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10.8.08

मौत से हार गई ज़िंदगी, करूणाकर का निधन

यह सब लिखते हुए उंगलियां कांप रहीं हैं पर जो सच है उसे हिम्मत करके कहना ही पड़ेगा।

करूणाकर नहीं रहे।

मौत के आगे हार गई जिंदगी।

हमारी कोशिशें काम नहीं आईं।

आज दोपहर से कुछ पहले करूणाकर ने दर्द की भयानक अवस्था में अंतिम सासें लीं।

मृत्यु से ठीक पहले, भयावह दर्द की अवस्था में अमित द्विवेदी को फोन कर करुणाकर बार बार डा. रूपेश का नाम लेकर उन्हें तुरंत बुलाने का अनुरोध कर रहे थे। इस अचानक उभरे दर्द से स्तब्ध करुणाकर के परिजनों ने भी डाक्टर साहब को तुरंत मुंबई से बुलवाने का अनुरोध किया। इस दिशा में अमित ने पहल शुरू भी की लेकिन तभी सूचना मिली की करुणाकर की सांसें थम चुकी हैं। दर्द की चरम अवस्था में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए।

पिछले महीने भर से करुणाकर अपने गांव में अपने घर पर परिजनों के बीच रह रहे थे। डा. रूपेश तीसरे दौर की दवाइयों के साथ मुंबई से 14 अगस्त को लखनऊ पहुंचने वाले थे। रिजर्वेशन भी आने-जाने को करा चुके थे। पिछले कई हफ्तों से डा. रूपेश करुणाकर के तीसरे दौर के इलाज के लिए दवाओं के निर्माण में लगे थे। पर यह दौर आने से पहले ही मौत ने अपने पाले में करुणाकर को खींच लिया।


दिल्ली में जब करुणाकर के बारे में अमित द्विवेदी के जरिए भड़ास के साथियों को सूचना मिली तब करुणाकर के अकेलेपन, गरीबी और दुख को महससू करते हुए भड़ास के लोगों ने उसके लिए इलाज, दवा और दुवा की व्यवस्था शुरू कराई। यह सब तब किया गया जब एम्स जैसा प्रतिष्ठित संस्थान करुणाकर के मामले में हाथ खड़े कर अगले छह माह में उसकी मृत्यु की घोषणा कर चुका था। हम लोगों ने मौत के सामने घुटने टेक देने की बजाय जिंदगी के लिए जद्दोजह कर रहे करुणाकर के साथ खड़े होने का ऐलान किया। दूर-दूर के अनजान और कई जान-पहचान वाले साथियों ने करुणाकर के लिए आर्थिक मदद देने के साथ साथ उसे जल्द स्वस्थ होने और एक बेहतर जिंदगी के लिए शुभकामनाएं दीं। डा. रूपेश ने मुंबई से आकर इलाज शुरू किया और पहले दौर के इलाज में जो दिक्कतें करुणाकर को हुआ करती थीं, उसे दूर किया। दूसरे दौर का इलाज चल रहा था। तीसरे दौर की तैयारी थी। इसी बीच करुणाकर के पिता जो जेल में थे, उन्हें भड़ास के साथियों और शुभचिंतकों ने अपने प्रयास से जमानत पर रिहा कराया और करुणाकर को अपने परिजनों के साथ रहने का मौका उपलब्ध कराया।

करुणाकर से डा. रूपेश और अमित द्विवेदी रोजाना घंटों बात करते थे। करुणाकर की सेहत कभी स्थिर, कभी बेहतर तो कभी खराब हो जाया करती थी। कुल मिलाकर जो स्थिति थी, उसमें आशा की किरण नजर आ रही थी क्योंकि पहले जिस तरह की दिक्कतें करुणाकर को हुआ करती थीं उससे अब वह मुक्त हो चुके थे पर आज सुबह उठे भयंकर दर्द ने कुछ सोचने और करने से पहले ही करुणाकर को सदा के लिए दर्द मुक्त करा दिया। एक ऐसी मुक्ति जिससे हर एक को रु-ब-रु होना होता है पर करुणाकर तो अभी जीवन का पहले दौर ही ठीक से जी न सके थे।

गरीब परिवार के इस बेहद प्रतिभावान बच्चे को उसके घरवालों ने खेत बेचकर और एजुकेशन लोन लेकर पढ़ाने के लिए नोएडा के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कालेज में भेजा था। बीमारी की अवस्था में करुणाकर ने पिछले सत्र में जो परीक्षाएं दी थीं उसमें उन्होंने काफी अच्छे नंबर हासिल किए। इससे पता चलता है कि गुदड़ी का यह लाल जिंदगी में कितना आगे जाता। उसके अपने सपने थे। इंजीनियर बनकर वह मां पिता के अरमान को पूरा करना चाहता था। अपने परिजनों को बेहद गरीबी के दलदल से निकालकर सुख के कुछ पल देना चाहता था। पर करुणाकर को खुद कहां पता कि वो बजाय सुख दे पाने के, अपने परिजनों के लिए सदा के लिए दुख दे गया, इस दुनिया को अलविदा कहकर।

मृत्यु जो दुनिया का सबसे बड़ा भय माना जाता है, दुनिया का सबसे अंतिम और सबसे पहला सच माना जाता है, ने इस बच्चे को ही क्यों चुना। क्यों नहीं वो मुझे उठा ले गया जिसका मैं सदा इंतजार करता हूं क्योंकि इस दुनिया में रहना एक तरह से अब अनुभवों को दोहराना ही है। जिंदा रहते हुए हम सब जो कुछ कर रहें हैं वो ऐसा कुछ नहीं है जिसके लिए जिंदा रहा जाए। आखिर एक कोंपल, एक सपने को ही क्यों मौत ने चुना जिसको अभी बहुत कुछ बनना, करना, जिम्मा उठाना था।

प्लीज, करुणाकर अभी तुम कहीं से लौटकर आ जाओ। किसी चमत्कार की तरह। कह दो कि तुम ठीक हो चुके हो और अब जिंदगी की नई पारी शुरू करने जा रहे हो....। तुम आ जाओ....चले आओ.....।


मेरे लिए निजी तौर पर यह पूरा अभियान एक बेकार अभियान की तरह रहा जिसमें हम कोशिश करके भी करुणाकर को बचा न सके। डा. रुपेश को फोन किया तो वे बिलकुल चुप रहे। चुपचाप हम दोनों फोन पर दस मिनट तक एक दूसरे के होने और एक दूसरे के हार जाने के एहसास और अवसाद से बावस्ता होते रहे। क्यों हार जाते हैं हम, क्यों हारना ही हमारी नियति है। इसलिए कि हम गांव के हैं, देहात के हैं, गरीब हैं, देसज हैं, हिंदी वाले हैं, संसाधनविहीन हैं.....। हमारे सपने हमारे आदर्श हमारे कदम सब कुछ सच से भरा होता है पर जब हम इस देश दुनिया समाज और सिस्टम से अपने लिए थोड़ा सा सुख, थोड़ी सी खुशी मांगते हैं तो मिलती है तनहाई, उपेक्षा, अकेलापन, अवसाद, हिकारत, घृणा और अंततः मृत्यु। पैसे वाला मरकर भी जिंदा हो जाता है, गरीब जिंदा रहकर मर जाता है। और ये दिक्कत बढ़ती जा रही है।


पटना के सुनील जी जो पिछले कई वर्षों से अपनी बीमारी से लड़ते हुए इतना टूट चुके हैं कि पिछले दिनों जब दिल्ली आए तो एम्स की हालत और यहां के खर्चे देखकर मौत को ही बेहतर बताने लगे। एक ईमानदार, सच्चा, अंतर्मुखी पत्रकार जिसने जीवन में कभी किसी से एक चवन्नी का धोखा न किया हो, जिसने हमेशा निष्ठा और ईमानदारी को ही जीवन का आदर्श माना, अब उस हालत में है जहां उसकी परछाई तक उसका साथ छोड़ने के लिए तैयार है क्योंकि वो व्यक्ति बेहद पीड़ा व दुख में है। सच कहूं, मैं सुनील गौतम जी से मिलने तक नहीं गया। ये मेरी बेईमानी है लेकिन मैं मिलकर भी क्या करता। उनके दुखों को फोन पर जितना सुना उससे मैं खुद को भी बीमार पाने लगा। लगने लगा कि यशवंत, ये जो तेरी देह है, उसके अंदर जाने कितने रोग पनप रहे हैं और एक दिन वो जब बाहर दिखने लगेंगे तो तू भी इन्हीं के राह पर चल पड़ेगा। तब तेरे सैकड़ों हजारों जो चाहने वाले और जानने वाले हैं वो फोन तक नहीं उठायेंगे। और तू जिंदगी के अवसाद में मानसिक संतुलन खोकर चल बसेगा। शायद इन्हीं मनःस्थितियों के चलते उनसे मिलने नहीं गया। किसी के लिए कुछ न कर पाने की लाचारी। आखिर करुणाकर के लिए ही हम लोग क्या कर सके। कुछ हजार पैसे इकट्ठे करा दिए, पिता को मिलवा दिया, एम्स ने हाथ खड़े किए तो एक साथी डाक्टर से इलाज शुरू करा दिए.....। पर डर और दहशत तो अंदर में पहले दिन से थी। एक हड्डी पर खड़ा करुणाकर का ढा्चा कब ढह जाएगा, इसकी आशंका पहले दिन से थी। पर यह मन का चोर कभी हावी नहीं पाया। हम गरीब लोग चमत्कार पर भरोसा करते हैं जो अक्सर होता नहीं। न देवता कभी खुश होता है और न कभी इस देश के दैत्य। दोनों नाराज रहते हैं। तो जाहिर सी बात है कि चमत्कार इस जन्म में नहीं ही होता है तो फिर हम अगले जन्म में सब बेहतर हो जाने की सोचकर मन ही मन चमत्कार को पूजते रहते हैं।

करुणाकर के मामले में हम सभी भड़ासियों ने चमत्कार की ही उम्मीद की थी। डा. रूपेश तो पूरी तरह आशान्वित थे कि इसका बाल भी बांका न होगा। हो सकता है वो अंदर से सच्चाई को जान रहे हों पर उन्होंने हम आम आदमियों को समझाने, हिम्मत रखने और मनोबल उंचा रखने के मकसद से यह सब कहा हो। पर उनका कहा अच्छा लगता था। मन में विश्वास होता था कि चमत्कार होगा।


पता नहीं क्या लिखे जा रहा हूं। समझ में नहीं आ रहा। शायद ये भी मेरी मन की भड़ास है। एक ऐसी पीड़ादाई भड़ास जो अंदर से बाहर निकलते वक्त सही से शब्द तलाश नहीं पा रही। जितना कुछ पकड़ में आ रहा, उतना उगल रहा।

साथियों, मैं निजी तौर पर शर्मिंदा हूं। करुणाकर के न होने पर। मैंने पहली बार जीवन में किसी की जिंदगी के लिए इतनी शिद्दत से कोशिश की और वह नहीं बचा। इसके पहले बीएचयू में जब आइसा और सीपीआईएमएल के लिए काम करता था तो जाने कितने बीमार दुर्घटनाग्रस्त गरीब कामरेडों का इलाज कराया और उन्हें ठीक भी कराया। वो चाहें आधी रात में आया हुआ केस हो या फिर आंधी तूफान में। तुरंत और सही इलाज मिलने के साथ उनकी किस्मत और मेरी किस्मत भी साथ देती रही। सब ठीक होते गए। दुवाएं देते गए। मैं बीएचयू के मेडिकल कालेज में मरीजों की भीड़ में फिर किसी नए मरीज के इलाज में लगा रहता। मरीजों को देखते देखते, उनकी पीड़ा को महसूस करते करते मैं एक बार तो मानसिक रूप से बीमार हो गया। दुनिया में सिर्फ दुख ही दुख समझ में आने लगा। तो मैं एक दिन बीएचयू से भाग निकला। कुछ अच्छे और स्वस्थ लोगों को देखने की खातिर। पर कोई खुद से कब तक भाग सकेगा।

करुणाकर हमारे बीच जिंदा था। दो महीने से उसके लिए प्रयास कर रहे थे। मैंने तो कुछ नहीं किया। पत्रकार अमित द्विवेदी और डा. रूपेश के लिए तो करुणाकर का स्वास्थ्य एक मिशन की तरह था। अब जबकि करुणाकर हमारे बीच नहीं है, मैं खुद आज महसूस कर रहा हूं कि हम लोगों के होने की सार्थकता क्या है। वही भीड़भाड़, चोरी, बेईमानी, ठगी, उठाईगिरी, तरक्की, प्रमोशन, नौकरी, पैसा, रुपया। जाने कितने लोग मर जाते हैं, पर हम मस्त रहते हैं क्योंकि जो मरा होता है उससे हमारा कोई भावनात्मक नाता नहीं होता। पर दो महीनों में करुणाकर के साथ जिस तरह का मानसिक रिश्ता हो गया था उसमें उसका चले जाना अंदर से तोड़ रहा, कचोट रहा है। हार जाने का एहसास हो रहा है। शरीर से किसी हिस्से के न होने जैसा घाव महसूस हो रहा है।

आइए कुछ औपचारिकताएं पूरी करते हैं....किसी काइंया जिंदा मनुष्य की तरह ....

करुणाकर की आत्मा को श्रद्धांजलि
करुणाकर के परिजनों को ईश्वर यह आघात सहने की ताकत दे
करुणाकर गया नहीं, वो हमारी स्मृतियों में सदा जिंदा रहेगा
जब तक सूरज चांद रहेगा, करुणाकर तेरा नाम रहेगा
....................क ख ग घ .................

..................अ ब स.....................

......x t z,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


क्या कर सकते हैं हम लोग इसके सिवा। पर मन में एक इच्छा जरूर है। करुणाकर नामको अमर करने का। वो कैसे होगा। नहीं मालूम। पर भड़ास, भड़ास4मीडिया और हम भड़ासियों से करुणाकर शब्द दूर नहीं होना चाहिए, इसके लिए मैं निजी तौर पर कुछ न कुछ जरूर करुंगा, ये मेरा वादा है।

जय करुणाकर, जय भड़ास
यशवंत

11 comments:

हिन्दी के लिक्खाड़ said...

भाई यशवंत जी
करुणाकर की दर्द भरी कहानी दिल को हिला गई। करुणाकर जीवित है। क्योंकि....

मौत को कुछ न मिला चंद अनासिर के सिवा,
जिंदगी यहीं है कहीं आई न गई।।

डॉ. भानु प्रताप सिंह

जगदीश त्रिपाठी said...

यशवंत भाई,जंग में कौन जीता.यह महत्वपूर्ण नहीं है.महत्वपूर्ण यह है कि जंग लड़ी कितनी शिद्दत से लड़ी गई.मृत्यु एक शाश्वत सत्य है.अंत में जीत मौत की होती है.आज हो कल.रत्नाकर जिस बहादुरी से लड़ा,वह एक मिसाल है.उसके जीवट को प्रणाम करते हुए हमारी विनम्र श्रद्धांजिल

Suresh Gupta said...

बहुत दुःख हुआ यह पढ़ कर. ईश्वर उन की आत्मा को शान्ति प्रदान करें.

मयंक said...

शब्द नही है ...... बस आंसू ही व्यक्त कर सकते हैं पीड़ा को !

Anonymous said...

दादा आपके इस ख़बर ने बहुत आहत किया है लेकिन उपरवाले की मर्जी के सामने हम कर भी क्या सकते हैं. करुनाकर के लिए भड़ास परिवार ही नही बल्कि अन्य लोगों ने भी यथासम्भव प्रयास किया कि काल के क्रूर पंजे से करुनाकर को निकाल कर दम लेंगे.मगर....अफ़सोस एक बार फ़िर जिन्दगी मौत के सामने घुटने टेकने पर मजबूर हो गयी.
करुनाकर को श्रधांजलि के साथ उसके शोक संतप्त परिवार को सांत्वना के साथ
मनीष राज

विशेष कुमार said...

प्लीज, करुणाकर अभी तुम कहीं से लौटकर आ जाओ। किसी चमत्कार की तरह। कह दो कि तुम ठीक हो चुके हो और अब जिंदगी की नई पारी शुरू करने जा रहे हो....। तुम आ जाओ....चले आओ.....। ये शब्द कह रहे हैं कि आप कितने दुख में हो। सही कह रहे हैं आप , हम औपचारिकताएं ही पूरी करते हैं....किसी काइंया जिंदा मनुष्य की तरह ....

करुणाकर की आत्मा को श्रद्धांजलि
करुणाकर के परिजनों को ईश्वर यह आघात सहने की ताकत दे
करुणाकर गया नहीं, वो हमारी स्मृतियों में सदा जिंदा रहेगा
जब तक सूरज चांद रहेगा, करुणाकर तेरा नाम रहेगा
...........क ख ग घ ........

..........अ ब स.........

आनंद said...

आपने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की। कामयाब नहीं हो पाए। इसे हार मानकर दिल छोटा न करें। आपने प्रयास किया, लोगों को जोड़ा, क्‍या यह कुछ नहीं?

और हाँ, एक-एक कर हम सबका नंबर आना है। किसी का पहले, तो किसी का बाद में।


- आनंद

अनिल भारद्वाज, लुधियाना said...

May God give peace to the departed soul.

shyam parmar said...

karuna karan gaye nahi hai, hamaare dilo me bas gaye hai, mene pahli baar online logo ko apne ek aise saathi ki madad karte huye dekhaa jise kuch to shaayad jaante bhi nahi the... is tarah karuna karan ne ham logo ke beech madad ki jo bhaavna paida ki hai vo hamesh unki yaad dilaati rahegi....

Anonymous said...

दादा,
ना जिन्दगी हारी, और ना ही हम हारे हैं. हाँ लडाई में हमने अपने एक सपूत खो दिए, मगर इसका अफ़सोस नही क्यूंकि करुनाकर एक दिया जला गया, इश्वर से प्रार्थना की इस दिए को जलते हुए रखना. अपने साथी को खोते हुए भी हम अपनी लड़ाई जारी रख सकें.
जय करुनाकर
जय भड़ास

विशाल अक्खड़ said...

zindagi ki jang men ek aur shaheed...