कल्पना करिए, एक बार की मेहनत और उसके बाद घर बैठे एक लाख रुपये प्रति महीने की आमदनी। असंभव लग रहा है ना। लेकिन है मुमकिन। बस, बंदे को दिल मजबूत कर उतरना पड़ेगा मैदान में। दरअसल, जिस जगह मैं काम कर रहा हूं वहां कुछ प्रमुख शहरों जैसे मेरठ, कानपुर, देहरादून, लखनऊ, वाराणसी, आगरा, चंडीगढ़, लुधियाना, जयपुर, भोपाल, इंदौर...आदि में कंपनी के लिए काम करने वाले कुछ ऐसे बंदे चाहिए जो फ्रेंचाइजी के रूप में काम कर सकें। वे अपनी बात अच्छे से रख सकें, सामने वाले को प्रभावित करने के साथ उसे अपना प्रोडक्ट खरीदने के लिए तैयार कर सकें। वे हाइटेक हों, लैपटाप से लैस हों तो ज्यादा अच्छा। ये उनके लिए भी है
सवाल है, प्रोडक्ट है क्या। दरअसल, मोबाइल की दुनिया अब सिर्फ बातचीत की दुनिया नहीं है। इससे जुड़े एक हजार बिजनेस इस समय बड़ी शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। इससे जुड़ी कंपनियां करोड़ों के फायदे में हैं। तो उन्हीं मोबाइल बिजनेस के इस दौर में कुछ नई तकनीक है जो बड़े बिजनेस हाउसेज और शहर के मशहूर लोग तुरंत परचेज कर रहे हैं। जो यह दौर है उसमें हर बड़ा आदमी खुद को ज्यादा आर्गेनाइज और प्लांड रखना चाहता है, उसके लिए वह हर नई तकनालजी को, जो उसके बिजनेस को फायदा पहुंचाए, तुरंत अपनाना चाहता है। यह प्रोडक्ट मोबाइल से जुड़ी ही तकनालजी है। इसे विस्तार से बाद में समझाऊंगा। लेकिन जरूरी सूचना यह है कि हम लोग अब इन शहरों में रहने वाले ऐसे उत्साही, हाईटेक और हाइसोसाइटी से संपर्क में रहने वाले उन बंदों को तलाशने जा रहे हैं जो हमारे लिए काम करें और उन्हें प्रति क्लाइंट 2000 रुपये तक मिलेंगे। मतलब, अगर एक बार एक क्लाइंट बना लिया तो वह क्लाइंट जब तक बना रहेगा, बंदे को 2000 रुपये मिलता रहेगा। इसका मतलब हुआ, एक बार मेहनत करके पचास क्लाइंट बना लिया तो दो लाख रुपये हर महीने मिलते रहेंगे, दुबारा बिना मेहनत किए। इसमें कोई छिपा एजेंडा नहीं है। कोई सेक्योरिटी मनी नहीं है। ट्रेनिंग व कम्युनिकेशन स्किल के गुण व गुर कंपनी की तरफ से मुहैया कराया जाएगा। यह जरूरी नहीं कि यह काम कोई नौजवान ही करे, शिक्षक, डाक्टर, वकील, छात्र...कोई भी जो चाहता हो अपनी किस्मत खुद बनाना, वो यह काम कर सकता है।
यह प्रस्ताव खासतौर पर मैं उन बंदों के लिए रख रहा हूं जो बेहद महत्वाकांक्षी हैं, अपने तरीके से अपनी दुनिया बनाना चाहते हैं, जिन्हें 10-12 घंटे की मेहनत के बदले कुछ हजार रुपये महीने कमाने की जद्दोजहद की जगह अपना काम शुरू करने की तमन्ना हो, इस समय अपनी पूरी ऊर्जा और प्रतिभा के होते हुए भी दरकिनार किए जाने सा महसूस कर रहे हों......
कृपया ऐसे लोग जरूर संपर्क करें....मेल करें........मिलने आएं........
मेरी नई मेल आईडी व मोबाइल नंबर है...
yashwant.singh@livem.in
mobile... 09999330099
call time 1 pm to 8 pm)
कुछ लोगों को जरूर लग सकता है कि यशवंत ने पिछले दिनों मेगा वेबसाइट बनाने की बात कही थी, अपना बिजनेस शुरू करने की बात कही थी, अब जबकि कहीं फिर नौकरी कर ली, नए आफर के साथ हाजिर हो गया...तो मेरा यही कहना है कि सब कुछ एक ही दिशा में जा रहा है, बस रास्तें अलग-अलग दिख रहे हैं। बिना मजबूत अनुभव और आधार के कोई नया काम सफल नहीं हो सकता। इसलिए अनुभव की दुनिया से नया कुछ निकालने के लिए नया काम कर रहा हूं जिसमें सौ फीसदी सफलता की गारंटी है। यहां से जो अनुभव रूपी अमृत हासिल होगा, वो भविष्य में काफी काम आएगा। हां, इसके साथ अगर मुझसे जुड़े या मेरे चाहने वाले सैकड़ों साथियों का भी भला हो जाए तो कोई हर्ज नहीं।
फिलहाल इतना ही
यशवंत
31.10.07
आपके लिए भी लाया हूं आफर.....
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 3 comments
30.10.07
लो, फिर नोकरी करने लगा......
एक महीने तक बेरोजगारी का दुख-सुख झेलने के बाद काम पे लग गया। एक मोबाइल कम्युनिकेशन कंपनी में मीडिया और बिजनेस हेड के बतौर। आईटीओ पर आफिस है। फिर चल पड़ी है गाड़ी। दोस्तों-मित्रों का साथ काम आया। भरोसा और तसल्ली देने के साथ हर तरह के सुख-दुख में कंधे से कंधा मिलाकर चलने की उनकी इच्छा से मैं अभिभूत रहा। चलिए, लगा, दिल्ली में सिर्फ बेदिल वाले ही नहीं रहते। दिल वाले हैं तभी तो दिल्ली है। कहा था ना, रहिमन दुख हो भला जो थोड़े दिन होय.....वाकई इस बार के दुख (या सुख) ने मुझे फिर से मनुष्यों को समझने की दृष्ठि दी है। जो आपके ज्यादा अरीब-करीब दिखते हैं, मौका पड़ने पर वही सबसे पहले मूतते हुए भागते नजर आते हैं। काम आते हैं वो लोग जो आपको लगता नहीं कि आपके नजदीक हैं लेकिन वो दिल से आपके नजदीक होते हैं, आपकी हरकतों में भले न शामिल होते हों।
खैर, ये बेरोजगारी पुराण यहीं बंद। काफी यंग एंग्री मैन टाइप काम कर लिया जिंदगी में। काम कम, चूतियापा ज्यादा। दोस्त ज्यादा बने, जिंदगी ज्यादा जी, पद ज्यादा बढ़ाया, तनख्वाह भी बढ़ती रही, शहर बदलता रहा...हां, लेकिन बैंक बैंलेंस नहीं बना। सहजता के साथ जिंदगी का सुख लेता रहा। दुखों को चुनौती मानता रहा। मुश्किलों के वक्त अंदर से खुद को मजबूत करता रहा। इनसे फायदा मिला। खूब मिला। संघर्षों के रास्ते लगातार आगे बढ़ते रहने से अनुभवों की जो पूंजी जुटी है, वो अंदर से काफी मजबूती प्रदान करती रहती है। संभवतः जिंदगी को इतने बिंदास और इतने नजदीक जाकर देखने और जीने का मौका बहुत कम ही मिल पाता है। अब इन सबसे मन भर गया लगता है। पता नहीं क्यों, शांति और सुकून की दरकार ज्यादा महसूस हो रही है।
दोस्तों और मित्रों ने मुझे काफी समझाया बुझाया है। डा. मांधाता सिंह ने एक प्यारा सा पत्र भेजकर मुझे आगाह किया है कि यशवंत भाई, लाल रंग से रिश्ता तोड़ लो। मेरे खयाल से लाल रंग से उनका आशय दारू से ही है। मुझे अच्छा लगा कि कोई आदमी इतनी खरी खरी कहने की हिम्मत रखता है। मैं मांधाता जी को शुक्रिया देने के साथ भरोसा दिलाता हूं कि दरअसल मेरा भी मन लाल रंग से भर चुका है और उसको लेकर अब कोई उत्तेजना बची नहीं। लाल रंग ने जिंदगी और करियर में काफी कुछ दिया है तो काफी कुछ नाश भी कराया है। मैंने काफी हद तक इससे तौबा कर ली है। बाकी लंगोटबांध कसम तो नहीं खाया है क्योंकि मेरा अनुभव रहा है कि कसम खाओ तो साली टूटती जरूर है।
मैं उन सभी दोस्तों और मित्रों को दिल से साधुवाद देना चाहूंगा जिन्होंने मेरे साथ खड़े होकर मुश्किल वक्त में मेरा साथ दिया और हौसला बढ़ाया।
फिर मिलेंगे।
यशवंत सिंह
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 10 comments
21.10.07
जाहिलों के नये गाँव (नगर) से
बड़ा आसान है आसानी से जीना
हमारे, आपकी खातिर
लेकिन जाने क्या है वो
जो कहती रहती है...
बेटा, तड़प ताकि तुझे
दर्द का एहसास हो
जाने क्यों बना हुवा हूँ बेचैन भारत
पर जाने कौन कहता है...
तेरे ही गाँव में पड़ोस में रहता हूँ
दक्षिण टोला में
देखता है न, मेरा घर
जाने कितने दिनों में, चढ़ती है
हांडी....
लेकिन ये क्या चूतियापा है
मैं तो छोड़ आया सब
बहुत पहले
जब गाँव में चली थी गोली
पानी को लेकर
और मेरी जान जाने को आई थी
तब बाबा ने सिखाया था
जाहिलों की है ये बस्ती
निकल जा तू यहाँ से
पढ़ लिखकर....
लेकिन बाबा,
मैं तो जाहिलों के गाँव से निकलकर
अब चला आया हूँ जाहिलों के नगर
जो अपनी सभ्यता में हगने मूतने को भी
मानते हैं किसी की जान से ऊपर
वो तो पानी की बात थी
यहाँ तो पानी वानी की कोई बात नहीं
सब बेपानी के जिंदा लाश टाइप लोग
कहते हैं मर जावो, पानी वालों
जन्मे ही थे इसीलिए....
पर आपने जब भेज ही दिया था
पानी की जंग से परेशान होकर
तो फिर लड़ लेते हैं एक और
हारी हुयी जंग
बर्मा के बुध्धिष्ठों की तरह
बेपानी वालों से
ताकि ठीक से आता रहे
आपके मेरे गाँव में पानी जहाँ से आप
दुखी होकर मरे थे
और मैं
डर के भागा था
जान बचाने
और जिंदगी बनाने
लेकिन फिर पहुंच गया हूँ जाहिलों के बीच
जंग लड़ने
लेकिन......
जाने अब कौन बचायेगा, भगायेगा.....
जाहिलों के नये गाँव (नगर) से
--यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
20.10.07
अल्लाह जानता है...
बेरोजगारी के दिनों को कैसे काटा जाए? कानपुर में बेरोजगार हुवा था तो घर में खूब खाना पकाना किया करता था. बच्चा लोग के साथ फ़िल्म देखने में जुटा रहता था. आजकल भी यही कर रहा हूँ. पिछले दो-तीन दिनों में तीन फिल्में देखीं. लज्जा, वेद और कम्पनी. ये सारी पुरानी फिल्में हैं जिन्हें मैंने देखी नहीं थी. तीनों को ही ढेर सारी सराहना दी मैंने. क्या फिल्में हैं. लगता रहा जैसे कोई उपन्यास पढ़ रहा हूँ. महिलावों पे लज्जा, गुजरात दंगों पे वेद और अंडरवर्ल्ड पे कम्पनी. इनसे इतना कुछ जानने सिखने को मिला की क्या बताऊँ. बीबी बच्चों के साथ किसिम किसिम के खाना खाने और बनाने का स्वाद बहुत दिनों बाद मिला.
सोचता हूँ कि आख़िर बेरोजगारी के दिनों में ही इतने चैन से क्यों जी पाता हूँ. नौकरी करते हुवे इस तरह जीता हूँ जैसे सब कुछ भागा जा रहा हो और मैं पीछे छूटने वाला हूँ. दारु को भी आजकल मुंह नहीं लगा रहा. ये घटना पिछले तीन दिनों की है. घर और बाहर कितनी शान्ति महसूस हो रही है. बिल्कुल सहज जीवन.
इन दिनों में मुझे आदमी को फिर से पहचानने की कोशिश करनी पड़ रही है. कितने स्वार्थी हो गए हैं रिश्ते. खाने-पीने तक तो साथ-साथ होते हैं लेकिन उसके बाद अगर कभी कोई दोस्त संकट में पड़ता है तो पीछे झांक कर नहीं देखते. मुझे लगने लगा है कि हम गावं वाले लोग दिल्ली में फिट नहीं हैं. या तो दिल्ली के हिसाब से स्वार्थी और कपट भरा जीवन जीना होगा या फिर दिल्ली छोड़ना होगा. खैर, मैं अभी दिल्ली नहीं छोड़ रहा और कपट भरा जीवन भी नही जीने जा रहा. लेकिन रहिमन दुःख हो भला जो थोड़े दिन होए. वाकई, मैं अभी नादान टाईप आदमी हूँ. थोडी दुनियादारी सीखने में लगा हूँ.
जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं सोचा. भला ही करता रहा. शायद इसी का नतीजा है की मैं अपने जीवन में कभी हारा नहीं, आगे ही बढ़ता रहा. जीतता रहा. हमेशा ऐसे लोगों ने बांह थाम कर पार लगाया जिनसे कभी कोई उम्मीद नहीं रखी थी. जिनसे उम्मीद रखी थी वे सब एन मौके पे स्वार्थी निकले. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है.
जल्द ही एक बार फिर नयी नौकरी की शुरुवात करने वाला हूँ. नई जगह, नया काम और नए तेवर के साथ. इसके साथ ही जीने के नए ढंग को आत्मसात कर रहा हूँ. क्योंकि अब तो हर शख्स कहने लगा है.....भाई सुधर जावो. मुझे समझ में आ रहा है, कितना और कहाँ बिगड़ा हुवा हूँ. ठीक है दोस्तों, अब मैं वाकई सुधर के दिखाता हूँ.
मेरे एक मित्र का फोन आया, यशवंत जी, आपके लिखे में एग्रेसन नहीं दिख रहा है अब? सवाल लाजिमी है, लेकिन भई, एग्रेसन का ठेका यशवंत जी ने ही तो नहीं ले रखा है. कुछ तुम भी तो कह के, कर के दिखावो.
मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक किस्म का इंसान हूँ जो लोगों पे तुरत फुरत विश्वास कर लेता है, सबका भला चाहता है, जो बुरा है उसको तुरंत बोल देता है लेकिन दुनिया तो ऐसी नहीं है. लोग अपनी कुछ हजार कि नौकरियों के लिए किस तरह रीढ़ को घुमा घुमा कर नाचते हैं, वो मैंने देखा है. शायद वो सब कभी मंज़ूर नहीं किया इसलिए लोगों की आंखों में खटकता हूँ. पर मेरा विश्वास है कि दुनिया सरल और सहज लोगों की है और इमानदार लोग इतने ज्यादा हैं कि ख़राब माहौल से परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. खैर, मैंने अपनी भड़ास निकाल ली. काफ़ी हल्का महसूस कर रहा हूँ. आप सभी प्यारे साथियों और भाईयों का शुक्रिया जो अब भी मेरे साथ खड़े हैं.
अंत में एक ग़ज़ल की कुछ लाईनों के साथ अपनी बात ख़त्म करता हूँ....
किस्मत का नाम तो सब जानते हैं लेकिन
किस्मत में क्या लिखा है, अल्लाह जानता है.
बन्दे के दिल में क्या है, अल्लाह जानता है...
ये सुबहो शाम देखो ये धूप छाँव देखो
ये कैसे हो रहा है, अल्लाह जानता है....
एक और....
मैं सच के साथ शाम तक खड़ा रह गया
झूठ एक एक कर बिक गया बाज़ार से.....
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 10 comments
19.10.07
रहिमन चुप हो बैठिये.....
किसी को मारना आसान होता है लेकिन मारकर जिंदा करना बहुत मुश्किल. भड़ास को मूल रूप में जिंदा तो नही किया जा सकता लेकिन पुराने भड़ास की चुनिंदा पोस्टों को डाला जा सकता है. आज मैंने यही महान काम किया.
भड़ास पे कई चुनिंदा पुरानी पोस्टें फिर से डाल दी हैं. हालांकि भड़ास के कम्युनिटी ब्लॉग के रूप में फिर शुरू होने के आसार नही हैं. उस मकसद के लिए एक अलग से हिन्दी डॉट कॉम को लाने पे काम चल रहा है लेकिन भड़ास को एक ब्लॉग के रूप में ज़रुर चलाया जाता रहेगा.
आजकल जीवन के कुछ मुश्किल दौर से गुजर रहा हूँ. इसमे कई ऐसी चीजे हुयी हैं जो काफ़ी सबक देने वाली हैं और आँख खोलने वाली भी. उम्मीद है, जब अपनी आत्मकथा लिखूंगा तब काफ़ी तफसील से इस बारे मे ज़िक्र करूँगा. फिलहाल, अपनी जिंदगी की गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने में जुटा हूँ. भड़ास को भी जिंदा कर हत्या के पाप का प्रायश्चित करने में लगा हूँ. आप सब का प्यार बना रहेगा, ये उम्मीद करता हूँ.
हमेशा की तरह इस बार भी कई साथी मुश्किल वक्त में हाल पूछना गवारा नहीं कर रहे लेकिन गर्व इस बात का है कि ढेरों ऐसे साथी मेरे साथ है जो हर तरह से मदद करने के लिए तत्पर हैं.... तन, मन, धन......सबसे, आप सभी का शुक्रिया.
और अंत में....
रहिमन चुप हो बैठिये देख दिनन के फेर
जब नीके दिन आयेंगे, बनत न लागे देर
यशवंत
yashwantdelhi@gmail.com
9999330099
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 5 comments
यूपी में कभी जरूरत ही नहीं पड़ी डीएल-ऊएल दिखाने की...
आजकल मुसीबत है। मजा भी इसी में है। मुसीबत चुनौती देती है। और चुनौती स्वीकारने पर देनी होती है आत्मविश्वास की परीक्षा। आत्मविश्वास तगड़ा रहे तो मुसीबतें को मार-मार कर पलीता लगाया जा सकता है। अब जैसे एक दिन हुआ क्या कि रात में नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ज्यों मुड़ा वापस आने के लिए, भाई लोगों ने पकड़ लिया। दिल्ली पुलिस की टीम जुटी थी चेकिंग में। सामने नंबर प्लेट न देखकर एक हरियाणवी जवान ने गाड़ी रुकने का इशारा किया। पूछा- नंबर प्लेट कहां है? मैंने कहा- पीछे लगी है। उसने बोला- गाड़ी किनारे करो, आगे भी लगवाता हूं। मुझे लग गया, साले छोड़ेंगे नहीं। खैर, रजिस्ट्रेशन के कागजात तो दिखा दिए पर डीएल खोजे नहीं मिला। यूपी में कभी जरूरत ही नहीं पड़ी डीएल-ऊएल दिखाने की। अगले दिन हालांकि डीएल गाड़ी में ही पड़ा मिल गया लेकिन चार पैग लगाने की वजह से उस समय मैं खोज नहीं पाया। अंत में सबने मिलकर तय किया कि इस गाड़ी वाले ने पांच तरह के नियमों का उल्लंघन किया है। मैंने भले बच्चे की तरह पूछ लिया- अंकल, कौन-कौन से नियम तोड़े हैं मैंने। उन्होंने कहा- पहला- डीएल नहीं, दूसरा- आगे नंबर प्लेट नहीं, तीसरा- मोबाइल पर बात कर रहे थे गाड़ी चलाते हुए, चौथा - म्यूजिक चलाए हो, पांचवां- ड्रिंक किए हो। मैंने सारे अपराध स्वीकार कर लिए क्योंकि ये सभी सच थे। मुझे लगा अब बचना मुश्किल है। उधर से आवाज आई, १० हजार रुपेय जुर्माना और एक साल जेल की सजा का प्रावधान बनता है। सुनते ही नशा हिरन हो गया। स्वामी विकास मिश्रा के वचन याद आए, जहां कोई तरकीब काम न करो वहां शब्दाडंबर पर खेल जाओ। मैंने दरोगा की नेम प्लेग देखी। सरदार जी थे, नाम के आखिर में गिल लिखा था। उम्रदराज थे। मैं बोल पड़ा- गिल साहब, देश में दो ही गिल हुए, एक केपीएस गिल और दूसरे आप। केपीएस गिल साहब ने कर्तव्य निष्ठा, बहादुरी और विजन का जो उदाहरण पेश किया वो एक मिसाल है और देश उन्हें गर्व से याद रखता है। उन्होंने कही किसी दबाव के आगे न झुकते हुए सदा सच्चाई और कर्तव्य के रास्ते पर आगे बढ़े। दूसरे आप हैं- जो बिना किसी दबाव के अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। ऐसे जज्बे को मैं सलाम करता हूं। मुझे खुशी होगी इस सजा को भुगतने में क्योंकि मैं वाकई अपराधी हूं, यातायात कानून तोड़ने के घोर पाप का भागीदार हूं, मुझे जेल भिजवा दीजिए. लेकिन अंकल एक बात सोच लीजिए....मैं अभी नया आया हूं, बास ने बांस किया तो उन्हें छोड़ने स्टेशन पहुंचा था, पहली बार दिल्ली में घुसा था मुझे खुद पता था नियम तोड़ रहा हूं लेकिन मजबूरी थी। और पहली बार किए गए अपराध को अपराध नहीं माना जाता, सुधरने का मौका देकर छोड़ दिया जाता है। रही ड्रिंक करने की बात तो अंकल गांधी के बेटे ने बाप के सिद्धांत को नहीं माना और जमकर दारू पी। आपके बेटे की तरह हूं, आपका बेटा भी पीकर आता होगा, उसे पीने की जुर्म में जुर्माने का शिकार नहीं होना पड़ता होगा, तो फिर मैं भी पुत्र की ही तरह हूं। बाकी आपकी मरजी, जो हुक्म देंगे वह शिरोधार्य होगा।
वो अनुभवी सरदार इस दौरान लगातार लिखता-पढ़ता रहा। मुझसे आंखें नहीं मिलाईं। उसने धीरे से कहा- यहां साइन कर दो। मेरी तो पूरी तरह फट गई। गए बेटा पानी में। झेलो जेल। हो गई पत्रकारिता। अब पीसो जेल की चक्की। बीवी बेटे कल सुबह सुबकते हुए जेल गेट पर मिलने आएंगे। तभी सरदार जी की आवाज आई..बेटा, छह सौ रुपये का जुर्माना करके छोड़ रहा हूं। अगली बार से ध्यान रखना। मैंने तुरंत छह सौ दिए और जुर्माने की रसीद लेकर चला आया। गिल साहब का नंबर ले लिया ताकि इस एहसान के बदले उन्हें धन्यवाद दे सकूं।
अगले दिन ये किस्सा कइयों को बताया तो लोगों ने कहा बेटा सस्ते में छूट गए। सिर्फ मोबाइल पर बतियाते पकड़े जाने पर १५०० रुपये का जुर्माना देना पड़ जाता है।
तो भाइयों, दिल्ली में कभी दारू पीकर और बिना कागज पत्तर के गाड़ी न चलाना वरना मारे जाओगे। मैंने तो भुगत लिया। अब दिल्ली वाली गलियों में नहीं टहलना।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 1 comments
अनकही बात को समझोगे तो याद आउंगा...
कुछ यादों में कुछ ख्वाबों में
कुछ गुज़री उम्र अज़ाबों में
कुछ सहराओं में वक्त कटा
कुछ बीता वक्त गुलाबों में
कुछ आस रही कुछ प्यास रही
कुछ बहती आंख शराबों में
कुछ आये पल बेकारी के
कुछ पाये दर्द किताबों में
कुछ इश्क अना में डूब गया
कुछ किस्मत के जवाबों में
कुछ दिल भी थक कर बैठ गया
कुछ हम भी रहे हिसाबों में
----------------
काग़ज़ कागज़ हर्फ सजाया करता है
तन्हाई में शहर बसाया करता है
कैसा पागल शख्स है सारी सारी रात
दीवारों को दर्द सुनाया करता है
रो देता है आप ही अपनी बातों पर
और खुद को आप हंसाया करता है
-----------------
तुम मेरी आंख के तेवर ना भुला पाओगे
अनकही बात को समझोगे तो याद आउंगा
हमने खुशियों की तरह देखे हैं गम बिकते हुए
सफहा-ए-ज़ीस्त को पलटोगे तो याद आउंगा
इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
किसी मजबूर को देखोगे तो याद आउंगा
हादसे आयेंगे जीवन में तो तुम होंगे निढाल
किसी दीवार को थामोगे तो याद आउंगा
इसमे शामिल है मेरे बख्त की तारीकी भी
तुम सियाह रंग जो पहनोगे तो याद आउंगा
..........................................
रियाज़
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी.........
((छात्र राजनीति के दिनों में जब सांस्कृतिक मोर्चे से जुड़ा था, गोरख पांडेय को खूब गाता था। दस्ता की टीम के साथियों के साथ कुछ वक्त गुजारने को मिला तो उनसे गोरख पांडेय, धूमिल, पाश जैसे कवियों और उनकी जिंदगी के बारे में जानने को मिला। इनकी रचनाओं को नाटकों, गीतों और पोस्टरों को हिस्सा बनाया गया। गोरख की ज्यादातर रचनाओं को हम लोग गाते थे, ढपली के साथ, गांव-गांव में जाकर। कविता पोस्टरों पर लिखकर कैंपस के बाहर-भीतर चिपकाते थे। जब नेट पर गोरख की रचनाओं को देखा तो उनकी एक भोजपुरी रचना को आप लोगों के सामने लेने के लिए बेचैन हो उठा। पढ़िए और बूझिए...जय भड़ास, यशवंत सिंह)
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कविता संग्रह का मुखपृष्ठ: स्वर्ग से बिदाई
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सूतन रहलीं सपन एक देखलीं
सपन मनभावन हो सखिया,
फूटलि किरनिया पुरुब असमनवा
उजर घर आँगन हो सखिया,
अँखिया के नीरवा भइल खेत सोनवा
त खेत भइलें आपन हो सखिया,
गोसयाँ के लठिया मुरइआ अस तूरलीं
भगवलीं महाजन हो सखिया,
केहू नाहीं ऊँचा नीच केहू के न भय
नाहीं केहू बा भयावन हो सखिय,
मेहनति माटी चारों ओर चमकवली
ढहल इनरासन हो सखिया,
बैरी पैसवा के रजवा मेटवलीं
मिलल मोर साजन हो सखिया ।
-गोरख पांडेय
(रचनाकाल : 1979)
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कोई ग़म ना करो...
दर्द कैसा भी हो, आंख नम ना करो
रात काली सही, कोई ग़म ना करो
इक सितारा बनो, जगमगाते रहो
ज़िंदगी में सदा मुस्कुराते रहो
बांटनी है अगर, बांट लो हर खुशी
ग़म ना ज़ाहिर करो तुम किसी पर कभी
दिल की गहराई में, ग़म छुपाते रहो
दुख का सागर भी हो, मुस्कुराते रहो
अश्क अनमोल हैं, खो ना देना कहीं
इनकी हर बूंद है, मोतियों से हसीं
इनको हर ‘रियाज़’ से तुम चुराते रहो
ज़िंदगी में सदा मुस्कुराते रहो
-रियाज़
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सदा देती है खुशबू, चांद तारे बोल पडते हैं।
नज़र जैसी, नज़र हो तो नज़ारे बोल पड़ते हैं॥
तुम्हारी ही निगाहों ने कहा है हमसे ये अक्सर।
तुम्हारे जिस्म पर तो रंग सारे बोल पड़ते हैं॥
महक जाते हैं गुल जैसे सबा़ के चूम लेने से।
अगर लहरें मुखातिब हों, किनारे बोल पड़ते हैं॥
ज़ुबां से बात करने में जहां रुसवाई होती है।
वहां खामोश आंखों के इशारे बोल पड़ते हैं॥
छुपाना चाहते हैं उनसे दिल का हाल हम लेकिन।
हमारे आंसुओं में ग़म हमारे बोल पड़ते हैं॥
तेरी पाबन्दियों से रुक नही सकती ये फ़रियादें।
अगर हम चुप रहें तो ज़ख्म सारे बोल पड़ते हैं॥
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आज मौसम बड़ा बेईमान है
बड़ा बेईमान है आज मौसम
आने वाला कोई तूफान है,
कोई तूफान है, आज मौसम...
क्या हुआ है, हुआ कुछ नहीं है
बात क्या है, कुछ पता नहीं है
मुझसे कोई खता हो गयी हो तो
इसमें मेरी खता कुछ नहीं है
खूबसूरत है तू, रूत जवान है
काली काली घटा डर रही है
ठंडी आहें हवा भर रही है
सब को क्या क्या गुमा हो रहे हैं
हर कली हम पे शक कर रही है
फूलों का दिल भी कुछ बदगुमान है
ऐ मेरे यार, ऐ हुस्नवाले
दिल किया मैने तेरे हवाले
तेरी मर्जी पे अब बात ठहरी
जीने दे चाहे तू मार डाले
तेरे हाथों में अब मेरी जान है
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वो अपने चेहरे में ....
वो अपने चेहरे में सौ अफ़ताब रखते हैं
इस लिये तो वो रुख़ पे नक़ाब रखते हैं
वो पास बैठे तो आती है दिलरुबा ख़ुश्बू
वो अपने होठों पे खिलते गुलाब रखते हैं
हर एक वर्क़ में तुम ही तुम हो जान-ए-महबूबी
हम अपने दिल की कुछ ऐसी किताब रखते हैं
जहान-ए-इश्क़ में सोहनी कहीं दिखाई दे
हम अपनी आँख में कितने चेनाब रखते हैं
--हसरत जयपुरी
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ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
ये कौन आ गई दिलरुबा महकी महकी
फ़िज़ा महकी महकी हवा महकी महकी
वो आँखों में काजल वो बालों में गजरा
हथेली पे उसके हिना महकी महकी
ख़ुदा जाने किस-किस की ये जान लेगी
वो क़ातिल अदा वो सबा महकी महकी
सवेरे सवेरे मेरे घर पे आई
ऐ "हसरत" वो बाद-ए-सबा महकी महकी
--हसरत जयपुरी
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मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं...
(आज दिल्ली में रिमझिम बारिश है, मौसम ठंडा-ठंडा है, ऐसे में कुछ मूड नहीं कर रहा है। लड़ाई-झगड़े की बातें बहुत हो लीं, अब थोड़ा रुमानी होने का मन कर रहा है, बचपन के और गांव के दिन याद आ रहे हैं, जब बरसाती पानी वाली गली में इतनी स्पीड से पैरों से पानी उड़ाते थे कि अगल-बगल वाले गंदे हो जाते थे और वे हमें मारने को दौड़ाते थे फिर हम लोग उसी तूफान गति से भागते थे....उन्हीं दिनों की याद कर गोपालदास नीरज की एक कविता पेश कर रहा हूं....वीर रस में...यशवंत)
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते..
मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते..
सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं..
मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते..
मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे..
तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं..
मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं..
हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से..
सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं..
है नहीं स्वीकार दया अपनी भी..
तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
शर्म के जल से राह सदा सिंचती है..
गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है..
शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है..
मंजिल की मांग लहू से ही सजती है..
पग में गती आती है, छाले छिलने से..
तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
फूलों से जग आसान नहीं होता है..
रुकने से पग गतीवान नहीं होता है..
अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी..
है नाश जहां निर्मम वहीं होता है..
मैं बसा सुकून नव-स्वर्ग “धरा” पर जिससे..
तुम मेरी हर बस्ती वीरान करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
मैं पन्थी तूफ़ानों मे राह बनाता..
मेरा दुनिया से केवल इतना नाता..
वेह मुझे रोकती है अवरोध बिछाकर..
मैं ठोकर उसे लगाकर बढ्ता जाता..
मैं ठुकरा सकूं तुम्हें भी हंसकर जिससे..
तुम मेरा मन-मानस पाशाण करो..
मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं..
तुम मत मेरी मंजिल आसान करो..
---गोपाल दास नीरज
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सुबह का घर लौटा शाम को भूल जाता है.......
रोज सुबह सोचता हूं, साली दारू छोड़ देनी चाहिए, यह चूतियापा कब तक चलता रहेगा। कुछ लिखने-पढ़ने का काम भी करना है, जीवन क्या नौकरी और पीना-पिलाना और मौज करना ही है....??? लेकिन सुबह का घर लौटा शाम को फिर सब भूल जाता है। जाने क्या है यह बला, मुंह को लगी तो छूटती ही नहीं। ढेरों मित्रों, संपादकों, पत्रकारों, परिजनों ने सलाह दी, बेटा दारू कम कर दो, बाकी तो तुम बड़े काम के आदमी हो। मैं कहता हूं- भाई पीता कम हूं, पादता ज्यादा हूं। लेकिन लोगों को बात पचती ही नहीं। वैसे भी प्रिंट मीडिया के इस समय के एक सुपरहिट समूह संपादक ने एक बार एक मुलाकात में (जाहिर सी बात है, नौकरी के चक्कर में कभी गया था मिलने) मुझे साफ-साफ चेता दिया था, पीना बंद कर दो छह महीने तक तभी तुम काम के आदमी साबित होगे। ज्यादा पीने की वजह से देखो तुम्हारी आंखों के नीचे फूला हुआ सा है। ज्यादा पीने से तुम्हारी निर्णय लेने की प्रक्रिया अतार्किक हो गई लगती है.....मैं हक्का-बक्का उन्हें सुनता रहा। अब उन्हें कौन बताए आपने बिना पिए जितने अतार्किक कृत्य अतीत में या वर्तमान में किए हैं, उसकी भरपाई कैसे करोगे। इसी तरह, अब भी सत्ता से सजी महफिलों के कोने-अंतरे में कोई देख न ले के अंदाज जब चार पैग मारते हो तो वो क्या समुद्र मंथन का अमृत पीते हो....लेकिन उनसे कहे कौन? बड़े आदमी हैं, वरिष्ठों ने समझा रखा है- बेटा, मीडिया की छोटी दुनिया होती है, सबसे बना के रखा करो, जाने कब कौन कहां टकरा जाए...। शायद इसी से चुप रह गया और न पीने की कसम खाकर लौट गया। लेकिन मुझे बहुत ग्लानि हुई। आदमी जब उपर जाता है तो उसे कुछ भी बोलने का लाइसेंस मिल जाता है, शायद मै तो बहुत छोटा हूं लेकिन मैंने भी ऐसे बर्ताव किए होंगे कई लोगों से....। खैर, गलतियों का पश्चाताप कर स्वर्ग जाने का रास्ता बनाने की मेरी कोई मंशा नहीं है। हां, तो भई, उनसे तौ मैंने कह दिया कि- हां, छोड़ दूंगा। लेकिन दिक्कत है अकेले तो मैं पीता नहीं, हफ्तों-महीनों गुजर जाएं, यह काम तो नोएडा आते ही कर लिया था। लेकिन अगर दोस्त-यार मिलते हैं तो भी न पिएं। ना बाबा, हमसे ऐसा न होगा। वो स्वामी विकास जी कौन सा शेर सुनाते हैं....जीना हो यदि शर्तों पर तो जीना हमसे ना होगा, महफिल में हो वीरानी तो पीना हमसे ना होगा, माना वो हैं लाखों में और लाखों उनके आशिक हैं, पर हम उनको सर पर बिठा लें, ऐसा हमसे ना होगा, कहो तो खुश करने को कह दूं मेरी दुनिया तुम ही हो, किसी की खातिर दुनियां छोड़ें ऐसा हमसे ना होगा, आप हमें मगरूर समझ लें, आप की मर्जी है लेकिन, सबसे बढ़कर हाथ मिलाएं ऐसा हमसे ना होगा।....(अनुरोध पर स्वामी ने शेर पूरा कर दिया है)। तो मैं कह रहा था कि पत्रकारिता में ढेरों ऐसे हैं जो करते सब कुछ हैं लेकिन जबान से चूं नहीं कहते, कुछ अपन जैसे हैं, करते थोड़ा सा हैं तो गाते दुनिया भर में हैं। अब इसे बड़बोलापन मान लो या दुस्साहस, हम ऐसे ही हैं। किसी के कहने पर क्यों गाना गाएं कि ...मैं ऐसा क्यों हूं....मैं वैसा क्यूं हूं? भई, हम तो ऐसे ही हैं। हालांकि समय और हालात बड़े-बड़ों के गाने का राग बदलने को मजबूर कर देते हैं तो मैं क्या चीज हूं। लेकिन जब पड़ेगी तो देखी जाएगी...फिलवक्त तो जोर से कहो....जय भड़ास...एक और शेर....नासिर काज़मी साहब का लिखा हुआ....मुझे अच्छा लगा...
कितना काम करेंगे, अब आराम करेंगे, तेरे दिये हुए दुख, तेरे नाम करेंगे, अहल-ए-दर्द ही आख़िर, ख़ुशियाँ आम करेंगे, कौन बचा है जिसे वो, ज़ेर-ए-दाम करेंगे, नौकरी छोड़ के "नासिर", अपना काम करेंगे।
अभिषेक द ग्रेट उर्फ मेरठी आए थे दिल्ली...
मेरठ के अपने मित्र और सीनियर जर्नलिस्ट अभिषेक शर्मा नोएडा आए तो गरियाते-दहाड़ते मिलने आ पहुंचे। भाई ने कसम खा रखी है कि मेरठ में कभी नहीं पिऊंगा। इसके सीमा क्षेत्र से बाहर निकलते ही बिलकुल नहीं छोड़ूंगा। सो वह भूखा-प्यास भाई बोतल कांख में दबाए आ गया। स्वामी को भी दूरभाष यंत्र से खबर दी गई। कान में बात पड़ते ही स्वामी कनमनाए और दाब दी फ्रीडम। तयशुदा जगह पर मिले चार यार तो फिर जम गई महफिल। जाम पर जाम, मटन कोरमा (हालांकि स्वामी व अभिषेक जी शाकाहारी हैं लेकिन उनसे ज्यादा लोग मांसाहारी थे) पनीर टिक्का.....और फिर शुरू हुआ बातों का दौर...। बात खत्म न हो। रात बीत रही थी। स्वामी अड़ गए। न हिलेंगे न चुप होंगे। कई तरह की भावनाएं उमड़ीं। सब तृप्त हुए। लगा मेरठ के दिन फिर लौट आए हैं। कमी खल रही थी अपने रियाजुद्दीन की। भाई से नशे की अभिन्न अवस्था में ही हम सभी ने फोनुआ पर बात की। गान भी सुनाया, भाई से भी सुना....अंत में जय भड़ास कर मीटिंग बर्खास्त कर दी गई। इससे एक रोज पहले अपने सचिन बुंदेलखंडी उर्फ नई इबारतें लिखने वाले क्रांतिकारी अपने सत्या-राजपाल जैसे साथियों के साथ आए थे। उस रात भी नोएडा-दिल्ली की सड़कों पर गाड़ी दौड़ती रही।
माचो की तो माचु गई....कंटेंट कोड भी डिकोड हो गया
दो अच्छी खबरें हैं। विशाल ने पहले ही बता दिया। माचो जैसे विज्ञापनों की मा...चु...गई। इसी तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया पर लगाम कसने के लिए जो कंटेंट आफ कोड लाया जा रहा था, प्रसारकों ने उसे डिकोड कर दिया और उसे मानने से पूरी तरह इनकार कर दिया। मतलब, अब यह कानून नहीं बन पाएगा। लेकिन इन दोनों खबरों के पीछे की खबर पर आत्ममंथन तो हम लोगों को ही करना होगा। माचो जितने दिन धड़ल्ले से चल चुका है और उसे सब दर्जनों बार देख चुके हैं, ऐसे में उसे बैन करने से क्या लाभ? कायदे से तो कोई विज्ञापन प्रसारित किए जाने से पहले सेंसर बोर्ड जैसे किसी बोर्ड के पास जाए ताकि उनसे होने वाले नुकसान का पहले से ही आकलन किया जा सके। जैसे फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड है उसी तरह टीवी व प्रिंट विज्ञापनों के लिए भी एक संवेदनशील सेंसर बोर्ड टाइप बोर्ड होना चाहिए जो खामखा अड़ंगेबाजी करने के बजाय गंभीरता से देखे और तुरत-फुरत निर्णय दे।
इसी तरह कंटेंट आफ कोड को लेकर टीवी प्रसारकों ने भले ही मना कर दिया हो लेकिन उन्हें अपने गिरेबान में झाकना तो पड़ेगा ही कि आखिर उन्होंने क्यों अपनी विश्वसनीयता इतनी गिरा दी है कि अब सरकार उन्हें दबोचने की फिराक में ऐसे-तैसे कानून लाने की कोशिश कर रही है। न्यूज को हंसी के फव्वारे बना देने वाले या मनोहर कहानियां का रूप देने वाले टीवी चैनलों से पूछा जाना चाहिए (और यह काम दर्शकों को ही करना चाहिए) कि भाई, समाचार दिखाने के नाम पर लाइसेंस लिया है, दिखा रहे हो अंड-बंड-संड। यह कब तक चलेगा। दुनिया को कब तक मूर्ख बनाओगे। टीआरपी के चक्कर में कब तक मराओगे। नंबर वन कहे जाने वाले चैनल की हालत आजकल पतली है। फिर भी आज जो प्रोग्राम प्राइम टाइम पर चला वह १४ साल की लड़की का था जो छोटे बच्चे जितनी लंबाई की थी। पूरी शाम और रात यही खबर दिखाई जाती रही, उसकी पसंद के गाने गायकों से गवाए जाते रहे। चलिए यह ठीक है, हलका-फुलका भी बीच-बीच में चाहिए। लेकिन भाई खबर तो सिरे से गायब कर दी है। क्या देश-विदेश में कहीं कुछ नहीं मिल रहा है? खोजेंगे तो मिलेगा ही लेकिन उसके लिए चैनलों के कर्ताधर्ताओं और न्यूज डायरेक्टरों में इच्छा शक्ति होनी चाहिए। तेजी से आगे बढ़ रहे एक संसाधनविहीन चैनल को देखो तो भाई वो सांप-भूत-सेक्स-मानो या न मानो....जाने क्या क्या दिखाकर दुकान आगे बढ़ा रहा है। एक चीज लगने लगी है, हमाम में सब नंगे हो गए हैं। अब जल्द ही वो दौर आएगा जब सारे चैनल सब कुछ छोड़कर फिर न्यूज की तरह भागेंगे। लेकिन वह दौर आने के लिए चैनलों के वर्तमान मठाधीशों को जाना पड़ेगा। क्योंकि न्यूज के बेसिक सिद्धांत को सीखकर पत्रकारिता में आने वाले इन बंधुओं ने अपने को इस कदर रीढ़विहीन बना लिया है कि इनकी समझदानी ही बेकार हो चुकी है। टीआरपी मैया के आगे माथ झुकाते-झुकाते दिमाग की हर खिड़की बंद कर दी है। अब जो कुछ छिछला, सतही, छिछोरा, गप्प, मिथ, अश्लील ...माल मिलता है, धड़ल्ले से चला देते हैं। खैर, मेरी बात का बुरा न मानना। मन की भड़ास थी, निकाल लिया। ये भी कह सकते हैं कि चैनल में नहीं हैं तो खट्टे हैं अंगूर की तरह गरिया रहे हैं। जो भी मान लो भई, लेकिन भड़ास है तो निकलेगी...।
जय भड़ास...
यशवंत सिंह
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वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम....
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
-फ़िराक़ गोरखपुरी
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जीना हो यदि शर्तों पर तो जीना हमसे ना होगा।
महफिल में हो वीरानी तो पीना हमसे ना होगा।
माना वो हैं लाखों में और लाखों उनके आशिक हैं,
पर हम उनको सर पर बिठा लें, ऐसा हमसे ना होगा।
कहो तो खुश करने को कह दूं मेरी दुनिया तुम ही हो।
किसी की खातिर दुनियां छोड़ें ऐसा हमसे ना होगा।
आप हमें मगरूर समझ लें, आप की मर्जी है लेकिन,
सबसे बढ़कर हाथ मिलाएं ऐसा हमसे ना होगा।
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पहली बार चखी तो बुरी लगी
का कह रह हो गुरु। हम भी दारूबाजी के किस्से बताएं. अब इसे आज्ञा मानें या विनती? विनती तो आजकल प्रेमिकाओं की भी नहीं सुन रहे इसलिए क्यों लिखें आपकी मानकर. लेकिन डर लग रहा है कहीं यह आज्ञा होगी तो दिल्ली विजिट पर एक अड्डा कम हो जाएगा. सत्या नौकरी छोडे बैठा है. और साले जेएनयू वाले बडे काईयां होते जा रहे हैं यानी सूखले सूखले रहने का खतरा है. गुरु आज्ञा मानकर लिख ही देता हूं.
तो अपने साथ तो ऐसा हुआ कि दुष्यंत कुमार बोले पहली बार चखी तो हमें भी बुरी लगी, कडवी तुम्हे लगेगी मगर जरा सी तो लीजिए। का करते बडे कवि का बडबोला आदेश. मामा के सानिध्य में रहते थे. देखते महसूसते थे कि मामा एक लाल पेय ठंडे पानी के साथ गटकते हैं, छककर खाते हैं और लंबी तान कर सो जाते हैं (कुंवारे थे उन दिनों). कभी कभी महकते हुए रात 11 बजे कुंडी खटखटाते तो हम दरवाजा खोलते मामू खुद सातवें आसमान में होते अंगूर की बेटी से सोहबत करने के बाद और हमें थमा देते वनीला का एक लार्ज पैक. दिन में हम घर में अकेले होते थे उन दिन लडके और लडकी में सही फर्क करने की तमीज नहीं थी नहीं तो यहां कोई और ही किस्सा सुना रहे होते. तो हुआ यूं कि कई दिनों फ्रिज में रखी उस बोतल को देखने के बाद एक दिन दोपहर में हम, बंटी, सुनील, श्याम, मोना, रूबी और शायद सपना या प्रतीक था, लूडो और आइस बाइस खेल कर जी बहला रहे थे. हम श्याम और बंटी को लाल पेय की जादूगरी बता चुके थे और साथ ही यह भी बता चुके थे कि अभी हम लोगों की पहुंच में है. श्याम स्वाद पहले ही चख चुका था सो उसने और गुणगान किये. गुरु बोतल से जिन्न को आजाद करने को हम तीनों उत्सुक थे, लेकिन अन्य चपडगंजुओं की मौजूदगी में यह संभव नहीं लगता था. सुनील को तो क्रिकेट टीम में जगह देने के नाम पर बहलाया जा सकता था, लेकिन असली खतरा रूबी से था, श्याम ने मोना की गारंटी ले ली कि वो किसी से नहीं कहेगी. पर हम खतरा नही लेना चाहते थे. सो श्याम को कहा कि उसे बाहर करे. श्याम बोला समझाकर आता हूं और वह मोना को लेकर दूसरे कमरे में चला गया तब तक हमने बाकी कमजोर कडियां ठीक कर लीं. तकरीबन एक घंटे बाद श्याम और मोना कमरे में आए तब श्याम बोला मामला ठीक हो गया है (अब समझ में आता है कि उसका मामला कैसे ठीक हुआ था).
फिर हमने वह जिन्न आजाद किया सबने थोडी शराब और ज्यादा पानी मिलाकर पैग तैयार किये और एक ही सांस में खींच गये। गले से पेट तक एक सन्नाटा खिंच गया. बाकी सब तो ठीक थे लेकिन बंटी को दर्द होने लगा और कहने लगा तुमने तेजाब पिला दिया है अब मैं मर जाउंगा. हम लोगों को भी लगा कि पेट में इतना दर्द क्यों हो रहा है. सब इसी पसोपेश में थे तब तक श्याम ने बोतल से जितनी शराब निकाली थी उतना पानी मिला दिया. सबको अपने अपने घर भेजकर मैंने बिस्तर पकड लिया. पहले सिर घूमा फिर नींद आई और जब जागा तो रात के आठ बज चुके थे. यह था मेरा पहला शराब से मिलाप.
आगे कैसे बना पेट ड्रम और अखिलेश ने मुझे कैसे बनाया दारूबाज यह फिर कभी।
जय भडास
सचिन
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बेटे का नाम स्कूल से कटवा दिया....
पांच साल का हो जाएगा, अगले महीने। 25 को उसकी बर्थडे है और 26 को मेरा जन्मदिन। ये बात अभी से तय कर रखी है मैंने और आयुष ने (वो क्या तय करेगा, मैं ही उसे सुनाता रहता हूं)कि जब आयुष बीयर-दारू पीने की वैधानिक उम्र हासिल कर लेगा तो मैं और वो 25 अगस्त की शाम को साथ बैठकर चीयर्स करेंगे और 26 की सुबह तक खाना-पीना-गाना करेंगे। मतलब बाप-बेटा दोनों अपने बर्थडे-जन्मदिन को एक रात में मना लेंगे। हालांकि जब वो पैदा होने को था तो मैंने बनारस में डाक्टर ऊषा गुप्ता से अनुरोध किया था कि जब सिजेरियन ही होना है तो प्लीज एक दिन और रुक जाओ, 26 को आपरेट करना, लड़का-लड़की जो भी होगा-होगी, बर्थडे तो एक साथ मनाएंगे और थोड़ा मामला रोचक भी रहेगा। लेकिन अपनी पत्नी को क्या कहूं, मारे दर्द के खामखा चिल्लाने लगीं और मुझे गरियाने लगीं...तोहार मुंह झऊंस जाए, तोहरे पेट पे होत तब ना..., चले आए भाषण देने....जइबा कि ना इहां से....। फिर डाक्टर की तरफ मुखातिब होकर उन्होंने कहा---डक्टराइन साहिब, प्लीज...आपरेशन अब कर दीजिए...। और मेरी रणनीति फेल रही। आयुष जी एक रोज पहले आ गए। जब पहले आ गए तो फिर नया प्लान बना दिया। 25-26 अगस्त की रात को पूरी रात हंगामा करने वाला। वैसे नहीं तो ऐसे, अपनी वाली कर ही ली। लो, बात कुछ और कहना चाह रहा था और कह कुछ और रहा हूं....।
हां, तो कह रहा था कि पिछले तीन महीने से आयुष जी स्कूल से जुड़े नहीं थे और जाने कहां-कहां की यात्रा की। ननिहाल और अपने गांव के अलावा तीन-चार और जगहों पर घूमने गए। खांटी देहात में रह के आए हैं। कानपुर से स्कूल छूटने के बाद से और मेरे नौकरी छोड़ने के बाद से सभी लोग गांव में ही रहे। जब नोएडा में नौकरी शुरू की तो सभी आए। इस महीने की शुरुआत में एडमीशन भी करा दिया। लेकिन आयुष नई ड्रेस और नई किताबों और नए स्कूल के लालच में कुछ दिन तो स्कूल गए लेकिन पांचवें दिन ही ऐलान कर दिया...नाम कटवा दो। नहीं पढ़ना मुझसे। गांव भेज दो, बाबा के साथ रहूंगा। या म्यूजिक में नाम लिखवा दो। या स्केटिंग करवाना सिखवा दो। लेकिन पढ़ना नहीं है मुझे। उनसे भांति-भांति तरीकों से पूछा गया...भइया, गलती क्या हो गई, कमी क्य रह गई?? जब पूछो तो वो एक नया बहाना मारते थे...स्कूल में मैडम अंग्रेजी बोलती है, नहीं पढ़ना। वहां लाइट जाने पर गरमी लगती है, नहीं पढ़ना। वहां बच्चे मुझसे दोस्ती नहीं कर रहे, नहीं पढ़ना। वहां मैडम गुस्से में रहती है, नहीं पढ़ना। वहां सिर्फ और सिर्फ पढ़ाई होती रहती है, खेलने-कूदने के लिए टाइम नहीं दिया जाता, नहीं पढ़ना...। पहले तो मजाक माना। लेकिन सुबह स्कूल जाने के समय दंगा शुरू करता और जबरन भेजने के बाद स्कूल से लौटने पर जो हिचक-हिचक कर रोना शुरू करता तो हम लोगों का भी कलेजा पिघल गया। लगा, बच्चा स्कूल में कुछ संकठ में है। गए स्कूल और मैडम से मिले। मैडम काफी सुंदर थीं। नाक में नथुनी वगैरह पहने और धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते वो मुझे तो अच्छी लगीं। हालांकि बच्चे की शिकायत भी यही थी कि अंग्रेजी ज्यादा बोलती हैं और वो गांव से भोजपुरी सीखकर और पहले पढ़ी गई अंग्रेजी भूलकर लौटा है। मैडम ने मुझे आश्वस्त किया, उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होने दी जाएगी। अगले दिन फिर पंगा। उसके रोने पर स्कूल नहीं भेजा। लेकिन स्कूल की किसी तरह की चर्चा छिड़ते ही वह बुरी तरह रोने लगता। बाद में उसे बुखार भी हो गया। खाना-पीना छोड़ दिया। मुंह ऐसा हो गया जैसा कभी खाना न मिला हो। अंत में मैंने पत्नी को विश्वास में लेकर उसके सामने ऐलान कर दिया कि बेटा, फोन से बात कर ली है, तुम्हारा नाम कटवा दिया है। अब तुम घर पर मौज करो। उसके बाद से वो इतना खुश है कि क्या बताऊं। बिटिया सुबह स्कूल चली जाती है तो वो घर पर ही अपना बैग लेकर पढ़ने बैठ जाता है और थोड़ी बहुत देर मुझे बेवकूफ बनाने के बाद कार्टून चैनल खोल लेता है। लेकिन है बिलकुल मस्त। मैने उससे कहा-- बेटा नहीं पढ़ोगे तो तुम्हें गोबर फेंकना होगा, गरीब बच्चों की तरह कूड़ा बीनना होगा...जाने कितने तरीकों से उसे डराता हूं लेकिन वह सबका जवाब एक-एक कर देता रहता है। जैसे वह कहता है कि गोबर क्यों फेंकूंगा..गांव में नौकर होते हैं न, वो काम करते हैं, मैं तो ठाकुर हूं। बाबा ने सब बता दिया है। मुझे कहना पड़ा-- भाई साहब, मैं तो चमार हूं। लेकिन पढ़ना तो शुरू करो। फिर वो कहता है....गरीब बच्चों की तरह कूड़ा नहीं बीनूंगा..तुम मुझे एक सर जी को घर पर लगा लो, वो रोज पढ़ाने घर पर ही आएँगे। लेकिन मैं स्कूल नहीं जाऊंगा.....।।
फिलहाल चार दिन हो गए। वो स्कूल नहीं जा रहा। उसे पता है कि उसका नाम कटवा दिया है लेकिन दरअसल कटवाया नहीं है। 30 तारीख की सुबह उसे जबरन स्कूल भेजने की तैयारी है। देखता हूं, क्या होता है। लेकिन उसकी दशा देखकर मेरी तो इच्छा उसे पढ़ाने की नहीं हो रही। सोच रहा हूं, म्यूजिक वाली क्लास में ही एडमीशन करा दूं। लेकिन पत्नी हैं कि दुर्गा बनी हुई हैं। आफिस से घर लौटने पर बताती हैं कि इसने घर में कितने बवाल काटे और कितने सामान तोड़े-फोड़े।
और अंत में....
एक दिन वीकली आफ के दिन कार पर आयुष आगे बैठ मेरे साथ निकले। बिटिया और उनकी मम्मी को घुमा-खिला कर घर छोड़ने के बाद निकले थे। आयुष और मैं ऐसा मानते हैं कि जब औरतें घर चली आएं तो पुरुषों को एक बार फिर निकलना चाहिए बाहर। यह तर्क अपने स्वार्थ में इजाद किया था। उनके सामने तो पीने से रहा। बाद में अकेले निकलता हूं तो कहीं क्वाटर या बच्चा लेकर गाड़ी में बैठे-बैठे ही मार लेता हूं। तो उस दिन जब देर तक घूमते रहे तो आयुष ने मन की बात तड़ ली। बोला--बहुत देर से इधर-उधर गाड़ी घुमा रहे हो। चलो मुझे पेप्सी दिलवा दो और अपने लिए दारू ले लो। फिर घूमेंगे। मैं भौचक....उसने मेरे दिल की बात कैसे जान ली?? फिर मुझे लगा...भई, ये नई पीढ़ी तो बहुत चतुर-सुजान है। हम लोग खामखा अपने को तुर्रम खां समझते हैं। ये सब तो अपन के सिर के सारे बाल बीन ले जाएंगे.....।
फिलहाल मुझे टेंशन उसकी कल की क्लास को लेकर है...। भगवान मुझे ताकत दे और भड़ासी अपनी सलाह दें....।
जय भड़ास...
यशवंत
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आखिर मैं किस दिन डूबूँगा, फिकरें करते हैं....
कल मोबाइल का इनबाक्स खाली कर रहा था। अमूमन मैं सभी नसीहत टाइप, या कोरी भावुकता वाले या फिर फालतू की शेरो शायरी के मैसेज पढते ही डिलिटिया देता हूं, बस अच्छे वाले कपडों के अंदर झांकते थोडे हिलोरें जगाते और फाडू टाइप के मैसेज ही रखता हूं. लेकिन साल की शुरुआत का एक मैसेज अभी तक मरा नहीं था ससुरा कोना पकडे मेरा मुंह चिढा रहा था. ओपन किया तो देखा मैसेज था--
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो/
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो.
हम हैरत में कि ऐसी सलाह कौन दे रहा है और क्या खाकर दे रहा है. ये कानपुर वाले दिनों का मैसेज था. यानी सचिन भाई बुंदेलखंडी को कोई उंगल कर रहा था. दिमाग पर जोर डाले तो पता चला यह नंबर अपने यंशवंत गुरु इस्तेमाल करते थे कानपुर में. बात समझ गये. शेर तो उन्होंने छांटकर मारा था. हां याद आया कि उस समय हम भी जवाब भेजे थे कि--- हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही.
लेकिन भडासियों यंशवंत भाई वाला शेर था दमदार। सोचा यशवंत भाई ने लिख मारा क्या? फिर अपनी ही सोच पर हंसी आई कि भाई ऐसे कामों में दिमाग उन दिनों नहीं लगाते थे. तब तो बस आई नेक्स्ट आई नेक्स्ट ही भजते रहते थे. कमाल का डेडीकेशन था. खैर फिर सोचा कहीं रियाज भाई ने तो माल मुहैया नहीं कराया. उनका यह शगल है जब जिसे जरूरत हो रियाज भाई मौका देखकर चौका मारने वाला शेर पटक देते हैं. बिल्कुल चैलेंज के अंदाज में कि लो अब इससे बेहतर हो तो सुनाओ नहीं तो निकल लो.
काफी जद्दोजहद के बाद मुझे अगली लाइन याद आई ॥ तो मामला कुछ यूं बना कि --
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो।
फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो
इश्क खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो।
लगे हाथ शायर का नाम भी याद आ गया। राहत इंदौरी। और जिज्ञासा बढी तो किताबें खंगाली.
इनमें राहत भाई अर्ज करते हैं---
आज हम दोनों को फुरसत है, चलो इश्क करें/ इश्क दोनों की जरूरत है, चलो इश्क करें
इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता है/ ये मुनाफ़े की तिजारत है, चलो इश्क करें
आप हिन्दू, मैं मुसलमाँ, ये ईसाई, वो सिख/ यार छोड़ो ये सियासत है, चलो इश्क करें
और भी है जरा गौर फरमाइये. मुझे लगता है यह शायरी में एक अलग किस्म का प्रयोग है. हिंदी में यही भारतेंदू के बाद इधर विनोद कुमार शुक्ल ने किया हुआ है
उसकी कत्थई आँखों में है, जन्तर-मन्तर सब/ चाकू-वाकू, छुरियाँ-वुरियाँ, खंजर-वंजर सब
जिस दिन से तुम रूठी, मुझसे रूठे-रूठे हैं/ चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब
मुझसे बिछड़ कर वो कहाँ पहले जैसी है /ढीले पड़ गए कपड़े-वपड़े, जेवर-वेवर सब
आखिर मैं किस दिन डूबूँगा, फिकरें करते हैं/ दरिया-वरिया, कश्ती-वश्ती, लंगर-वंगर सब
जय भडास
सचिन
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कोई दोस्त है ना रक़ीब है.......
((जगजीत सिंह की गायी और राना सहरी की लिखी एक गजल और पेश कर रहा हूं))
कोई दोस्त है ना रक़ीब है,
तेरा शहर कितना अजीब है.
वो जो इश्क़ था वो जुनून था,
ये जो हिज्र है ये नसीब है.
यहां किसका चेहरा पढा करूं,
यहां कौन इतना क़रीब है.
मैं किसे कहूं मेरे साथ चल,
यहां सब के सर पे सलीब है.
तुझे देख कर मैं हूं सोचता
तू हबीब है या रकीब
तेरा शहर कितना अजीब है.
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ऐ ग़म ए दिल क्या करूं
((कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा है पर वो नज़्म जो मजाज़ की लिखी है,
मैं यहां लिख देता हूं.))
शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सडकों पे आवारा फिरूं
ग़ैर की बस्ती है कब तक दर-बदर मारा फिरूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
झिलमिलाते क़ुमक़ुमों की राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में दिन की मोहनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर दहकी हुई शमशीर सी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
ये रुपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तस्व्वुर जैसे आशिक़ का ख़्याल
आह लेकिन कौन जाने कौन समझे जी का हाल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आई ये मोती की लड़ी
हूक-सी सीने में उट्ठी, चोट-सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
रात हंस हंसके ये कहती है कि मैख़ाने में चल
फिर किसी शाहनाज़े-लाला-रुख़ के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
हर तरफ़ है बिखरी हुई रंगीनियां रानाइयां
हर क़दम पर इशरतें लेती हुई अंगडाइयां
बढ रही है गोद फैलाए हुए रुसवाइयां
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
रास्ते में रुक के दम ले लूं मेरी आदत नहीं
लौटकर वापस चला जाउं मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाए ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
मुन्तज़िर है एक तूफ़ाने-बला मेरे लिए
अब भी जाने कितने दरवाज़े हैं वा मेरे लिए
पर मुसीबत है मेरा अहदे-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
जी में आता है अब अहदे-वफ़ा भी तोड़ दूं
उनको पा सकता हूं मैं, ये आसरा भी छोड़ दूं
हां मुनासिब है, ये ज़ंजीरे-हवा भी तोड़ दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
इक महल की आड से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफ़लिस की जवानी जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
दिल में इक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूं
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूं
ज़ख्म सीने में महक उठा है, आख़िर क्या करूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
जी में आता है ये मुर्दा चांद तारे नोच लूं
इस किनारे नोच लूं और उस किनारे नोच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या सारे के सारे नोच लूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर हैं नज़र के सामने
सैकडों चंगेज़ो नादिर हैं नज़र के सामने
सैकडों सुलतानो जाबिर हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
बढ के इस इन्द्रसभा का साज़ ओ सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं उसका शबिस्तां फूंक दूं
तखते सुलतान क्या मैं सारा क़स्र ए सुलतान फूंक दूं
ऐ ग़म ए दिल क्या करूं, ऐ वहशत ए दिल क्या करूं
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मायने - नाशादो-नाकारा-उदास और बेकार, क़ुमक़ुम- बिजली की बत्ती, शमशीर- तलवार, तसव्वुर- अनुध्यान, मैखाना- मधुशाला, शहनाज़े लाला रुख़- लाल फूल जैसे मुखड़े वाली, काशाने- मकान, इशरत- सुखभोग, फ़ितरत- स्वभाव या प्रकृति, हमनवा- साथी, तूफ़ाने-बला- विपत्तियों का तूफ़ान, वा- खुले हुए, अहदे-वफ़ा- प्रेम निभाने की प्रतिज्ञा, माहताब-चांद, अमामा- पगड़ी, मुफ़लिस- ग़रीब, शबाब- यौवन, मज़ाहिर- दृश्य, सुल्ताने जाबिर- अत्याचारी बादशाह, शबिस्तां- शयनागार, क़स्रे सुल्तान- शाही महल
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अनिल सिन्हा
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बाजार में सब नंगे हैं...
कई विषय हैं जिन पर भडा़स मन में भरी पड़ी है। आज सोच रहा हूं एकृ-एक कर सभी को निकाल ही दूं। सबसे पहले अशोक मलहोत्रा के बारे में।
हर्षद मेहता, तेलगी और अब अशोक मलहोत्रा... बाजार में सब नंगे हैं...
दिल्ली विधानसभा की कैंटीन का ठेकेदार जो कभी तिपहिया चलाता था, आज अरबपति बना बैठा है। उसके पास पचासों गाड़ियां मिला हैं जिसके नंबर वीवीआईपी मतलब एक या दो या तीन टाइप के नंबर हैं जो सीधे दिल्ली का परिवहन मंत्री हारून जारी करता है। यह तो साफ है कि हारून का यार है अशोक मलहोत्रा। दूसरे, भाजपा और कांग्रेस के बड़े नेताओं के अलावा अफसरों का भी दामाद है अशोक मलहोत्रा। भाई, क्या जमाना आ गया है। अगर तीन-पांच में आपकी रुचि है तो आप भी कभी भी बड़े आदमी बन सकते हो। कुछ मेरे पत्रकार मित्र मुझे फोन कर बताते हैं कि वो देखो, फलां पत्रकार ने ये गाड़ी ले ली, फलां पत्रकार ने वो वाला बंगला खरीद लिया, फलां पत्रकार ने बर्थडे पर क्या शानदार पार्टी दी है.....तो मैं यही कह सकता हूं भाई कि, अगर आप तीन-पांच नहीं कर रहे हो तो तीन-पांच करने वालों से जल क्यों रहे हो। अगर वो अफसरों और नेताओं को पटा कर खुद कमा रहा है और उनको लाभ दिला रहा है तो हम लोगों को जलने की जरूरत क्या है। लेकिन, सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि ऐसे हर्षद मेहता, तेलगी और अशोक मलहोत्रा अब इस देश में बिखरे पड़े हैं। ये सब बाजारवाद की देन हैं। बाजारवाद कहीं किसी को नैतिक नहीं रहने देता। अब ढिबरी लेकर खोजने पर लोग मिलेंगे जो कहेंगे कि मैं नैतिक हूं। जो जहां हैं वहां कमाने की फिराक में है। और, मजेदार तो ये है कि संस्थान, सत्ताएं और संगठन अब कमाई करने को कतई गलत नहीं मानते। बस, इनका ये मानना है कि अकेले ना कमाओ, हमें लाभ पहुंचाओं, अपने लिए भी माल बनाओ। पत्रकारिता में ही देखिए.....जिनके पास मिशन चलाने का काम था अब वो रेवेन्यू का काम देखने लगे हैं। जो इस काम को गलत कहेगा उसे पागल घोषित कर दिया जाएगा। मैं भी थोड़े खुले दिमाग का हो गया हूं। कम बोलता हूं इन विषयों पर वरना हाशिए पर जाने का खतरा पैदा हो जाएगा। हालांकि हाशिए पर जाने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन बात वही है ना, जब क्रांति करने गए थे और न कर पाए तो अब जब नौकरी करने आए हैं तो कम से कम यही काम ठीक से कर लें। लेकिन बावजूद इसके.....इन तेलगियों, हर्षद मेहातओ और अशोक मलहोत्राओं के कारनामों के सुनकर झांटें सुलगती रहेंगी।
मैं तो कोदे के खिलाफ और संजय के साथ हूं
राहुल भाई बजार वाले ने संजय को सजा मिलने वाले दिन ही धांय से लिख मारा.....ठीक हुआ कुत्ते को सजा मिल गई....कुछ इसी टाइप में अपनी भड़ास निकाल ली लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं हूं। मुझे लगता है कि यह रेयरेस्ट मामला है। आरोपी अब पूरी तरह सुधर चुका है, जब उसने गलती की थी वो एक बेहद दहशत के दौर में की थी जब मुंबई में दंगे हो रहे थे और उसके सेकुलर पिता को मारने और घर को उड़ाने की धमकियां दी जा रही थीं। उसे लगा, जब मर ही जाएंगे तो उससे अच्छा है जीते जी न मरने का इंतजाम कर लिया जाए। भाई ने जहां से हो सका हथियार बटोरा और घर पर रखा। भई, ये तो हम लोग भी करते हैं। मैं तो अपनी गाड़ी में एक लंबा वाला छुरा लेकर हमेशा चलता हूं। पता नहीं, रात-बिरात कभी किसी शैतान से भिड़ंत हो जाए तो केवल हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता ही ना रहूं बल्कि मौका देखकर उसकी गांड़ में घुसेड़ दूं। तो यह आत्मरक्षा का अधिकार है। बाकी रही बड़े अपराधियों के साथ रिश्ते रखने की तो भई कौन नहीं रखता। चैनल वालों ने न जाने कितने वीडियो दिखाए हैं जिसमें विदेश में भाई लोगों की पार्टीज में बालीवुड वाले किस तरह नाचते गाते रहते हैं। लेकिन इनमें से किसी का कुछ नहीं हुआ। वैसे भी, संजय दत्त ने जो कुछ किया वो सहजता में किया और उसके पीछे मंशा देश और समाज को नुकसान पहुंचाने की कतई नहीं थी। दरअसल ये जो जज कोदे है ना, उसने जानबूझकर ऐसा फैसला दिया ताकि न्यायिक इतिहास में वो अमर हो जाए और उसे कहा जाए कि वह सेलेब्रिटी के आगे झुका नहीं। बात यहां झुकने की नहीं, बात यहां जेनुइन जस्टिस की है। जैसे जेसिका मर्डर केस में गवाह और साक्ष्य न होते हुए भी और फाइल बंद करने के फैसले के बावजूद लोगों के विरोध के बाद कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेकर मामले को फिर से खोला और लोगों को उकसाकर गवाही कराई और फिर दोषियों को सजा सुना दी। इसी तरह इस मामले में भी मुन्नाभाई के मन की मंशा को समझते हुए उसके व्यवहार को देखते हुए और उसके द्वारा किए गए कारनामे को एक आत्मरक्षार्थ कार्रवाई बताते हुए उसे दो वर्ष की काटी गई जेल के आधार पर रिहा कर दिया जाना चाहिए। मतलब दो साल की सजा होनी चाहिए थी और ये सजा काट चुके होने के कारण उसे रिहा कर दिया जाना चाहिए। भई, मैं तो दिल से कोदे के खिलाफ हूं और संजय के साथ हूं।
फिलहाल इतना ही
जय भड़ास
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इस दौड धूप में क्या रक्खा....
यहां मैं दुष्यंत कुमार के कुछ कम परिचित शब्दों का गुच्छा प्रस्तुत कर रहा हूं....
इस दौड धूप में क्या रख्खा आराम करो आराम करो
आराम जिंदगी की कुंजी इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूंद तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में राम छुपा जो भव बंधन को खेता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूं मेरे अनुभव से काम करो
इस दौड धूप में क्या रख्खा आराम करो आराम करो.....
जय भडास
सचिन
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
सावन के बहाने दारू पीना छोड़ दो.....
एक मित्र हैं। वे आजकल ड्राई मंथ के दौर से गुजर रहे हैं। बिलकुल मुंह बंद कर लिया है। मसाला बंद। दारू बंद। गंदी बातें बंद। सिर्फ सच कहूंगा और सुनूंगा। इसके सिवा न कुछ लूंगा न दूंगा। वजह जाननी चाही तो बोले....पूरे साल नंगई करते हैं। जब जी चाहा मसाला और पान खाते हैं, शाम होते ही जब जी चाहा दारू, बीयर और व्हिस्की पीते हैं। शरीर के अंदर जो सिस्टम है न, यह सब झेलते झेलते पक चुका है। उसकी ओवरहालिंग जरूरी है। इसीलिए हिंदुओं में सावन का महीना आता है और मुस्लिमों में रोजे का महीना। इन महीनों में अगर हम दारू और मसाला नहीं छोड़ते हैं तो मुंह और पेट का कैंसर पक्का है। उनकी बात सुनकर लगा, सही कह रहे हैं। थोड़ा डरा मैं। मुझे सामने मौत नाचती नजर आई। यमराज दिखने लगे। जैसे उन्होंने आदेश दे दिया हो कि हे कैंसर भाइयों, यशवंत के पास पहुंचो। पीछे से मैं लाश के वास्ते लिखी बस लेकर आता हूं। मित्र की आवाज से मेरा दुःस्वप्न टूटा। उन्होंने मुझे डराना जारी रखते हुए बात को थोड़ा और विस्तार दिया और मेरे परेशान चेहरे की तरफ एकटम घूरते हुए आत्मविश्वास पूर्वक बोले....देखो, हर हफ्ते में एक दिन उपवास रखने का चलन क्यों है?? इसके पीछे धार्मिक रीजन इसलिए है क्योंकि साइंटिफिक बेस है। इसलिए ताकि इनर सिस्टम ठीक रहे। विषैली गैसें निकल जाएं। कोने-अंतरे में पड़े हुए पुराने टाइप के मल बाहर निकल आएं। साथ ही, हमारी उमर बढ़ जाए। यह साइंस में सिद्ध हो चुका है कि हफ्ते में एक दिन उपवास रखने वालों के मुकाबले रोज खाने वाले जल्दी मरते हैं। तो बंधु, यह सब चूतियापा एक महीने के लिए कैंसिल कर लो और बाकी ग्यारह महीने मन लगाकर हंगामा करो और मस्ती करो। उनकी बात सुनकर मैं अंदर से प्रभावित हुआ। मैंने अपने नास्तिक होने को मन ही मन गरियाना शुरु कर दिया...ये आस्तिक लोग तो मंगलवार और सावन आदि के नाम पर ड्राइ डे और ड्राइ मंथ मना लेते हैं जिससे उनका शरीर और अंदर का हाजमा फिट रहता है। अपुन लोग तो नास्तिक होने के बाद कउनो हनुमान जी और मंगल बेफे सावन रोजा को नहीं मानते। दिन चाहे दुर्गा जी का हो या हनुमान जी का, बकरा और दारू मिल जाए तो फिर क्या....हो जाता है यम-यम-चप-चप। लेकिन सही बात है, रोज-रोज एक ही काम करने से अंदर वाली मशीन तो कभी गड़बड़ा ही सकती है। देखो, कार की भी सर्विसिंग करानी पड़ती है। तो शरीर की सर्विसिंग भी जरूरी है। खैर, मुझे लगा कि मामला आस्तिक या नास्तिक का नहीं है, यह मामला विल पावर का है। कई ऐसे आस्तिक देखे हैं जो रोज हनुमान चलीसा पढ़ते हैं और शाम को लौंडियों को लाइन मारते हैं। चुपके से पैग लगाकर घर जाते हैं और पूछने पर बताते हैं कि होमियोपैथी की दवा खाई है। तो, बात आस्तिक नास्तिक की नहीं, विल पावर की है। खैर, सावन के कई दिन गुजर चुके हैं और मुझे देर से ही यह बात पता चली है (हालांकि मेरी पत्नी हर साल सावन में मुझे सुधारने की कोशिश करती है लेकिन बजाय मैं सुधरने के, उन्हें भी सावन में नानवेज खाने की आदत डाल दी है..... ऐसी पत्नियां सबको मिले) तो भी सावन के नाम पर नहीं बल्कि बढ़ती उम्र और खराब होते लीवर (अभी तक तो सलामत है, लेकिन अंदर का हाल कौन जाने?) के नाम एक महीने तक किसी भी तरह के मसाले और मदिरा और मांस से छुट्टी ले लेनी चाहिए। हालांकि कल रात तक व्हिस्की पी। छुट्टी का दिन था। बच्चों को लेकर घुमाने निकला। सबने कोल्ड ड्रिंक की फरमाइश की तो फौरन लाया। सबको कोल्ड ड्रिंक गिलास में उड़ेलकर दिया, अपनी वाली गिलास में ड्राइविंग सीट के नीचे रखे पव्वे का ढक्कन खोलकर मिला लिया। बच्चों ने पीने के बाद कहा, पापा मजा नहीं आया, अबकी माजा ले आओ। पहले तो मन हुआ कि मना कर दूं लेकिन देखा कि पव्वे में एक पैग पड़ा है तो फौरन माजा ले अया और सबको पिलाया। अपने वाली गिलास में माजा में व्हिस्की का अंतिम पैग भी मिला लिया। मेरे लाख छिपाने के बावजूद आयुष बीच-बीच में मेरे हरामीपने को कनखियों से देख ले रहा था--- वो आखिर में बड़े प्यार से पूछ ही बैठा...पापा, तुम दारू कोल्डड्रिंक में भी पिला के पी लेते हो और माजा में भी?? पानी के साथ भी पी लेते हो और सोडा में भी?? क्या दारू को सब्जी और दाल में भी मिला के पी सकते हो?? उसका सवाल सुन के मैं सन्न। मैंने कोई जवाब नहीं दिया...थोड़ा डपट दिया...चुप्प रहो,,,जब देखो तब टांय-टांय बोलते रहते हो। मौका हाथ लगा देख सिम्मी दीदी (आयुष की बड़ी बहन) बोल पड़ीं--ठीक कहते हो पापा, जब देखो टांय-टांय बोलता रहता है। पढ़ने का नाम नहीं लेता, बोलने को कह दो तो बोलता ही रहेगा। मैंने उसे भी कहा--अच्छा तुम भी चुप रहो। लेकिन मन में ही अपने मन से मैंने पूछा--क्या सब्जी और दाल में भी मिला के पी सकते हो यशवंत?? अंदर से जवाब आया..हालात और परिस्थिति पर डिपेंड करता है। अगर पानी बिलकुल न हो, और इफरात में दाल ही दाल उपलब्ध हो तो जाहिर सी बात है दाल में डालकर दाल का जूस पीने का आनंद उठाते हुए ह्विस्की को सिप किया जा सकता है.....खैर, मैने सिर झटक दिया।
तो, भई, सोच रहा हूं २ अगस्त से लेकर २ सितंबर तक के दौर को ड्राई मंथ घोषित कर दूं। अगर बीच में विल पावर डोल जाता है तो इसके बारे में भड़ास पर जरूर लिखूंगा। हां, अगर किसी भडा़सी के पास हाऊ टू डेवलप आवर विल पावर जैसे विषय पर कोई शोध हो तो वो मुझे जरूर बताए या पढ़ाए, मैं उसका आभारी रहूंगा।
जय भड़ास
यशवंत
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
शराब कड़वी नही होती
सावन आ गया है । दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों मे कभी तेज़ तो कभी धीमी बरसात हो रही है । बगल के घर मे बजते रेडियो पर अक्सर 'रिमझिम गिरे सावन - सुलग सुलग जाये मन ' भी बजता रहता है । अब मुझे ये नही पता कि वहाँ किसका मन सुलगता है और किसका नही। अपन का भी सुलगता है अगर इस रिमझिम बरसात मे घूँट ना लगे। आह्हा.... बरसात हो रही हो , हम घर की बालकनी मे मूढे पर बैठे हों , एक हाथ मे जाम हो और एक मे सिगरेट । ज्यादा बड़ा घूँट नही , छोटा छोटा सिप मारते हुए सामने पानी से सरोबार हो रही गली को देखना और शून्य मे खो जाना कितना रोमांटिक है (लेकिन हाँ , तब तक एक पैग ख़त्म हो जाना चाहिऐ , ये दूसरे पैग की बात है, ताकि सुरूर तो आया ही रहे )। यशवंत भाई ने कहा था चीयर्स करने को यहाँ भी सो अपन भी आ गए मैदान मे। भला दारू की बात हो , बरसात भी साथ मे हो तो अपन कहॉ पीछे रहने वाले ! सो हमसे रहा नही गया। कल गए और खरीद लाए एक पव्वा । रात मे बरसात हुई तो वैसे ही पी जैसे अभी ऊपर बताया था।जब पीते पीते टुन्न हो गए तो लिखना शुरू किया । (ज्यादा पीने वालो के लिए : बहुत दिन से अगर न पियें तो एक पव्वे मे ही टुन्न हो सकते हैं) एक गाना लिखा , हालांकि लिखा तो बहुत कुछ लेकिन वो यहाँ अभी नही दूंगा। भविष्य मे मौक़े आने पर उसे पोस्ट करुंगा ।ये है एक शराबी का गाना। जो आपकी पेशे खिदमत है .....
शराबी का गाना
शराब कड़वी नही होती
शराब मे नशा नही होता।
शराब दुःख नही देती ,
शराब सुख नही देती।
शराब पनीली होती है,
शराब नशीली होती है ।
शराब के लिए जीवन ख़त्म किया जा सकता है ,
शराब के लिए जिया जा सकता है।
शराब से अपराध का रिश्ता नही होता ,
शराब से निरपराध रिश्ता नही होता।
शराब महकती है ,
शराब गमकती है।
शराब से कुछ होश नही रहता ,
शराब के बाद कोई बेहोश नही रहता।
शराब कोई पीता ही नही ,
शराब से कोई जीता ही नही ।
शराब बेहिसाब होती है ,
शराब लाजवाब होती है ।
गाने शराब से बनते हैं ,
रुदाली भी शराब पीती है ।
लेकिन रुदाली तो जीती है।
रोती है , पीती है , जीती है।
बाक़ी तो शराब के इतने यादगार पल हैं जिन्हे सबको बताना है लेकिन वो आज नही , फिर कभी। तब तक साथियों ....
राहुल की तरफ से
जय भड़ास !!
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
....तो रामनामी बेचने या रंडियों की दलाली करने में कोई फर्क नहीं है....
अखबार में काम करते हुए ढेर सारी खबरें निगाह से गुजरती हैं पर वह हमारे मानस पर असर नहीं करतीं क्योंकि हम उन हलवाइयों की तरह हो चुके होते हैं जो भांति-भांति की मिठाइयां तो पकाते हैं और लेकिन उन्हें खाए बिना ही उनका पेट भरा रहता है क्योंकि उनकी खुशबू उनके जेहन में इस कदर उतर चुकी होती हैं कि उनकी खाने की इच्छा ही मर चुकी होती है। लेकिन कुछ खबरें होती है जिन्हें पढ़कर अपना गांव, जहान, दोस्त, अतीत....याद आने लगते हैं। हिंदू के पत्रकार साईंनाथ के हवाले से एक खबर आई...खेती अब मौत का रास्ता है....पूरी खबर पढ़ने के बाद लगा वाकई, यही हाल है। उन्होंने कहा कि अगर मर्सीडीज बेंज खरीदनी हो तो आपको लोन साढ़े आठ परसेंट में मिल जाएगा लेकिन अगर ट्रैक्टर खरीदने की इच्छा है तो लोन तेरह परसेंट में मिलेगा। इसी तरह उन्होंने बताया कि पहले लोग गांव से शहर मजदूरी के लिए भागते थे क्योंकि खेती से कुछ मिलता नहीं था, अब लोग शहर में जाकर गुलाम बन जा रहे हैं। झारखंड की लाखों लड़कियां और औरतें दिल्ली में गुलामों सी जिंदगी जी रही हैं। वे यहां के साहब-सुब्बा लोगों के यहां घरेलू नौकरानी के रूप में रखी गई हैं। आए दिन इनसे बलात्कार और इनके उत्पीड़न की खबरें आती हैं।
अपने गांव की तरफ झांकता हूं जहां अभी दो महीने गुजार के आया हूं, तो यहां यही हालत है। जिस घर में कोई कमाने वाला नहीं है और सिर्फ खेती सहारा है तो वहां इस कदर पैसे के लिए झगड़ा है कि रसोई बंट चुकी है। बंटवारे के बाद लोगों के पास ईट खरीदने के लिए भी पैसा न होने से इंटों को एक के ऊपर एक करके अलग-अलग गृहस्थी बनाई गई है। बेहद दयनीय हाल है। उन दलितो और पिछड़ों की तो बात ही न करिए जिनके पास खेत नहीं है। उनके लड़के कतई गांव में नहीं रहना चाहते। वे मुंबई और सूरत भाग जाते हैं। मेरे घर पर जो काम करने आती है उससे एक बार पूछा कि दिल्ली क्यों आई। तो उसका कहना था कि गांव में लोग काम भी कराते हैं और मजदूरी भी नहीं देते। वह महोबा की रहने वाली है। उसका पति रंगाई-पुताई का काम करता है और महीने में पंद्रह सौ रूपये कमा लेता है। उसकी पत्नी झाड़ू पोंछा से हजार बारह सौ कमा लेत है। दोनों की बेहद तल्ख जिंदगी किसी तरह खींचतान कर चल रही है। उनके बच्चे इस कदर बेचारे और मारे-मारे घूमते हैं कि देखकर दिल में हाहाकार सा उठता है।
दुनिया में आर्थिक तरक्की के लिए मशहूर हो रहा भारत अपने देश में ही अपनी जड़ों से किस कदर दूर होता जा रहा है, इसकी पड़ताल करने वाला कोई नहीं है। साइनाथ का कहना है कि ये खबरें अखबारों और टीवी पर नहीं आतीं क्योंकि इनमें पठनीयता नहीं होती। मेरा मानना है कि इन खबरों पर बेहद गहराई से काम करने की जरूरत है। असली पत्रकार वही है, साईनाथ की तरह जो समस्याओं की तह तक जाए, शोध करे और अपना एक विजन दे। बाकी तो पेट पालने का धंधा है, यहां से कमा लो या वहां से। धूमिल ने वो कहा है ना....
अगर जीने के पीछे कोई तर्क नहीं है तो रामनामी बेचने या रंडियों की दलाली करने में कोई फर्क नहीं है....
मुझे हूबहू लाइनें तो याद नहीं है लेकिन संभवतः उसका भाव यही है। मुझे ये लाइनें इसलिए अच्छी लगती हैं क्योंकि पत्रकारिता में जिस मकसद से लोगों को आना चाहिए, वो अब खत्म है, लोग कमाने के चक्कर में आ रहे हैं। जहां तर्क नहीं होगा वहां असली मुद्दों पर कैसे बहस हो सकती है।
फिलहाल इतना ही..
जय भड़ास
यशवंत सिंह
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
कहीं इक मासूम नाज़ुक सी लड़की.....
कहीं इक मासूम नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत बहुत भोली भाली
मुझे अपने ख्वाबों की बाहों में पाकर
कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में करवटें बदलकर
सरहाने से तकिया गिराती तो होगी
वही ख्वाब दिन की खामोशी में आकर
उसे मन ही मन में लुभाते तो होंगे
कई साज़ सीने की खामोशियों में
मेरी याद से झनझनाते तो होंगे
वो बेसाख्ता धीमे-धीमे सुरों में
मेरी धुन में कुछ गुनगुनाती तो होगी
मुझे कुछ लिखने वो बैठी तो होगी
मगर उंगलियां कंपकंपाती तो होंगी
क़लम हाथ से छूट जाता तो होगा
क़लम फिर से वो उठाती तो होगी
मेरा नाम अपनी निगाहों में लिखकर
वो दांतों में उंगली दबाती तो होगी
जुबां से कभी उफ्फ निकलती तो होगी
बदन धीमे-धीमे सुलगता तो होगा
कहीं के कहीं पांव पड़ते तो होंगे
ज़मीं पर दुपट्टा लटकता तो होगा
कभी सुबह को शाम कहती तो होगी
कभी रात को दिन बनाती तो होगी
कहीं एक मासूम, नाज़ुक सी लड़की
बहुत खूबसूरत मगर भोली भाली
.....................................रियाज़
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
अजब पागल सी लड़की है........
अजब पागल सी लड़की है
मुझे हर ख़त में लिखती है
मुझे तुम याद आते हो
तुम्हें मैं याद आती हूं
मेरी बातें सताती हैं
मेरी नींदें जगाती हैं
मेरी आंखें रुलाती हैं
सावन की सुनहरी धूप में
तुम अब भी टहलते हो
किसी खामोश रस्ते से कोई आवाज़ आती है
ठहरती सर्द रातों में
तुम अब भी छत पे जाते हो
फलक के सब सितारों को मेरी बातें सुनाते हो
किताबों से तुम्हारे इश्क में कोई कमी आई?
या मेरी याद की शिद्दत से आंखों में नमी आई?
अजब पागल सी लड़की है............
मुझे हर ख़त में लिखती है
जवाब मैं भी लिखता हूं-
...मेरी मसरूफियत देखो
सुबह से शाम आफिस में
चराग़े उम्र जलता है
फिर उसके बाद दुनिया की
कई मजबूरियां पांवों में
बेड़िया डाले रखती हैं
मुझे बेफिक्र चाहत से भरे सपने नहीं दिखते
टहलने, जागने, रोने की मोहलत ही नहीं मिलती
सितारों से मिले अब अर्सा हुआ....... नाराज़ हों शायद
किताबों से ताल्लुक़ मेरा.... अभी वैसे ही क़ायम है
फर्क इतना पड़ा है अब उन्हें अर्से में पढ़ता हूं
तुम्हें किसने कहा पगली....
तुम्हें मैं याद करता हूं
कि मैं खुद को भुलाने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
तुम्हें ना याद आने की
मुसलसल जुस्तजू में हूं
मगर ये जुस्तजू मेरी
बहुत नाकाम रहती है
मेरे दिन रात में अब भी
तुम्हारी शाम रहती है
मेरे लफ्जों की हर माला
तुम्हारे नाम रहती है
तुम्हें किसने कहा पगली......
तुम्हें मैं याद करता हूं
पुरानी बात है जो लोग
अक्सर गुनगुनाते हैं
’उन्हें हम याद करते हैं
जिन्हें हम भूल जाते हैं’
अजब पागल सी लड़की है....
मेरी मसरूफियत देखो
तुम्हें दिल से भुलाऊं तो
तुम्हारी याद आती है
तुम्हें दिल से भुलाने की
मुझे फुर्सत नहीं मिलती
और इस मसरूफ जीवन में
तुम्हारे ख़त का इक जुमला
’तुम्हें मैं याद आती हूं?’
मेरी चाहत की शिद्दत में
कमी होने नहीं देता
बहुत रातें जगाता है
मुझे सोने नहीं देता
सो अगली बार खत में
ये जुमला ही नहीं लिखना
अजब पागल सी लड़की है....
मुझे फिर भी ये लिखती है
मुझे तुम याद करते हो?
तुम्हें मैं याद आती हूं?
..................... रियाज़
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता, दुनिया के सबसे ख़तरनाक खाऊ लोग हैं!
इलाहाबाद और बीएचयू में जब हम लोग कविता पोस्टर लगाते थे तो उन पोस्टरों पर जो कविताएं होती थीं, उनमें वीरेन डंगवाल की कविताएं भी थीं। शुरुआत में वीरेन दा से परिचय इन्हीं कविताओं के जरिए हुआ। लखनऊ में जब एक अखबार की नौकरी से निकाला गया तो बेरोजगारी के उन दिनों में कहीं से पता चला कि वीरेन दा कानपुर में अमर उजाला के संपादक हैं। उन्हें फोन मिलाया, कविता पोस्टरों का हवाला दिया, अपनी हाल में प्रकाशित रचनाओं का जिक्र किया और नौकरी मांग ली। उन्होंने प्रेम से बात की, मिलने के लिए बुलाया। मुलाकात हुई और बात हुई। उसी पद व पैसे में (ट्रेनी, २००० रुपये) नौकरी का आफर दिया जो लखनऊ में करता था। बावजूद इसके, मैं बेहद प्रसन्न था। मुझे खुशी इसलिए हुई क्योंकि लखनऊ में उद्दंडता इतनी कर चुका था कि वहां नौकरी मिलने के चांस खत्म हो चुके थे, और कानपुर में नौकरी मिल गई। इससे ज्यादा खुशी इस बात से थी कि एक ऐसे संपादक के साथ काम करने का मौका मिला जो अपने लिखे के जरिए मेरे प्रिय रहे हैं। वीरेन दा के साथ लगभग तीन साल काम करने का मौका मिला। मैं कह सकता हूं कि वहां जितना सीखा, उतना बाद में कहीं नहीं। संभवतः उन्हीं दिनों की सिखाई से आज तक रोजी-रोटी की कमाई चल रही है। रिपोर्टिंग, डेस्क, संस्मरण, रिपोर्ताज, आत्मकथ्य के फंडे सीखने-समझने के साथ पेजीनेशन के गुण और गुर भी उसी कार्यकाल में सीखा। वीरेन दा से एक उत्कृष्ट मनुष्य के कई गुणों को आत्मसात करने की कोशिश की। उनकी सहजता, सरलता, कविताई, न्यूज सेंस, समाज व मनुष्य की समझ, आम आदमी से हमेशा जुड़ाव, मानवीयता...जाने कितने शब्द हो सकते हैं जिन्हें लिखूं तो भी अच्छाइयों को बयां नहीं कर सकता। खैर, यहां मकसद उनकी तारीफ के पुल बांधना नहीं, अपने पत्रकारिता के गुरु को याद करना व प्रणाम करना है। साथ में उनकी कुछ कविताएं फिर से पढ़ना और भड़ासियों को पढ़ाना है। साथ में यह संदेश देना भी कि बुरा बनकर आगे बढ़ने की कोई मजबूरी नहीं है। आप अच्छे मनुष्य बनकर भी बहुत कुछ हासिल कर सकते हैं।
वीरेन दा से पिछली मुलाकात पिछले वर्ष बरेली में तब हुई जब मैं कानपुर में आईनेक्स्ट की नौकरी ज्वाइन करने मेरठ से जा रहा था। बरेली उनके यहां रुका, चाय-पकौड़ी खाई गई। वहीं पर मेरे ड्राइवर ने रोजा खोला। देर तक बतियाने के बाद रात में निकले, वीरेन दा की बातों और अदाओं को गुनते-बुनते, सोचते-मुस्कराते...।
रवि रतलामी जी और उनके रचनाकार का आभार, जहां से पूरी की पूरी रचना चोरी की है मैंने। उम्मीद है चोरी के एवज में वे कोई दंड नहीं देंगे क्योंकि उन्हें वैसे ही मैं बड़ा भाई और ब्लाग का गुरु मान चुका हूं। शिरीष कुमार मौर्य का भी आभार व्यक्त करना नहीं भूलूंगा जिन्होंने कविताओं का चयन किया और एक शानदार इंट्रो लिखा।
तो आज संडे को वीरेन दा की कुछ कविताओं का मजा लीजिए, साथ में दुआ करिए- हमारा प्यारा कवि और एक शानदार मनुष्य सदा भला चंगा रहे और जीवन में उम्र की सेंचुरी फिर डबल सेंचुरी मारे.....
यशवंत सिंह
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भारत की आज़ादी से ठीक 10 दिन पहले जन्मे वीरेन डंगवाल समकालीन हिन्दी कविता में लोकप्रियता और समर्पण, दोनों ही लिहाज से अपना अलग स्थान रखते हैं। उन्होंने मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, कानपुर, बरेली, नैनीताल और अन्त में चलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। वे 1971 से बरेली कालेज में अध्यापन कर रहे हैं। इसके अलावा पत्रकारिता से उनका गहरा रिश्ता है और वर्तमान में वे दैनिक 'अमर उजाला' के सम्पादकीय सलाहकार है। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताएँ बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया में छपी है। वीरेन डंगवाल का पहला कविता संग्रह 43 वर्ष की उम्र में आया। 'इसी दुनिया में' नामक इस संकलन को रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992) तथा श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) से नवाज़ा गया। दूसरा संकलन 'दुष्चक्र में सृश्टा' 2002 में आया और इसी वर्ष उन्हें 'शमशेर सम्मान' भी दिया गया। दूसरे ही संकलन के लिए उन्हें 2004 का साहित्य अकादमी सम्मान भी दिया गया। समकालीन कविता के पाठकों को वीरेन डंगवाल की कविताओं का बेसब्री से इन्तज़ार रहता है। वे हिन्दी कविता की नई पीढ़ी के सबसे चहेते और आदर्श कवि हैं। उनमें नागार्जुन और त्रिलोचन का-सा विरल लोकतत्व, निराला का सजग फक्कड़पन और मुक्तिबोध की बेचैनी और बौध्दिकता एक साथ मौजूद है
प्रस्तुत हैं उनके पहले संकलन 'इसी दुनिया में' से छह चर्चित कविताएँ.........
हम औरतें
रक्त से भरा तसला है
रिसता हुआ घर के कोने-अंतरों में
हम हैं सूजे हुए पपोटे
प्यार किए जाने की अभिलाषा
सब्जी काटते हुए भी
पार्क में अपने बच्चों पर निगाह रखती हुई
प्रेतात्माएँ
हम नींद में भी दरवाज़े पर लगा हुआ कान हैं
दरवाज़ा खोलते ही
अपने उड़े-उड़े बालों और फीकी शक्ल पर
पैदा होने वाला बेधक अपमान हैं
हम हैं इच्छा-मृग
वंचित स्वप्नों की चरागाह में तो
चौकड़ियाँ
मार लेने दो हमें कमबख्तो !
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तोप
कम्पनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल
विरासत में मिले
कम्पनी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार
सुबह-शाम कम्पनी बाग में आते हैं बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने
अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने ज़माने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
ख़ासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उनका मुँह बन्द !
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पी.टी.ऊषा
काली तरुण हिरनी
अपनी लम्बी चपल टाँगों पर
उड़ती है
मेरे गरीब देश की बेटी
ऑंखों की चमक में जीवित है अभी
भूख को पहचानने वाली विनम्रता
इसीलिए चेहरे पर नहीं है
सुनील गावस्कर की छटा
मत बैठना पी.टी.ऊषा
इनाम में मिली उस मारुति कार पर मन में भी इतराते हुए
बल्कि हवाई जहाज में जाओ
तो पैर भी रख लेना गद्दी पर
खाते हुए मुँह से चपचप की आवाज़ होती है?
कोई ग़म नहीं
वे जो मानते हैं बेआवाज़ जबड़े को सभ्यता
दुनिया के
सबसे ख़तरनाक खाऊ लोग हैं !
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इन्द्र
इन्द्र के हाथ लम्बे हैं
उसकी उँगलियों में हैं मोटी-मोटी
पन्ने की अंगूठियाँ और मिज़राब
बादलों-सा हल्का उसका परिधान है
वह समुद्रों को उठाकर बजाता है सितार की तरह
मन्द गर्जन से भरा वह दिगन्त-व्यापी स्वर
उफ़!
वहाँ पानी है
सातों समुद्रों और निखिल नदियों का पानी है वहाँ
और यहाँ हमारे कंठ स्वरहीन और सूखे हैं।
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कवि - 1
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँटकर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है
एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा
हर बार
भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
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कवि - 2
मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़
मैं पपीते का बीज हूँ
अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
अपने भीतर छुपाए
नाजुक ख़याल की तरह
हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो !
मैं तुम्हारी बद्दुआ हूँ
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा
गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगाकर पढ़ रहा है
तुम्हारा बेटा।
चयन एवं प्रस्तुति - शिरीष कुमार मौर्य)
साभारः रचनाकार
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नारको टेस्ट से बाहर आएंगे तेरे पाप, अपन की भड़ास निकल गई....
हरामजदगी के दिन हैं...
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मूड आफ होने के ढेर सारे कारण होते हैं और कभी कभी कोई कारण नहीं होता। दस-पंद्रह दिन में एक बार ऐसा मूड आफ होता है कि खुद पर गुस्सा आने लगता है और घृणा होने लगती है---क्या साला, यह लाइफ है। खाना-कमाना-हगना-मूतना-नहाना-पहनना-नौकरी-चाकरी-ज्ञान-अज्ञान-ग्लैमर-हकीकत-बतकुच्चन....। वैसे, इससे अलग हो भी क्या सकता है। हर कोई चीज थोड़े दिनों में रूटीन लग सकती है बशर्ते उसमें कोई कनविक्शन न हो। कनविक्शन अब किस चीज में है? पता नहीं किस चीज में है। लेकिन आदमियों की भीड़ मुझे परेशान करती है। भीड़ खुश हो, प्रसन्न हो तो कोई बात नहीं, सबके सब साले बौराए हुए से जाने कहां गांड़ मराने भागते रहते हैं। उनमें से मैं भी हूं। जब कोई गलत तरीके से गाड़ी ओवटेक करता है या दाएं-बाएं से गुजरता है तो कुत्ते की तरह भौंकने का मन करता है, जी में आता है काट लूं लेकिन तब तक अंदर का इंसान जगता है....अबे साला तू भी, दिल्ली में तो पगलाए हुए लोग रहते ही हैं, तू भी गांड़ मराने लगा यहां आकर। रोज खबरें छपती हैं---बाइक वालों ने देर तक हार्न दिया, पास न मिला तो कार वाले भाईसाहब को गिराकर इतना लतियाया की उनके परान निकल गए। ऐसे गुस्से दिल्ली वालों के नाके पर होते हैं। तो बात कर रहा था मूड आफ का, सुबह इंडिया टीवी देख रहा था, चंडीगढ़ में दो लड़के एक पुलिस वाले को पीट रहे हैं और भाग रहे हैं। पुलिस ने दोनों का पता लगा लिया है। यह सीन बार-बार रिपीट कर रहे थे- पुलिस वाले की उसी के डंडे से पिटाई और फिर भागना। अब सोचिए, पुलिस वाले उनको पकड़ेंगे तो कितना पेलेंगे। सालों के गांड़ में डंडा घुसेडकर उलटा लटका देंगे थाने में फिर नाक से इतना पानी पिलाएंगे कि फेफड़ में जाकर फंस जाए और छटपटाते हुए आपको जीने से ज्यादा मौत में आनंद दिखने लगे। मेरठ में ऐसे कई टार्चर देखे थे। कइयों की तो मौत भी हो गई। रात में पीकर सीओ बताते थे, अगर न मारें तो साले कुछ उगलें न और उन्हें पुलिस से डर भी न लगे। लेकिन जो भी, जिस तरह पुलिस इलाहाबाद में सरेआम एक अपराधी के सरेंडर करने के अनुरोध के बावजूद गोली मारती है वह दिल दहला देने वाला था। बात यह नहीं है कि अपराधियों को मारा जाना चाहिए या नहीं बात यह है कि लोकतंत्र में इसी तरह से हर संस्थाएं अपने-अपने अधिकार के परे कुछ तानाशाही भरे अधिकार लेने लगें तो लोकतंत्र का मां चुद जाएंगी। फिर पाकिस्तान और इराक बनने में देर नहीं लगेगी। अभी तक हम जो आराम से बोल-गा-खा लेते हैं, वह सब खत्म हो जाएगा।
मूड आफ होने के कारणों की तलाश में फिर पीछे चलता हूं। अविनाश जी के साथ कुरतुलएन हैदर के आवास पर गया था। उनके इंतकाल की सूचना अविनाश जी से ही मिली। वह वहां एनडीटीवी के लिए लाइव रिपोर्ट कर रहे थे। उनको फोन आया तो साथ मैं भी हो लिया। काफी देर तक रहा। हम लोग जहां रहते हैं वहां से बस थोड़ी ही दूर सेक्टर २१ में उनका घर था लेकिन हममें से इससे पहले किसी को पता न था कि इतनी महान लेखिका यहीं रहती हैं। यही है अपने देश में साहित्यकारों की कद्र। जाने कितने बड़े पुरस्कार पाने वाली इस लेखिका का अंत कितना गुमनामी में गुजरा, इसके लिए मीडिया व सिस्टम दोनों को कोसा जाना चाहिए। मुन्ना भाई जमानत पर कब छूटेंगे, इसके लिए चार-चार रिपोर्टर लाइव करते हैं, संजू की गाड़ी के साथ उसकी प्रेमिका को फोकस में लेकर स्पीडी लाइव रिपोर्टिंग होती है, इस प्रोग्राम पर घंटों खेलते हैं लेकिन देश और समाज को अपने योगदान से समृद्ध बनाने वाले साहित्यकारों को कौन पूछता है।
मूड आफ होने के तीसरे कारण पर जाता हूं....लाख चाहने के बावजूद लड़कियां और औरतें मेरे सपने में आना बंद नहीं हो रहीं। अब कल की ही लीजिए, रात में एक उम्रदराज महिला सपने में आई। सपना बढ़ता गया तो पता चला कि वे भी एक ब्लागर हैं, सपना थोड़ा और परवान चढ़ा तो उन्होंने खुद का परिचय बताते हुए कहा कि मैं तो भड़ास की भौजी हूं। मैं हक्का-बक्का। नींद टूटने पर लगा कि ये भड़ास की भौजी कौन हैं? खैर, नाम बताऊंगा लेकिन होली से ठीक पहले। अभी जरा मैं तड़ लूं, भौजी इस लायक भी हैं कि नहीं उन्हें भड़ास की भौजी बनाया जाए। परेशानी इस बात की है कि मैं चाहता हूं कि सपने में अच्छी चीजें आएं लेकिन आती हमेशा गंदी चीजें हैं। ये जो फीमेल हैं न, इनके बारे में मेरी धारणा बहुत साफ है, दूर से देखो, पास जाओगे तो फंसोगे। लेकिन पास जाए बिना रहा नहीं जाता, दूर से देखने पर मजा नहीं आता। अजीब द्वंद्व है, संभवतः आज से नहीं जमाने से है। उम्मीद है कि आदम और हव्वा के इस द्वंद्व पर अविनाश जी जरूर प्रकाश डालेंगे। साला, उन दोनों को मना किया गया था कि फल न खा लेना। इस फल को कभी सेव की शक्ल में तो कभी दिल की शक्ल में दिखाया जाता है लेकिन उन दोनों ने माना नहीं और उसका पाप हर नौजवान भोगता है। जाने कितने लोग प्रेम में पागल होकर भागते हैं, मारे जाते हैं, तबाह होते हैं, तबाह करते हैं.....। बावजूद, मीठा फल को खाना बंद नहीं होता। एक नौजवान मित्र ने मुझे भी उकसाया। आरकुट पर फोटो लगाकर सिद्ध और गिद्ध गुरु की तरह बैठे रहोगे तो कुछ नहीं होगा। लड़कियां पटाने के लिए फर्जी नाम से कुछ साइट बनाओ। उसके चक्कर फंसकर कइ एक फर्जी साइट बनाकर सर्च के बाद पचासों लड़कियों को मैसेज और फ्रेंडशिप आफर कर आया लेकिन ससुरी किसा का जवाब भी नहीं आया। दरअसल, कुछ लोगों की किस्मत ही खराब होता है। वे भगवान के घर से जब चले थे तो उनकी किस्मत गदहा के लंड से लिखी गई थी। संभवतः उन्हीं में से मैं भी हूं। तो, फिर कसम खाता हूं (और इसे भी टूटना है)कि इन लड़कियों के चक्कर में नहीं पड़ूंगा और किसी कीमत पर इन्हें सपने में नहीं आने दूंगा। मोबाइल में जितने भी लड़कियों के नंबर फीड हैं सबको उड़ा दूंगा ताकि दो पैग लगाने के बाद उन्हें फोन न करने लगूं। इसी तरह अपने हाईस्कूल-इंटर के दिनों किए गए उस प्रतिज्ञा पर फिर पूरी तरह अमल करूंगा कि अगर सामने स्त्री दिख जाए तो फौरन निगाह झुका लो वरना पाप का मन में प्रवेश हो जाएगा और चंचल पानी मन उस पाप को दिल तक पहुंचाएंगा और हरामजादा दिल उस पाप संदेश को दिमाग तक पहुंचाएंगा और कंठित दिमाग उस पाप संदेश पर अमल करने की साजिशें शुरू करेगा और माधड़चोद साजिशें ऐसी कि अमल करो तो फंसो, न करो तो परेशान रहो।
खैर, इतना सब भड़ास निकालने के बाद में मेरा मूड अब कुछ हलका हो गया है लेकिन फटने इस बात से लगी है कि यह सब जो लिख दिया है उसे लोग पढ़ेंगे तो मेरे बारे में क्या धारणा बनाएंगे? इतना सीनियर पत्रकार और इतनी ओछी हरकतें? लेकिन मुझे मालूम है पढ़ने वालों, तुम लोगों ने भी कम पाप नहीं किए हैं, पूरे वाले पापी रहे हो, भेद न खोलो तो वो अलग बात वरना तुम्हारे काले दिल में जो राज दफ्न हैं, अगर उसको नारको टेस्ट के जरिए बाहर ला दिया जाए तो उपर लिखा हुआ मेरा लेख रामचरित मानस की पंक्तियां लगने लगेंगी और तुम्हारा बका-लिखा हुआ राज अब तक का सबसे सनसनीखेज खुलासा....औरतें मुंह पर हाथ रखकरे कहेंगी---हाय दइया,,,इ मुंहफुकवना, देखने में तो बड़ा शरीफ लगता है लेकिन ये ये धतकरम किए है, भगवान इसको कोढ़ी बनावे।
तो भाइयों, पढ़ो और मजा लो, अपने भेद मत खोलना वरना कोढ़ी बन जाओगे।..... हा .....हा ....हा ....हा ....हा ...हा ....हा
जय भड़ास
यशवंत सिंह
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झुग्गीवाला देख रहा है, साठ लाख का गेट....
((कैलाश गौतम का फैन हूं मैं. अब वे तो नहीं रहे लेकिन उनके लिखे को कोई कैसे भूल पाएगा, खासकर मेरे जैसा खांटी देहाती आदमी। हर पल मन उसी गांव में रहता है जहां इंटर तक पढ़ाई की। कैलाश जी को पढ़ते हुए लगता है जैसे वे गांव में चौपाल पर बैठकर लाइव लिख रहे हों और उसे प्रस्तुत भी कर रहे हों। तब मैं अमर उजाला बनारस में था। मेरे मित्र गीतेश्वर का पुराना जान-पहचान था कैलाश जी से। या यों समझिए कि कैलाश जी ने गीतेश्वर को पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में काफी सहारा दिया था। गीतेश्वर उसे कैसे भूल सकते थे। जब उनसे कैलाश जी का जिक्र छेड़ो तो वह बर्राट की हुई जाने कितनी कविताएं तुरंत सुना देते थे। तो मैं और गीतेश्वर, नौकरी वाली रात की पाली निपटा कर एक साथ चल पड़े, कैलाश जी से मिलने। डीएलडब्लू पहुंचे, जहां कवि सम्मेलन था। कैलाश जी से देर तक बतियाए। बस वही मुलाकात रही मेरी लेकिन उनके लिखे से बहुत पहले से मेरी मुलाकात है। उनके बारे में जब थोड़ा डिटेल में जाना तो लगा, वाकई मर्द आदमी था। बेलाग जीता था, लिखता था और बोलता था। परोपकार और प्रेम तो जैसे उनके पोर-पोर में बसा हो। तो लीजिए...कैलाश भाई की कुछ कविताओं का मजा लीजिए.....यशवंत))
सौ में दस की भरी तिजोरी
नब्बे खाली पेट
झुग्गीवाला देख रहा है
साठ लाख का गेट।
बहुत बुरा है आज देश में
प्रजातंत्र का हाल
कुत्ते खींच रहे हैं देखो
कामधेनु की खाल
हत्या-रेप-डकैती-दंगा
हर धंधे का रेट।
बिकती है नौकरी यहां पर
बिकता है सम्मान
आंख मूंद कर उसी घाट पर
भाग रहे यजमान
जाली वीजा पासपोर्ट है
जाली सर्टिफिकेट।
लोग देश में खेल रहे हैं
कैसे कैसे खेल
एक हाथ में खुला लाइटर
एक हाथ में तेल
चाहें तो मिनटों में कर दें
सब कुछ मटियामेट।
अंधी है सरकार - व्यवस्था
अंधा है कानून
कुर्सीवाला देश बेचता
रिक्शेवाला खून
जिसकी उंगली है रिमोट पर
वो है सबसे ग्रेट।
जैसी नेतागीरी है जी वैसी अफसरशाही है
सिर्फ झूठ की पैठ सदन में सच के लिए मनाही है
चारों ओर तबाही भइया
चारों ओर तबाही है।
संविधान की ऐसी-तैसी करनेवाला नायक है
बलात्कार अपहरण डकैती सबमें दक्ष विधायक है
चोर वहां का राजा है
सहयोगी जहां सिपाही है।
जो कपास की खेती करता उसके पास लंगोटी है
उतना महंगा जहर नहीं है जितनी महंगी रोटी है
लाखों टन सड़ता अनाज है
किसकी लापरवाही है।
पैरों की जूती है जनता, जनता की परवाह नहीं
जनता भी क्या करे बिचारी, उसके आगे राह नहीं
बेटा है बेकार पड़ा है
बिटिया है अनब्याही है।
जैसी होती है तैय्यारी वैसी ही तैय्यारी है
तैय्यारी से लगता है जल्दी चुनाव की बारी है
संतो में मुल्लाओं में
भक्तों की आवाजाही है।
देख करके बौर वाली
आम की टहनी
तन गये घुटने कि जैसे
खुल गयी कुहनी।
धूप बतियाती हवा से
रंग बतियाते
फूल-पत्तों के ठहाके
दूर तक जाते
छू गयी चुटकी
हंसी की
हो गई बोहनी।
पीठ पर बस्ता लिये
विद्या कसम खाते
जा रहे स्कूल बच्चे
शब्द खनकाते
इस तरह
सब रम गये हैं
सुध नहीं अपनी।
राग में डूबीं दिशायें
रंग में डूबीं
हाथ आयी ज़िन्दगी के
संग में डूबीं
कल
उतरने जा रही है
खेत में कटनी
कुछ भी बदला नहीं फलाने!
सब जैसा का तैसा है
सब कुछ पूछो, यह मत पूछो
आम आदमी कैसा है।
क्या सचिवालय क्या न्यायालय
सबका वही रवैया है
बाबू बड़ा न भैय्या प्यारे
सबसे बड़ा रुपैया है
पब्लिक जैसे हरी फसल है
शासन भूखा भैंसा है।
मंत्री के पी. ए. का नक्शा
मंत्री से भी हाई है
बिना कमीशन काम न होता
उसकी यही कमाई है
रुक जाता है, कहकर फौरन
`देखो भाई ऐसा है'।
मन माफिक सुविधायें पाते
हैं अपराधी जेलों में
कागज पर जेलों में रहते
खेल दिखाते मेलों में
जैसे रोज चढ़ावा चढ़ता
इन पर चढ़ता पैसा है।
गुपतेसरा ने खोली है दुकान गाँव में
काट रहा चाँदी वह बेईमान गाँव में।
गाँजा है, भाँग है, अफीम, चरस दारू है
ठेंगे पर देश और संविधान गाँव में।
चाय पान बीड़ी सिगरेट तो बहाना है
असली है चकलाघर बेज़ुबान गाँव में।
बम चाकू बंदूकों पिस्तौलों का धंधा
हथियारों की जैसे एक खान गाँव में।
बिमली का पिट गिरा कमली का फूला है
सोते हैं थाने के दो दीवान गाँव में।
खिसकी है पाँव की ज़मीन अभी थोड़ी सी
बाकी है गिरने को आसमान गाँव में।
सूखा है पाला है बाढ़ है वसूली है
किसको दे कंधे का हल किसान गाँव में।
गुपतेसरा गुंडा है और पहुँच वाला है
कैसे हो लोगों को इत्मीनान गाँव में।
((साभारः जिस भी साइट से चोरी हुआ हो, एक का होता तो नाम लिख देता लेकिन दो के घरों से चोरी की हो तो किस किस का नाम लिखूं, साथ में दूसरे वाले घर ने खुद ही कहीं से चोरी से उठा रखा है....))
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
कुछ भी असर नहीं करता
कुछ असर नहीं करता
भीख मांगते बच्चे,
रंडी होती पीढ़ी,
मंडी होता मुल्क
मुझ पर कुछ भी असर नहीं करता
कुछ भी खबर नहीं करता
खुदकुशी करते किसान
खलिहान तक फैलता मसान
कोख और दूध में प्रदूषण का जहर
राखी सावंत के क्लीवेज में घुसा मीडिया
कुछ भी खबर नहीं करता
कोई गदर नहीं करता
चूतियापे की संसद
बकचोदी करते पत्रकार
तिल तिल मरती हिंदुस्तानियत
दम तोड़ती इंसानियत
फिर भी
कोई गदर नहीं करता।
लेकिन
कोई
कुछ क्यों करे
जब खुद मैं
पेट से शुरू करता हूं
और
कमर से जरा नीचे
जाकर रुक जाता हूं।
तो कोई कुछ क्यों करे।
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments
जब लचके तोर कमरिया तो सारा...
कल देर में घर पहुंचा। नई बात यह है कि बहुत दिनों बाद रात में टीवी खोला। १० साल पहले जब कानपुर में रंगीन टीवी लाया था तो घर में घुसते ही टीवी शुरू और घर से बाहर निकलते हुए बुझे मन से टीवी बंद। इन दिनों टीवी पर चूतियापा बढ़ जाने से या कहिए टीवी से मन ऊबने से सामने बैठने की इच्छा नहीं होती। एक तो आफिस में कंप्यूटर पर आंख फोड़ने के बाद टीवी के सामने आंखों की ऐसी-तैसी कराने की बिलकुल इच्छा नहीं होती। दूसरे, अगर कोई बहुत अच्छा पोरगराम आ जाए तो देखने का मन भी करता है। जब से समाचार चैनलों पर सांप, बिच्छू और भूत-प्रेत नुमा प्रोग्राम शुरू हुए हैं तबसे तो और भी टीवी से चिढ़ हो गई। रही फिलिम-सिलिम की बात तो अब उन्हें देखने का मन नहीं करता। नई फिल्में देखने की इच्छा होती है तो उसके लिए सिनेमाहाल जाने का टैम नहीं मिल पाता। तो कह रहा था कि कल टीवी खोला तो जी पर सारेगामापा में लालू मंचासीन थे।
वाह लालू, बहुत खूब लालू, कीप इट अप लालू....
इसके पहले एक खबर जागरण में ही छपी थी कि लालू आजकल परमाणु करार के बवाल से दूर कल्चरल प्रोग्रामों में लगे हैं और खुद की टीआरपी बढ़ाने में जुटे हैं। मसलन उन्होंने अपने गाजीपुर वाले वीर अब्दुल हमीद के प्रपौत्र को एक समारोह में नौकरी दिया। उसी तरह तात्या टोपे के खानदान वालों पर करम दिखाया। टीवी के गीत-गाने वाले प्रोग्रामों में शरीक हो रहे हैं। टीवी पर लालू को देखकर अच्छा लगा। वैसे, टीवी पर जिस भी चैनल पर लालू को मैं देखता हूं, वो मुझे अच्छा लगता है। लालू कभी हेलीकाप्टर बाढ़ग्रस्त इलाके की सड़क पर उतार देते हैं और देहातियों से बातें करते हैं तो कभी मुंबई में लचके मोर कमरिया जैसे गीत-संगीत के कार्यक्रमों में हिस्सा लेते हैं।
मजेदार शो था। ज्यादातर प्रतिभागियों ने पूरब की लैंग्वेज से जुड़े फिल्मी गानों को गाया। पाकिस्तान से आए बालक ने जब ....आरा हिले छपरा हिले ....लचके जब कमरिया तो सारा.....सुनाया तो लालू के चेहरे पर सहज मुस्कान तैर गई। मुझे भी मजा आया। बहुत दिनों बाद सुने भाई। जब बचपन में गांव में था तो उन दिनों शाम ढलते ही पसियाने की तरफ से एक आवाज आया करती थी जिसे मैं बड़े गौर से सुनता था.....भंवरवा के तोहरा संग जाई.....। बाद में पता चला कि भोजपुरी में यह मृत्युगीत जमाने से गाया जाता रहा है। आजकल रात में कभी दोस्तों-मित्रों की जुटान हुआ करती है तो मैं भी यही सब गाया करता हूं जो बचपन में सुना था। वाकई, गाना-बजाना बिलकुल सहज बना देता है आदमी बशर्ते वह अव्वल दर्जे का हरामजादा न हो। तो लालू जी के शो में सेट पर बकरी, खटिया, पेड़ जैसे चीजें दिख रही थीं जिससे पूरा सेट देसज दिख रहा था। हरेक प्रतिभागियों ने लालू से सवाल किए...एक लड़की ने पूछा, आपको शंकर जी ने दर्शन दिया था? लालू ने कहा- हां दिया था लेकिन सपने में, भोर में चार बजे के लगभग। कहा था कि मास-मछरी छोड़ दो। तो छोड़ दिया। लेकिन जीभ पर कंटरोल करना बड़ा मुश्किल होता है। एक दिन खाने का मन करने लगा तो रबड़ी से कहा कि अरे, शंकर जी ने तो मास-मछरी छोड़ने के लिए कहा था, अंडा छोड़ने के लिए थोड़े न कहा था। आज अंडा बनाओ। बाद में अंडा खाने से मन भी उचट गया और उसे खाते समय मवाद जैसा लगने लगा तो उसे भी छोड़ दिया। पाकिस्तान से आए बालक ने लालू से पूछा कि मैंने आपकी स्टाइल में बाल संवारने की कोशिश की तो बाल खड़े हो गए, कैसे सेट करते हैं आप? लालू ने कहा- दिल्ली आना, अपने बारबर से सेट करा दूंगा।
पूरा प्रोग्राम मैं देखता रहा। मजा आ गया। कई गाने चले...पान खाए सैंया हमार, सांवरी सूरतिया होठ लाल लाल..., चलत मुसाफिर के मोह लियो रे पिजड़े वाली मुनिया....बहुत दिनों बाद टीवी को थैंक्यू बोला। मन हलका हो चुका था। लालू में लाख बुराइयां हैं लेकिन वो आदमी जहां होता है वहां लोग बिना सहज हुए नहीं रह सकते। हालांकि वो गरियाते भी जोरदार तरीके से हैं। प्रिंट व इलेक्ट्रानिक के कई पत्रकारों की वो फाड़ चुके हैं लेकिन बावजूद इसके, मुझे लालू अच्छे लगते हैं। उस आदमी की भड़ास हमेशा निकलती रहती है। वह गंभीर से गंभीर काम करके दिखा देता है और खुशी के छोटे से छोटे मौके को इंज्वाय करने में नहीं चूकता। एक प्रतिभागी ने उसी प्रोग्राम में सवाल किया कि आपने रेलवे को न जाने कितने हजार करोड़ रुपये का फायदा दिला दिया, यह कैसे किया? इस सवाल का जवाब देते समय लालू ने खुद की मार्केटिंग करने का मौका नहीं गंवाया। उन्होंने बताया कि किस तरह दुनिया भर के सारे बड़े संस्थान यह सवाल पूछते हैं और किस तरह उन्होंने यह सब कर दिखाया। हालांकि उनका जवाब हम सभी लोगों ने कई दफे पढ़ा और सुना है इसलिए उसको यहां देने से कोई फायदा नहीं है। तो भई...मैं तो कल रात के टीवी शो से इस कदर प्रभावित हुआ कि आज सुबह से ही मेरी जुबान पर जो गाना चढ़ा है वो यही है....आरा हिले छपरा हिले बलिया हिले ला, जब लचके तोर कमरिया तो सारा जिला हिले ला.....।
यहां यह कहना चाहूंगा कि अगर भोजपुरी गानों को साथी लोग भड़ास पर डालें तो मजा आएगा। कई गानें मुझे पूरा याद नहीं हैं और कई गानों के तो सिर्फ धुन पता हैं। उम्मीद है इस काम में हमारे इलाहाबादी हरिशंकर मिश्रा पूरा योगदान देंगे। अगर जरूरत पड़ी तो बनारस के पत्रकारों से मदद लेने में भी नहीं चूकेंगे। इसी तरह दिनेश श्रीनेत्र, अनिल सिन्हा, सचिन, विकास मिश्र...आदि साथी भोजपुरी गानों को भड़ास पर लाने में मदद करें ताकि उन्हें पढ़-पढ़ कर याद किया जाए और फिर जहां महफिल जमे वहां जोर से गाया जाए.....आरा हिले छपरा हिले....
जय भड़ास..
यशवंत
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आहि रे बालम चिरई....
कउने खोतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई
कउने खोतवा में लुकइलू, आहि रे बालम चिरई
बन बन ढूढलीं, दर दर ढूंढलीं, ढूंढलीं नदी के तीरे
सांझ के ढूंढलीं, रात के ढूंढलीं, ढूंढलीं होत फजीरे
जन में ढूंढलीं, मन में ढूंढलीं, ढूंढलीं बीच बजारे
हिया हिया में पइस के ढूंढलीं, ढूंढली बिरह के मारे
कउने अतरे में समइलू, आहि रे बालम चिरई
गीत के हर घड़ी से पूछलीं, पूछलीं राग मिलने से
चांद चांद लय ताल से पूछलीं, पूछलीं सूर के मन से
किरन किरन से जाके पूछलीं, पूछलीं नील गगन से
धरती अउर पाताल से पूछलीं, पूछलीं मस्त पवन से
कउना सूगना पर लोभइलू, आहि रे बालम चिरई
मंदिर से मसजिद तक देखलीं, गिरजा से गुरद्वारा
गीता अउर कूरान में देखलीं, देखलीं तीरथ सारा
पंडित से मुल्ला तक देखलीं, देखलीं घरे कसाई
सगरी उमरिया छछनत जियरा, कइसे तोहके पाईं
कउने बतिया पर कोहंइलू, आहि रे बालम चिरई Sep 3
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हंस अकेला उड़ जाई
भंवरवा के तोहरा संग जाई
के तोहरा संग जाई
भंवरवा के तोहरा संग जाई
आवे के बेरिया सब केहु जाने
दुवरा पर बाजे ला बधाई
जाये के बेरिया केहु ना जाने
हंस अकेला उड़ जाई
भंवरवा के तोहरा.....
देहरी पकड़ के मेहरी रोवें
बांह पकड़ के भाई
बीच अंगनवां माता जी रोवें
बबुवा के होखे ला विदाई
भंवरवा के तोहरा.....
कहत कबीर सुनो भाई साधो
सतगुरु सरन में जाई
जो यह पद के अरथ बतइहें
जगत पार होई जाई
भंवरवा......
(निरगुन)
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माई
बबुआ भइल अब सेयान कि गोदिये नू छोट हो गइल
माई के अंचरा पुरान, अंचरवे में खोट हो गइल
गुटु- गुटु गोदिया में दूध-भात खाइल
मउनी बनल अउरी भुइयाँ लोटाइल ।
नेहिया - दुलरवा के बतिया बेकारे----
टूटल पिरितिया के डोर कि मन में कचोट हो गइल ।
'चुलबुल चिरइया' में बबुआ हेराइल
बोले कि बुढ़िया के मतिये मराइल ।
बाबा के नन्हकी पलनिया उजारे ----
उठल रुपइया के जोर जिनिगिये नू नोट हो गइल ।
भरल-पूरल घरवा में मन खाली-खाली
दियरी जरे पर मने ना दीवाली ।
रतिया त रतिया ई दिनवो अन्हारे ----
डूबल सुरूज भोरे- भोर करेजवे में चोट हो गइल ।
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बदरी के छतिया के चीरत जहजवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
लन्दन से लिखऽतानी पतिया पँहुचला के,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
बदरी के छतिया के चीरत जहजवा से
दिल्ली से जहाज छूटल फुर्र देना उड़ के,
बीबी बेटा संगे हम देखीं मुड़ मुड़ के.
पर्वत के चोटी लाँघत, बदरी के बीचे,
नीला आसमान ऊपर, महासागर नीचे.
लन्दन पँहुच गइल लड़ते पवनवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
हीथ्रो एयरपोर्टवा से बहरी निकलते,
लागल कि गल गइनी थोड़ी दूर चलते.
बिजुरी के चकमक में देखनी जे कई जोड़ा,
बतियावें छतियावें जहाँ तहाँ रस्ते.
हाल चाल पूछनी हम अपना करेजवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
हर्टफोर्डसर पँहुचली सँझिया के बेरवा,
जहाँ बाटे कारखाना, जहाँ बाटे डेरवा.
डेरवा के भीतर एसी, सब सुख बा विदेशी,
चट देना फोन कइली बीबी नईहरवा.
ठकचल बा बंगला विलायती समनवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
भारत से अफ्रीका, फेरु युके चली अइनी,
रुपया, सिलिंग, डालर, पाउन्ड हम कमइनी.
माईबाप चहलें से हम बनि गइनी,
अपना सपनवा के धूरि में मिलइनी.
बेमन के नाता जुड़ल हमरो मशीनवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
केहू नाहीं टोवे रामा भावुक के मनवा,
तड़पे मशीन बीचे उनकर परनवा.
गीतकार खातिर कलम, कलाकार खातिर कला,
एकरा समान दोसर कौन सुख होई भला ?
अँसुवन में बहे रोज सपना नयनवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
हमरा भीतर के कलाकार के मुआवऽताटे,
हमरा भीतर के गीतकार के सुतावऽताटे.
जाने कौना कीमत पे पइसा बनावऽताटे,
पापी पेट हमरा से हाय का करावऽताटे.
तड़पिला रात दिन कवना रे जमनवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
तोहरा से कहतानी साँचो ए इयरवा,
काहे दूना लागत नईखे इचिको जियरवा.
हमरा के काटे दउड़े सोना के पिंजरवा,
मनवा के खींचऽताटे माई के अँचरवा.
लौट चलीं देश अपना कवनो रे बहनवा से,
अइलीं फिरंगिया के गांवे हो संघतिया.
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रतिया भर अँखिया ई देखे चनरमा.
रतिया भर अँखिया ई देखे चनरमा.
हँसेला हमपे आकाश हो.
दूधवा के जइसन तोहरी सुरतिया,
भरेला मन में उजास हो.
आवेला जब कबो धीरे से नींदिया,
हमके पुकारेला माथे के बिंदिया,
खुल जाला अँखिया त, तोहरी सुरतिया,
लेबे ना देबे सवाँस हो.
अइसे त अँखिया ई का का ना देखलस,
बाकिर कबो तोहरा लेखा ना देखलस.
साँचो बसन्त होला, एह बतिया के अब
करेला मन विश्वास हो.
चनवा के पीछे पीछे मनवो चलेला.
दियवा के संगे संगे तनवो जरेला.
रूपवा के रानी तोहके जतने निहारीं,
बढ़ेला ओतने पियास हो.
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वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं, जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ...
दुष्यंत कुमार
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धर्म
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तेज़ी से एक दर्द
मन में जागा
मैंने पी लिया,
छोटी सी एक ख़ुशी
अधरों में आई
मैंने उसको फैला दिया,
मुझको सन्तोष हुआ
और लगा –
हर छोटे को
बड़ा करना धर्म है।
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अपाहिज व्यथा
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अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ,
तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ।
ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ ।
अँधेरे में कुछ ज़िंदगी होम कर दी,
उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ ।
वे संबंध अब तक बहस में टँगे हैं,
जिन्हें रात-दिन स्मरण कर रहा हूँ ।
तुम्हारी थकन ने मुझे तोड़ डाला,
तुम्हें क्या पता क्या सहन कर रहा हूँ ।
मैं अहसास तक भर गया हूँ लबालब,
तेरे आँसुओं को नमन कर रहा हूँ ।
समाआलोचको की दुआ है कि मैं फिर,
सही शाम से आचमन कर रहा हूँ ।
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आग जलती रहे
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एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुजरता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छुने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ
... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछुता
आग के संपर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बन कर चुका,
रीता, भटकता
छानता आकाश
आह! कैसा कठिन
... कैसा पोच मेरा भाग!
आग चारों और मेरे
आग केवल भाग!
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!
अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे
जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।
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एक आशीर्वाद
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जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
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पीर पर्वत-सी
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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ
यहाँ तक आते आते सूख जाती हैं सभी नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन-सुन कर तो लगता है कि
इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ
कई फ़ाके बिताकर मर गया जो उस के बारे में
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा
यहाँ पर सिर्फ़ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं
खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा
चलो अब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें
कम से कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा
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मत कहो, आकाश में कुहरा घना
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मत कहो आकाश में कुहरा घना है
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से
क्या करोगे सूर्य को क्या देखना है
इस सडक पर इस कदर कीचड बिछी है
हर किसी का पांव घुटने तक सना है
पक्ष और प्रतिपक्ष संसद में मुखर है
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से खून में खौलता है
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है
हो गई है घाट पर पूरी व्यवस्था
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है
दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं
आजकल नेपथ्य में संभावना है.
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विदा के बाद प्रतीक्षा
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परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।
सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।
सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ।
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--दुष्यंत कुमार
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सफ़र सफ़र है मेरा इंतज़ार मत करना!!
मैं जा रहा हूं लौट आने के इरादे से मगर, सफ़र सफ़र है मेरा इंतज़ार मत करना!!
बैंगलोर से दिल्ली जाने की खुशी आज गम में तब्दील हुई नज़र आ रही है। एक साल। जी हां पूरा एक साल बैंगलोर में बिताने के बात आज दिल्ली जाने की सिर्फ़ सोच से एक अजीब सा एहसास हो रहा है।
एक साल कोई कम समय नही होता है, इस बात को अभी तक सिर्फ़ सुनता आया था। आज बंगलोर छोडते समय इस बात का मुकम्मल एह्सास हो रहा है।कभी भी किसी के भी साथ दारू पीने का प्लान, जब मर्ज़ी किसी को भी खडा कर देनाकि भाई चल सिगरेट पीने चल रहे हैं, कभी भी किसी वीकेण्ड पर टीम डिनर पर जाना।कभी चिकन काउन्टी , कभी फ़ोरम माल का पिज़्ज़ा हट, मैकडोनल्ड्स, साहिब सिंह सुल्तान, फ़िरंगी पानी, पैरामाऊन्ट रेस्टौरेण्ट आदि जगहों पर चले जाना।कभी किसी को कहना कि भाई आओ आज पूल खेलने चल रहे हैं, आज टेबल टेनिस खेलने का मन है।रोहित अक्केवार, रिषी भाई, ईश ठुकराल, दर्शन बिडप्पा, जाय दीप, अर्शद, सय्यद अफ़्फ़ान अली, आदि ना जाने कितने ही दोस्तो से बिछडने का आज गम सा मालूम दे रहा है।अमरीका से आने के बाद जब औरेकल ज्वाईन करा तो पहली बार महसूस हुआ था कि भाई हमारा भारत देश भी किसी से कम नही है।औटोमैटिक दरवाज़े, लिफ़्ट, सेंसर टेक्नोलोजी और भी ना जाने क्या क्या। हमारा आफ़िस सभी आधुनिक सुख सुविधाओं से सम्पूर्ण है।मुझे आज भी अच्छी तरह याद है २८ जुलाई का वो दिन, जब मैं पहली बार औरेकल में अपने फ़ाईनल इन्टर्व्यू के लिये आया था। मेरी बात अपने मैनेजर के साथ हुई औरउसने मेरी सैलरी के बारे में बताया और बोला कि हम जल्दी ही आपका आफ़र लेटर रिलीज़ कर देंगे, आप अपने इंतज़ामात कर लें।कुछ ही दिन बाद मेरा आफ़र लेटर आ गया जिसमे कि 31 अगस्त 2006 को औरेकल ज्वाईन करने को कहा गया था। मैने भी चट्पट पिछली कम्पनी से इस्तीफ़ा दिया और चल पडा बैंगलोर की ओर। हालांकि मेरे लिये ये एक बेहद मुश्किल फ़ैसला था, चूंकि मेरे माता पिता की सेहत कुछ अच्छी नही रहती।रहने का भी कोई इंतज़ाम नही था, लेकिन फ़िर भी मैने हिम्मत की और आ गया बैंगलोर। आने के बाद एक महीना अपने भाई के साथ रहा।
यहां आकर महसूस किया कि सम्पूर्ण भारत वर्ष में हम चाहे जहां भी चले जायें लेकिन भारतीयता और मानवीय सहिष्णुता का वर्चस्व आज भी कायम है।मेरे यहां के साथियों ने मेरी ज़बरद्स्त मदद की, मुझे ये एह्सास ही नही होने दिया कि मै एक अजनबी प्रदेश में आ गया हूं। टीना कुरियन, संगीता स्वामी, प्रीथम पूवानी, नागराज शर्मा, ईश ठुकराल आदि सभी मित्रो ने काफ़ी मदद की। कहना ना होगा कि सभी लोग टीम स्पिरिट से पूर्ण रूप से भरे हुए थे।एक के बाद एक क्वार्टर बीत गये, टार्गेट कभी अचीव हुए कभी नही हुए, लेकिन कभी भी नकारात्मक रवैये का सामना नही करना पडा।
सबसे उपर हमारे ग्रुप के जनरल मैनेजर राम शर्मा वाराणसी थे। उन्होने सभी का यथोचित मार्गदर्शन किया और सभी को एक सकारात्मक विचारधारा को ग्रहण करने का अवसर प्रदान किया।हर महीने एक बार मै दिल्ली आता था, जहां से सहारनपुर का रास्ता सिर्फ़ चार घण्टे का है।
पिछले साल रमज़ान के मुकद्दस महीने में मेरे सभी मुस्लिम दोस्त मुझे अपने साथ इफ़्तार और सहरी के लिये जबरन ले जाया करते थे। उनके प्यार और खुलूस ने मुझे जैसे बांध दिया था उन सभी के साथ। यहां मै अगर जकी भाई का ज़िक्र ना करू तो बात अधूरी सी रह जायेगी, ज़की भाई हैदराबाद से ताल्लुक रखते हैं और कदम ब कदम हम लोगो ने साथ साथ काम किया है।एक ज़की भाई ही थे जिन्होने मुझे पूल खेलना सिखाया था।अनुपम श्रीवास्तव एक और एसी शख्सियत थे जिनके बिना औरेकल मे एक साल पूरा करना काफी दुष्कर कार्य था। हालांकि ईश ठुकराल अब मैनेजर बन चुके हैं लेकिन फ़िर भी आपसी खुलूस और मोहब्बत का वो जज़्बा आज भी कायम है।
उन्होने काम की बारीकियों से मुझे अवगत कराया और समझाया कि कैसे मै अपने कार्य को कुशलता पूर्वक पूर्ण कर सकता हूं। कुल मिलाकर इतना ही कह सकता हूं कि ये सिर्फ़ भारत वर्ष ही है,
जहां आपसी मेल जोल और सहिष्णुता का वर्चस्व आज भी कायम है।
--अंकित माथुर
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इस दुनिया को जितनी जल्द हो सके, बदल देना चाहिए....
मुझे तुमसे प्यार है, क्या तुम मुझे अपनी किडनी और लीवर का एक टुकड़ा नहीं दोगी?
खबर एक ब्लाग पर ही दिखी थी। साथ देखी एक टिप्पणी- सही में बहुत अच्छी खबर है । मनुष्य एक गुर्दे से भी काफी आराम से जी सकता है । बहन को ये बात समझ आ गई । आपसे अनुरोध है कि अगली राखी तक किसी ऐसे भाई को खोज लाएँ जिसने ऐसा ही उपहार अपनी बहन को दिया हो । प्रतीक्षा में घुघूती बासूती.....
ऐसी खबर अच्छी हैं क्योंकि इसमें किसी को जिंदगी मिलने की सूचना होती है। लेकिन ऐसी खबर बुरी भी है क्योंकि इससे पता चलता है कि हम जैसे हैं, वैसे बहुत अच्छे नहीं हैं। इस दुनिया को जितनी जल्द हो सके, बदल देना चाहिए।
एक बार फिर एक बहन ने भाई को अपने शरीर का एक हिस्सा दे दिया, ताकि भाई जिंदा रहे। राखी के मौके पर ये घटना रायपुर में हुई। भाई की दोनों किडनी काम नहीं कर रही थी, और उसकी जिंदगी दांव पर थी। 36 वर्षीय भाई को उसकी चार बहनों में से एक ने राखी के उपहार के तौर पर जिंदगी दे दी। वो बहन अपने भाई से बेहद प्यार करती है। उसके मुताबिक -"अपने इकलौते भाई के लिए हम बहनें कुछ भी कर सकती हैं। "
ऎसी बहन प्रशंसा की पात्र है जिसने अपने भाई के लिए त्याग किया है। मेडिकल साइंस जानने वाले जानते हैं कि एक किडनी के साथ भी बहन जिंदा रहेगी। दो गुर्दे हमारे शरीर में इसलिए होते हैं कि एक फेल हो जाए तो दूसरा काम करता रहे। या फिर बुढ़ापे-किसी बीमारी या किसी और कारण के कारण खून साफ करने की किडनी की क्षमता कम हो जाए तो दो किडनी मिलकर जीने भर का खून साफ कर दें।
किडनी, लीवर जैसे ट्रांसप्लांट हो सकने वाले अंगों के दान की खबरें आप सबकी नजर से गुजरती होंगी। आपके अपने मोहल्ले, नाते-रिश्तेदारों से लेकर मित्रों तक में ऐसा होता होगा। लेकिन आपने ऐसी कितनी घटनाएं सुनी हैं जब किसी भाई ने बहन के लिए, बेटे ने मां के लिए, पति ने पत्नी के लिए किडनी या लीवर का हिस्सा दिया हो। किडनी और लीवर देने का पुण्य हमेशा किसी पत्नी, किसी बहन, किसी मां के हिस्से में ही क्यों आता है ? ये त्याग करने के लिए परिवार के पुरुष आगे क्यों नहीं आते? क्या पुरुषों को ये बात समझ में नहीं आती कि एक किडनी से भी वो जी सकते हैं या कि लीवर का एक हिस्सा देने से उनका कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि लीवर थोड़े समय बाद पुराने आकार में आ जाता है।
डॉक्टर सजल सेन ने एम्स में मास्टर ऑफ हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स करने के दौरान पिछले दशक की शुरुआत में एक शोध किया था। इसमें ये जानने की कोशिश की गई थी कि ऑर्गन ट्रांसप्लांट के कौन से सामाजिक पहलू हैं। शोध के सिलसिले में उन्होंने एम्स में किडनी ट्रांसप्लांट के कई साल के आंकड़े निकाले। उनके शोध से ये चौंकाने वाली बात सामने आई कि अस्सी फीसदी से ज्यादा मामलों में औरतों ने किडनी डोनेट किया है। इसमें भी सबसे ज्यादा किडनी पत्नी देती है। इसके अलावा विधवा बहन और मां भी किडनी देने में आगे रहती है। उनके सामने तो ऐसे केस भी आए जब किडनी के मरीज ने पूरी योजना के साथ ब्लड ग्रुप की जानकारी लेकर किसी लड़की से शादी की और शादी के बाद किडनी डोनेट करा ली। और इस साल एक पत्रकार ने जब सूचना के अधिकार के तहत एम्स से ये जानकारी मांगी तो उन्हें ये तो बताया कि किडनी ट्रांसप्लांट के ज्यादातर ऑपरेशन पुरुषों के हुए हैं, लेकिन गोपनीयता के नाम पर एम्स ने ये जानकारी नहीं दी कि किडनी डोनेट करने वालों से उनके रिश्ते क्या हैं।
दरअसल जब देश में ऑर्गन ट्रांसप्लांट एक्ट नहीं था, तब किडनी खरीदना आसान था। इसलिए ट्रांसप्लांट का खर्चा उठाने में सक्षम लोग गरीब लोगों से किडनी खरीद लेते थे। उस दौरान अक्सर ऐसी खबरें आती थीं कि किसी गरीब को झांसा देकर उसकी किडनी किसी डॉक्टर ने निकाल ली। ऐसी छिटपुट खबरें अब भी आती हैं। लेकिन कानून के डर से इसमें कमी आई है। ऐसे में लोगों की नजर आस पास के ऐसे रिश्तेदारों पर होती है, जिनसे किडनी या लीवर लिया जा सके। ट्रांसप्लांट के लिए इजाजत लेने का ये सबसे आसान और पक्का तरीका है। ऐसे मामले में अक्सर परिवार की औरतों पर देह का एक हिस्सा दान करने की जिम्मेदारी आती है।
ऐसा किसी मेडिकल कारण से नहीं होता। एम्स में अगर औरतों का ऑर्गन ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन नहीं हो रहा है तो इसकी वजह ये नहीं है कि औरतों की किडनी खराब नहीं होती या कि उनका लीवर ज्यादा दमदार होता है। ना ही उनकी किडनी ट्रांसप्लांट के लिए इसलिए ली जाती है कि औरतों की किडनी बेहतर होती है। दरअसल ये भारतीय समाज के ढांचे से जुड़ा मामला है और ये टिप्पणी है हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति पर। ऐसा होना ये बताता है कि परिवार में महिलाएं कमजोर हैं और पुरुष उनपर अपनी मर्जी आसान से थोप सकते हैं।
ऐसे में ये कहना कोरा मजाक है कि औरतों की इस देश में पूजा होती है। ये तो वैसी ही पूजा है जिस तरह बलि से पहले बकरे के सिर पर अक्षत डाले जाते हैं। इस समाज के खाता-पीता एलीट हिस्सा लड़कियों को पैदा होने से पहले मारने में जुटा है, लड़कियों के हर तरह के शोषण में जुटा है, महिलाओं को समान काम के लिए कम पैसे देता है, उनसे उनके अंगों का दान करा रहा है। बंगाल के भद्रलोक समाज का एक हिस्सा अब भी विधवा माताओं को मरने के लिए बनारस और मथुरा-वृंदावन के विधवा आश्रमों में छोड़ आता है। हरियाणा और पंजाब के कई पुरुष अपना वारिस पैदा करने के लिए देश के गरीब हिस्सों की लड़कियों से शादी जैसा कुछ रचाते हैं और बेटा पैदा होने पर अक्सर खरीदकर लाई गई उस लड़की को बेच देते हैं। त्याग का नाटक ऐसा कि महिलाएं इस बात में गर्व महसूस करती हैं कि वो परिवार में सबके खाने के बाद बचा खुचा और कई बार बासी खाना खाती हैं।
आप अगर इस अन्याय के समर्थक नहीं हैं तो आपके लिए खुशी की बात यही है कि आरतों की आर्थिक आजादी के साथ ये कहानी नया मोड़ ले सकती है। परिवार में जो सदस्य कमाता है, उसकी हैसियत ज्यादा होती है, फिर चाहे वो औरत ही क्यों ना हो। कमाने वाली पत्नी के लिए आगे चलकर शायद कोई पति भी अपनी किडनी देगा। पत्नी के प्यार में तो वो ऐसा नहीं कर रहे हैं। आप उस दिन की कामना कर सकते हैं जब महिलाओं की पूजा इसलिए नहीं होगी कि उन्होंने परिवार के किसी पुरुष सदस्य के लिए अपने शरीर का एक हिस्सा दे दिया है। ऐसा ना होने तक महिलाएं अपने अंग का दान करने को मजबूर होती रहेंगी, और परिवार के पुरुष उनसे त्याग आदि के नाम पर ऐसा कराते रहेंगे। ठीक उसी तरह जैसे, देवताओं ने ऋषि दधीचि से उनकी हड्डियां का दान करा लिया था ताकि वज्र बनाकर राक्षसों का विनाश किया जा सके। जिस दिन ये खबर आएगी कि अंग दान करने वालों में पुरुष और महिलाओं की संख्या बराबर है, उस दिन ही हम आपने समाज पर गर्व करने के हकदार होंगे।
---दिलीप मंडल
Posted by यशवंत सिंह yashwant singh 0 comments