Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

19.10.07

....तो रामनामी बेचने या रंडियों की दलाली करने में कोई फर्क नहीं है....

अखबार में काम करते हुए ढेर सारी खबरें निगाह से गुजरती हैं पर वह हमारे मानस पर असर नहीं करतीं क्योंकि हम उन हलवाइयों की तरह हो चुके होते हैं जो भांति-भांति की मिठाइयां तो पकाते हैं और लेकिन उन्हें खाए बिना ही उनका पेट भरा रहता है क्योंकि उनकी खुशबू उनके जेहन में इस कदर उतर चुकी होती हैं कि उनकी खाने की इच्छा ही मर चुकी होती है। लेकिन कुछ खबरें होती है जिन्हें पढ़कर अपना गांव, जहान, दोस्त, अतीत....याद आने लगते हैं। हिंदू के पत्रकार साईंनाथ के हवाले से एक खबर आई...खेती अब मौत का रास्ता है....पूरी खबर पढ़ने के बाद लगा वाकई, यही हाल है। उन्होंने कहा कि अगर मर्सीडीज बेंज खरीदनी हो तो आपको लोन साढ़े आठ परसेंट में मिल जाएगा लेकिन अगर ट्रैक्टर खरीदने की इच्छा है तो लोन तेरह परसेंट में मिलेगा। इसी तरह उन्होंने बताया कि पहले लोग गांव से शहर मजदूरी के लिए भागते थे क्योंकि खेती से कुछ मिलता नहीं था, अब लोग शहर में जाकर गुलाम बन जा रहे हैं। झारखंड की लाखों लड़कियां और औरतें दिल्ली में गुलामों सी जिंदगी जी रही हैं। वे यहां के साहब-सुब्बा लोगों के यहां घरेलू नौकरानी के रूप में रखी गई हैं। आए दिन इनसे बलात्कार और इनके उत्पीड़न की खबरें आती हैं।
अपने गांव की तरफ झांकता हूं जहां अभी दो महीने गुजार के आया हूं, तो यहां यही हालत है। जिस घर में कोई कमाने वाला नहीं है और सिर्फ खेती सहारा है तो वहां इस कदर पैसे के लिए झगड़ा है कि रसोई बंट चुकी है। बंटवारे के बाद लोगों के पास ईट खरीदने के लिए भी पैसा न होने से इंटों को एक के ऊपर एक करके अलग-अलग गृहस्थी बनाई गई है। बेहद दयनीय हाल है। उन दलितो और पिछड़ों की तो बात ही न करिए जिनके पास खेत नहीं है। उनके लड़के कतई गांव में नहीं रहना चाहते। वे मुंबई और सूरत भाग जाते हैं। मेरे घर पर जो काम करने आती है उससे एक बार पूछा कि दिल्ली क्यों आई। तो उसका कहना था कि गांव में लोग काम भी कराते हैं और मजदूरी भी नहीं देते। वह महोबा की रहने वाली है। उसका पति रंगाई-पुताई का काम करता है और महीने में पंद्रह सौ रूपये कमा लेता है। उसकी पत्नी झाड़ू पोंछा से हजार बारह सौ कमा लेत है। दोनों की बेहद तल्ख जिंदगी किसी तरह खींचतान कर चल रही है। उनके बच्चे इस कदर बेचारे और मारे-मारे घूमते हैं कि देखकर दिल में हाहाकार सा उठता है।
दुनिया में आर्थिक तरक्की के लिए मशहूर हो रहा भारत अपने देश में ही अपनी जड़ों से किस कदर दूर होता जा रहा है, इसकी पड़ताल करने वाला कोई नहीं है। साइनाथ का कहना है कि ये खबरें अखबारों और टीवी पर नहीं आतीं क्योंकि इनमें पठनीयता नहीं होती। मेरा मानना है कि इन खबरों पर बेहद गहराई से काम करने की जरूरत है। असली पत्रकार वही है, साईनाथ की तरह जो समस्याओं की तह तक जाए, शोध करे और अपना एक विजन दे। बाकी तो पेट पालने का धंधा है, यहां से कमा लो या वहां से। धूमिल ने वो कहा है ना....
अगर जीने के पीछे कोई तर्क नहीं है तो रामनामी बेचने या रंडियों की दलाली करने में कोई फर्क नहीं है....
मुझे हूबहू लाइनें तो याद नहीं है लेकिन संभवतः उसका भाव यही है। मुझे ये लाइनें इसलिए अच्छी लगती हैं क्योंकि पत्रकारिता में जिस मकसद से लोगों को आना चाहिए, वो अब खत्म है, लोग कमाने के चक्कर में आ रहे हैं। जहां तर्क नहीं होगा वहां असली मुद्दों पर कैसे बहस हो सकती है।
फिलहाल इतना ही..
जय भड़ास
यशवंत सिंह

No comments: