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7.3.09

कदम पहचान के




अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, महिलाओं के पास कितने मुद्दे हैं, मगर मेरे पास कोई मुद्दा नहीं है। ऐसा नहीं है कि मैं किसी सामाजिक सरोकार से दूर हूं। मगर सोचती हूं कि लिंग भेद, काम-काज में समानाधिकार, महिला आरक्षण, सामाजिक सुरक्षा आदि को लेने के बाद भी क्या नारी यत्र नारी पूज्यन्ते रमंते तत्र देवता: के गरिमामय दौर में जा सकेगी? जब महिलाओं पर हुए राष्ट्रीय सर्वेक्षण ही बताते हैं कि महिलाएं अपने पतियों से प्रताडि़त होने में अपना सम्मान महसूस करती हैं,

तो इन मुद्दों पर लड़ना बेमानी ही है।
आज परिदृश्य बदल गया है, नारी की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कई प्लेटफार्म बन गए हैं यानी हर मुद्दे का अलग प्लेटफॉर्म। पर जिस नारी को उत्थान चाहिए, वे उन प्लेटफॉमों से कोसों दूर हैं और जो प्लेटफॉर्म के समीप हैं, वे नारी-उत्थान के जरिए मात्र कमोडिटी बन रही हैं। वे भी क्या करें फ्रायड की साइकोलॉजी का खेल है सारा। ये किसी साजिश से कम नहीं आंकी जा सकती। वैसे नारी तो हमेशा से स्वतंत्र थी, उसके पैर में वो पतली जंजीर थी, जो संस्कार और परम्परा के नाम पर उनके पैरों में बेडि़यों की तरह डाली गई थी, ठीक जैसे हाथी के पैर में डाल दी जाती है उसकी साइकोलॉजी को बांधे रखने के लिए। जब-जब नारी ने इस जंजीर को तोडा, वे जिस दिशा में गयी वहां रोल मॉडल ही बनी हैं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी स्थिति किसी प्रोडक्ट से कम नहीं है, वे ब्रांड बन गयीं है ... चाहे वह किसी मल्टीनेशनल कंपनी के सर्वोच्च पद पर हो, या अंतरराष्ट्रीय मीडिया का या फिर पॉलिटिकल लीडर. अगर उन्हें दिल कहता है यही रास्ता है गरिमा पाने का तो ठीक है वर्ना ये समाज को और टुकडों में बाँट देगा ..एक सामान्य उदाहरण है नदी.
नदी के वेग को रोक कर जीवनपयोगी काम किये निकलते हैं , मगर जब नदी बाँध को तोड़ती है रिजल्ट अच्छे तो नहीं निकलते
यहाँ एक बात गौर करने की है कि नारी का कदम किस ओर हो और कैसे पड़े?


life is like a snow sheet and every mark will show how U have proceed...

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