ाई वर्ष में ही सत्ता बदलने के प्रयोग को लेकर पछतावे की मुद्रा में आ गया और 1977 में जनता पार्टी के लिये पलक पांवड़े बिछा देने वाले भारतीय आवाम ने 1980 आते आते ही अपनी सोच बदल ली और भारी बहुमत से कांग्रेस को फिर अपना कंठहार बना लिया। उसने इमरजेंसी के अत्याचार की दंत कथाओं को इतनी जल्दी क्यों नकार दिया यह एक यक्ष प्रश्न है। दूसरी इमरजेंसी को लेकर दुविधा में डालने वाली एक और बात है कि इमरजेंसी तो पूरे देश पर लादी गयी थी फिर दक्षिण भारत के लोगों को इस पर एतराज क्यों नहीं हुआ था। 1977 के चुनाव परिणाम बताते है कि इमरजेंसी के कारण उत्तर भारत में तो कांग्रेस का सफाया हुआ लेकिन दक्षिण भारत में उसके समर्थन पर कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। इस अंर्तविरोध की पड़ताल भी इमरजेंसी को लेकर सही नतीजे पर पहुंचने की अनिवार्य शर्त के रूप में देखा जाना चाहिये।

नरेन्द्र मोदी ने जब बागडोर संभाली थी तब अनुशासन के मोर्चे पर देश की स्थिति बहुत खराब थी। अराजक शक्तियों को कानून का कोई भय नहीं था। कर्मचारियों की यूनियनें अपने वर्गीय हितोें को देश के व्यापक हितों के ऊपर मानते हुये हठधर्मी दिखा रही थी। भ्रष्टाचारियों और काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चलाने वालों के मामले में सरकार असहाय हो चुकी थी। ऐसे में लोगो ने एक दृढ़ इरादे वाले नेता के रूप में मोदी का वरण इसलिये किया कि वे कुछ समय के लिये आर्थिक आपातकाल लगाने जैसा कदम भी उठा सकते हैं और हड़तालों को सीमित अवधि के लिये प्रतिबंधित कर सकते हैं। अगर वे ऐसा करते तो लोग इसका विरोध करने की बजाय इसके स्वागत के लिये तत्पर दिख सकते थे। लेकिन आज उनकी लोकतांत्रिक निष्ठा को लेकर लोगों में संदेह का वातावरण बन रहा है जो उनकी टीआरपी गिरने का कारण बनता जा रहा है उसकी वजह क्या है। जाहिर है कि लोग जिन कारणों से उन्हें लोकतंत्र कुछ समय के लिये स्थगित करने की छूट देने को तैयार थे उन स्थितियों में और आज उनके द्वारा लोकतांत्रिक मामलों में दिखाये जा रहे अनुदार रवैये के बीच गुणात्मक अंतर है।

वाम दल भी अजीब पाखंड करते है। क्रांति को लेकर उनकी सैद्धांतिकी में चरम परिणति के पहले सर्वहारा की तानाशाही का चरण का आना तय है। यह उनकी घोषित स्थापना है। फिर इमरजेंसी के मामले में सिरे से उनके विरोध पर उतर आने की क्या तुक है। क्या इस बुर्जुआ लोकतंत्र को जिसमें न्याय वही प्राप्त कर सकता है जिसके पास सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ने के लिये वकील को लाखों रूपये की फीस भरने का माददा हो अन्यथा गरीब आदमी के सामने अपनी किस्मत का रोना रोते हुये चुप हो जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है वाम विचार धारा जन पक्षधर ठहरा सकता है।

1975 में इमरजेंसी भले ही निजी स्वार्थ की रक्षा के लिये लगाई गयी हो लेकिन इसे नैतिक ठहराने की गरज से जिन उद्देश्यों के लिये मोड़ा गया वे गौरतलब होने चाहिये। इमरजेंसी में तस्करों, काला धन रखने वालों आदि निहित स्वार्थों के खिलाफ प्रभावी अभियान छेड़ा गया था, शहरों के सुंदरीकरण के मामले में अतिक्रमणकारी अराजक शक्तियों के खिलाफ कड़े कदम उठाये गये थे, सरकारी कार्यालयों में रिश्वतखोरी पर काफी हद तक अंकुश लगा दिया गया था, अपराधों पर भी सरकार के खौफ के कारण कारगर नियंत्रण हो गया था। जमाखोरों को पस्त करके आम महंगाई को थामने में भी इस दौरान सराहनीय काम हुआ था। वाम विचारधारा जिन उद्देश्यों के लिये सर्वहारा की तानाशाही के चरण का औचित्य साबित करती है उनका काफी हद तक निर्वाह करने की कोशिश इंदिरागांधी ने की थी। गरज यह है कि वे शुरू से ही सोवियत संघ से प्रभावित और प्रेरित थी और शासन प्रणाली में उसका अनुसरण करने की कोशिश करती थी। इसलिये जहां इमरजेंसी को राजनीतिक बिरादरी के लिये एक बड़ा अभिशाप माना जा रहा था वहां निरीह जनता के एक वर्ग में इस वरदान के रूप में भी शायद देखा गया था।

हालांकि आम जनता के साथ भी इस दौर में ज्यादतियां हुयी लेकिन सही बात यह है कि अखबारों पर पाबंदी व अन्य अनुचित नियंत्रण के कारण लोगों में अपने प्रति गुस्सा पैदा करने वाली इन करतूतों की जानकारी सरकार को नहीं हो पायी। परिवार नियोजन के लिये इस दौर में चलाया गया अभियान जो एक बहुत सही कदम होना चाहिये था सरकार की बदनामी का सबसे बड़ा कारण बना। अधिकारियों को इसके टारगेट सौंपे गये थे जिनकी पूर्ति के लिये उन्होंने बहुत बेढ़गेपन से काम किया। कई कुंवारों तक की नसबंदी कर दी गयी। नसबंदी के दौरान लापरवाही में हुयी कुछ मौतों के कारण भी सरकार को इससे बहुत ज्यादा अपयश मिला। संजय गांधी की समानांतर सत्ता ने भी बड़ी मनमानिया की जिनकी चर्चा के आगे उनके पांच सूत्रीय रचनात्मक अभियान के प्रतिफल नष्ट हो गये। इंदिरागांधी सत्ता से अपदस्थ होने के बाद ही इन करतूतों से अवगत हो पायीं। उधर उन्हें हराकर सत्ता से बाहर करने के बाद जब लोगों का कोप शांत हुआ तो उन्हें ठंडे दिमाग से इमरजेंसी की स्थितियों के बारे में सोचने का मौका मिला। जनता पार्टी के शासन में बहुत जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि सत्ता परिवर्तन की क्रांति प्रीमेच्योर थी जिस कारण वैकल्पिक शक्तियों के रूप में जिनका चुनाव किया गया या तो वे कुटिल मानसिकता की षडयंत्रों में माहिर राजनीतिक तत्व थे या सत्ता के लुटेरे वे कबीलाई लोग जिनसे लोकतंत्र के कल्याण की उम्मीद करना बेकार था सत्ता के सिंहासन पर पहुंच गये थे। ऐसे में कमजोर तबके का मर्दन होना स्वाभाविक था जो जगजीवन राम द्वारा अनावृत की गयी प्रतिमा का गंगा जल स्नान से शुद्धीकरण करना, बेलछी कांड, आगरा में जाट जाटव संघर्ष आदि घटनाओं के रूप में सामने आया इसलिये ऐसी प्रतिगामी शक्तियों को सत्ता से हटाने के लिये आवाम फिर आतुर हो उठा और मात्र ढ़ाई वर्ष में कांग्रेस शासन की पुनरावृत्ति इसी का नतीजा रही।

वर्तमान में गरीबों पर उन्हें पक्के मकान दिये जाने, मुफ्त राशन, मुफ्त गैस कनैक्शन मुहैया कराने जैसी तमाम मेहरबानियां की जा रहीं है लेकिन दूसरी ओर सार्वजनिक संसाधन लुटाकर, नियमों और कानूनों की टांग तोड़कर अदानी जैसे पूंजी और एकाधिकार के महादैत्य पनपाये जा रहे हैं तो यह नहीं कहा जा सकता कि इस निजाम की लोकतांत्रिक मर्यादाओं से परे जाने के पीछे सर्वहारा की भलाई की कोई मंशा है। इसलिये शासन की वर्तमान निरंकुशता और तत्कालीन आपातकाल के बीच कोई तुलना नहीं होनी चाहिये। ऐसे विमर्श के पीछे जनता की भलाई का मकसद न होकर वस्तु स्थिति से लोगों का ध्यान बटाने का प्रयास है।

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