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28.6.23

बौद्धिक जागरण का उदगाता गीत प्रेस

 डाॅ मयंक मुरारी-


गीता प्रेस गोरखपुर को इस बार वर्ष 2021 के गांधी शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से गीता प्रेस गोरखपुर को गांधी शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता के रूप में चुनने का फैसला किया गया। संस्कृति मंत्रालय ने इस चयन को लेकरघोषणा में बताया कि गीता प्रेस ने 100 साल में लोगों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने की दिशा में काफी सराहनीय काम किया है। इस घोषण के साथ ही कांग्रेस की ओर से इस पर अनावश्यक विवाद खड़ा कर दिया गया, जो सर्वथा अनुचित था। गीता प्रेस गोरखपुर को लागत से कम मूल्य में धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जाना जाता है। गीता प्रेस सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए बौद्धिक जागरण का यह पुनीत कार्य पिछले 100 साल से करता आ रहा है। विरोध के बाद गीता प्रेस गोरखपुर की बोर्ड मीटिंग में तय हुआ है कि इस बार परंपरा को तोड़ते हुए सम्मान स्वीकार किया जाएगा, लेकिन पुरस्कार के साथ मिलने वाली धनराशि नहीं ली जाएगी। जानकारी के मुताबिक, बोर्ड की बैठक में तय हुआ है कि पुरस्कार के साथ मिलने वाली एक करोड़ रुपये की धनराशि गीता प्रेस स्वीकार नहीं करेगा।
गीता प्रेस के कल्याण पत्रिका के संपादक रहे हनुमान प्रसाद पोद्दार उर्फ भाई जी को भारत रत्न देने का प्रस्ताव तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद की ओर से रखा गया थाए तब तत्कालीन गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत गोरखपुर में भाई जी से मिलकर भारत रत्न देने की बात कहीं थी, तब भी उसे ठुकरा दिया गया था। आज जब पुनः विरोध के स्वर उठ रहे है, तो यह स्मरण करना अनिवार्य हो जाता है कि गीता प्रेस भारतवर्ष में सामाजिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का पहरूआ संस्था रहा है। गीता प्रेस का गठन जयदयाल गोयनका, घनश्याम दास जालान और हनुमान पोद्दार ने गोरखपुर में सन 1923 में किया था। गीता प्रेस के गठन का एकमात्र लक्ष्य सनातन धर्म का संरक्षण, संवर्द्धन और संपोषण करना था। गीता प्रेस पिछले एक साल से सनातन एवं शांत बहती सरिता की तरह है, जिसने भारतीय समाज को बौद्धिक, आत्मिक और जैविक समाज के रूप में बदला है। गीता प्रेस नहीं होती, तो आज भारतीय समाज को अपने अतीत और अपने धरोधर को बचाने के लिए संघर्ष करना पडता। पिछले एक सदी से देश में संस्कृति और परंपरा की शाश्वत धारा प्रवाहित कर रही है, जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों के साथ, अहिंसा, सदाचार, देशनिर्माण एवं आयुर्वेद, योग और अध्यात्म को सिंचित, पुष्पित और पल्लवित किया गया है। 
भारत में कोई ऐसे बौद्धिक संस्था नहीं है, जो निःस्वार्थ भाव से पिछले सौ साल से संास्कृतिक मूल्यों में अपना अवदान कर रही हो। जब हिंदी में पत्रिकाएं और संस्थाओ की ओर से वाद और समूह में तथाकथित साहित्यकारों को जोड़कर अपनी औचित्यता सिद्ध किया जा रहा है, तब भी यह संस्था सीमित संसाधनों में अपनी विचारधारा एवं मूल्यों की पताका को फहरा रही है। साहित्य मंे जब संस्था और पत्रिका अपनी किताब और रचना बेचने के लिए पाखंड, व्यूर-चना और स्कीम चलाते हो, उस दौर में भी बिना सहयोग और विज्ञापन की यह पत्रिका अपनी यश और कीर्ति की पताका को लगातार फहरा रही है। गीता प्रेस से कल्याण पत्रिका एवं विशेषांक का प्रकाशन 1927 में शुरू हुआ और वर्तमान में इसका प्रिंट ऑर्डर 250,000 (2012 में) तक पहुंच गया था। गीता प्रेस अभिलेखागार में भगवद् गीता की 100 से अधिक व्याख्याओं सहित 3,500 से अधिक पांडुलिपियाँ हैं। कल्याण ( हिन्दी में ) 1927 से प्रकाशित होने वाली एक मासिक पत्रिका है। इसमें विचारों और अच्छे कार्यों के उत्थान को बढ़ावा देने वाले विभिन्न धार्मिक विषयों पर समर्पित लेख हैं। पत्रिका में भारतीय संतों और विद्वानों की रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती हैं। कल्याण-कल्पतरु (अंग्रेजी में) भी एक मासिक है और 1934 से प्रकाशित है। इसकी सामग्री कल्याण के समान है। इनमें से कोई भी पत्रिका कोई विज्ञापन नहीं चलाती।
भारतवर्ष की सांस्कृतिक चेतना का वरेण्य संस्था का नाम गीता प्रेस है। जब भी भारतीय अस्मिता के जागरण का इतिहास लिखा जायेगा, उसमें गीता प्रेस, कल्याण और उसके विशेषांक का नाम शीर्ष की पंक्तियों में होगा। ऐसा संस्थाओं को सम्मान मिलने से सम्मान का मूल्य बढ़ जाता है। जिस संस्था ने भारत रत्न के प्रस्ताव को ठुकरा दिया हो, उस पर आक्षेप लगाना मानो सूरज पर सवाल करना है। गीता प्रेस को सेक्यूलर, प्रगतिशील और वामपंथी साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों से कोई प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। गीता प्रेस के कार्यों का प्रमाण वे लाखों विद्वान और श्रेष्ठजन देंगे, जिनके घरों, अलमारी और पूजा के स्थानों में महाभारत, रामायण, उपनिषद और गीता का सेट मिलेंगे। गीता प्रेस को प्रमाण भारतवर्ष के आध्यात्मिक और धार्मिक जन देंगे जो नवरात्र और अन्य अनुष्ठानों में किताबों का सस्वर पाठ करते हैं। भारतवर्ष क्या है ? हिंदूधर्म क्या है ? यह जानना हो तो गीताप्रेस की चित्रशाला और उसकी किताबें गवाही देंगी। यह कोई संप्रदाय, कोई संगठन और कोई संस्थाओं का प्रचार मंच नहीं है। यह शताब्दियों से शाश्वत बहती राष्ट्रीयता को मुखर करने वाली गंगाजल का नाम है, जिसके बिना भारतीय जनमानस का कर्मकांड, धार्मिक जीवन, अध्यात्म और बौद्धिक चेतना में एक ठहराव आ जायेगा। यह कोई मजहब या विचारों को प्रश्रय देना वाली संस्था भी नहीं है। अगर ऐसा होता, तो महात्मा गांधी से लेकर टैैगोर, तिलक से लेकर विनोबा भावे और आजादी के बाद हरेक महापुरुष एवं आध्यात्मिक संतों की लेखनी में यह प्राथमिकता मंे नहीं होता। यह भारतीयता का उद्गाता संस्था है, जहां किताबें और केवल किताबें बिकती हैं, कोई और वस्तु नहीं। यह हमको आज भी पढ़ना सीखती है, ज्ञान बांटना सीखाती है और ज्ञान के साथ जीवन का आरोहण करना सीखाती है।

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