Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

9.1.24

12thfail की वास्तविक कहानी और फिल्म में बहुत अंतर है..

विनय जायसवाल-

12thfail की वास्तविक कहानी और फिल्म में बहुत अंतर है. सिनेमा को कभी भी डाक्यूमेंट्री की तरह से नहीं लेना चाहिए. व्यवसायिक फ़िल्मकार, कला फिल्मकार से बहुत अलग होता है. 


व्यवसायिक फ़िल्मकार के सामने फिल्म को बाजार के अनुसार परोसने का दबाव होता है. उसे बाजार के मापदंडों पर खरा उतरना पड़ता है और लागत निकालने के साथ ही मुनाफा भी कमाना पड़ता है. इसीलिए उसे वास्तविक कहानी को बड़े कैनवास के लिए तैयार करना पड़ता है. 

शायद यही कारण है कि विधु विनोद चोपड़ा ने मनोज शर्मा की गरीबी और श्रद्धा के प्यार को ज़रूरत से ज्यादा चढ़ा बढाकर पेश किया है. जिसके दादा और पिता दोनों सरकारी नौकरी में रहे हों और जिनके पास कई बीघा जमीन हो वह उतना भी गरीब नहीं होगा कि फिल्म एक बड़े हिस्से में उसे एक ही कमीज पहने दिखाया जाय. किस गरीब के घर दुनाली बन्दुक होगी? 

फिल्म को रोमांचक बनाने के लिए कई घटनाक्रम क्रिएट किये गए हैं जैसे वास्तविक कहानी में एसडीएम है न कि डीएसपी और उस एसडीएम से मनोज की पहचान अच्छे क्रिकेट कमेंटरी की वजह से है न कि नक़ल रोकने की वजह से. जुगाड़ छोड़वाने वाली कहानी पूरी तरह काल्पनिक है. मनोज एसडीएम के पास जाता ज़रूर है लेकिन वहां एसडीएम जैसा बनने की इच्छा लेकर जाता है. 

इसी तरह मनोज काफी लम्बे समय तक ग्वालियर में रहकर तैयारी करता है और अनुराग पाठक / प्रीतम पांडे से काफी समय से परिचित है न कि एकाएक स्टेशन पर मिलता है. इसी तरह मनोज ने दिल्ली की जगह ग्वालियर में लायब्रेरी और चक्की में काम किया है. श्रद्धा मनोज से कभी चक्की पर मिली ही नहीं है. 

इंटरव्यू का दृश्य भी अतिरंजित है. फ़िल्में वास्तविक कहानियों से बहुत दूर होती हैं. उनसे ज़रूरत भर का मोटिवेशन लेना चाहिए बाकी आँख और कान खुले रखने चाहिए. ऑफिस अधिकारी से लेकर विधायक के चमचे को चप्पल से पीटने, थाने में बन्दुक लाकर गोली मारने की धमकी देना, डीएसपी के बंगले में जबरदस्ती आधी रात घुस जाना, थाने अंदर दरोगा को अर्दब देना कि आईपीएस बनते ही सबसे पहले तुम्हें सस्पेंड करूँगा इत्यादि पूरी तरह फ़िल्मी ड्रामा है, जिसका हकीकत से कोई लेना देना नहीं है. 

इसलिए संभलकर भाई साहब. गैंग ऑफ़ वासेपुर में रामाधीर सिंह ने ऐसे ही नहीं कहा है कि जब तक सिनेमा है लोग चूतिया बनते रहेंगे. 

लेखक SAIL में बतौर AGM कार्यरत हैं.

No comments: