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15.6.23

नहीं करने का मैं तक़रीर, अदब से बाहर…

पंकज चतुर्वेदी-


कवि केदारनाथ सिंह का कथन है कि मिर्ज़ा ग़ालिब अंग्रेज़ों के भारत में आने के बाद सबसे बड़े भारतीय कवि हैं। उन्होंने मुझसे एक बार कहा कि ग़ालिब ऐसे कवि हैं, जिनके दीवान को आप अपने तकिये के पास रखना चाहेंगे, जो उनकी शाइरी से हो जाने वाली एक अनिवार्य मुहब्बत का सुबूत है। बहुत कम कवियों को यह सौभाग्य हासिल होता है।

आज जिनका भारतीय संस्कृति पर दावा है, वे भले अपनी संस्कृति भूलकर अधिकाधिक अभद्र, उद्दंड और हिंस्र होते जा रहे हों; लेकिन ग़ालिब के लिए संस्कृति का एक साफ़ मतलब यह भी है कि 'अदब का उल्लंघन करके मैं अपनी बात नहीं कह सकता और मर्म को मैं भी जानता हूँ, मगर उसके इज़हार को लेकर मेरे भीतर एक संकोच रहता है।' कहने की ज़रूरत नहीं कि यह संकोच हमेशा एक बड़े रचनाकार की निशानी है :

'नहीं करने का मैं तक़रीर, अदब से बाहर 
मैं भी हूँ वाक़िफ़-ए-अस्रार, कहूँ या न कहूँ'
--
Yashwant Singh
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2 comments:

Anonymous said...

इस शे'र को मैंने तमाम जगह छान मारा, नहीं मिल रहा
किसका शे'र है ये

Anonymous said...

मिल गया मिल गया

गालिब का दीवान ज़रा बारीकी से पलटना पड़ा