Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

19.10.07

इस दुनिया को जितनी जल्द हो सके, बदल देना चाहिए....

मुझे तुमसे प्यार है, क्या तुम मुझे अपनी किडनी और लीवर का एक टुकड़ा नहीं दोगी?

खबर एक ब्लाग पर ही दिखी थी। साथ देखी एक टिप्पणी- सही में बहुत अच्छी खबर है । मनुष्य एक गुर्दे से भी काफी आराम से जी सकता है । बहन को ये बात समझ आ गई । आपसे अनुरोध है कि अगली राखी तक किसी ऐसे भाई को खोज लाएँ जिसने ऐसा ही उपहार अपनी बहन को दिया हो । प्रतीक्षा में घुघूती बासूती.....
ऐसी खबर अच्छी हैं क्योंकि इसमें किसी को जिंदगी मिलने की सूचना होती है। लेकिन ऐसी खबर बुरी भी है क्योंकि इससे पता चलता है कि हम जैसे हैं, वैसे बहुत अच्छे नहीं हैं। इस दुनिया को जितनी जल्द हो सके, बदल देना चाहिए।

एक बार फिर एक बहन ने भाई को अपने शरीर का एक हिस्सा दे दिया, ताकि भाई जिंदा रहे। राखी के मौके पर ये घटना रायपुर में हुई। भाई की दोनों किडनी काम नहीं कर रही थी, और उसकी जिंदगी दांव पर थी। 36 वर्षीय भाई को उसकी चार बहनों में से एक ने राखी के उपहार के तौर पर जिंदगी दे दी। वो बहन अपने भाई से बेहद प्यार करती है। उसके मुताबिक -"अपने इकलौते भाई के लिए हम बहनें कुछ भी कर सकती हैं। "

ऎसी बहन प्रशंसा की पात्र है जिसने अपने भाई के लिए त्याग किया है। मेडिकल साइंस जानने वाले जानते हैं कि एक किडनी के साथ भी बहन जिंदा रहेगी। दो गुर्दे हमारे शरीर में इसलिए होते हैं कि एक फेल हो जाए तो दूसरा काम करता रहे। या फिर बुढ़ापे-किसी बीमारी या किसी और कारण के कारण खून साफ करने की किडनी की क्षमता कम हो जाए तो दो किडनी मिलकर जीने भर का खून साफ कर दें।

किडनी, लीवर जैसे ट्रांसप्लांट हो सकने वाले अंगों के दान की खबरें आप सबकी नजर से गुजरती होंगी। आपके अपने मोहल्ले, नाते-रिश्तेदारों से लेकर मित्रों तक में ऐसा होता होगा। लेकिन आपने ऐसी कितनी घटनाएं सुनी हैं जब किसी भाई ने बहन के लिए, बेटे ने मां के लिए, पति ने पत्नी के लिए किडनी या लीवर का हिस्सा दिया हो। किडनी और लीवर देने का पुण्य हमेशा किसी पत्नी, किसी बहन, किसी मां के हिस्से में ही क्यों आता है ? ये त्याग करने के लिए परिवार के पुरुष आगे क्यों नहीं आते? क्या पुरुषों को ये बात समझ में नहीं आती कि एक किडनी से भी वो जी सकते हैं या कि लीवर का एक हिस्सा देने से उनका कुछ नहीं बिगड़ता क्योंकि लीवर थोड़े समय बाद पुराने आकार में आ जाता है।

डॉक्टर सजल सेन ने एम्स में मास्टर ऑफ हॉस्पिटल एडमिनिस्ट्रेशन का कोर्स करने के दौरान पिछले दशक की शुरुआत में एक शोध किया था। इसमें ये जानने की कोशिश की गई थी कि ऑर्गन ट्रांसप्लांट के कौन से सामाजिक पहलू हैं। शोध के सिलसिले में उन्होंने एम्स में किडनी ट्रांसप्लांट के कई साल के आंकड़े निकाले। उनके शोध से ये चौंकाने वाली बात सामने आई कि अस्सी फीसदी से ज्यादा मामलों में औरतों ने किडनी डोनेट किया है। इसमें भी सबसे ज्यादा किडनी पत्नी देती है। इसके अलावा विधवा बहन और मां भी किडनी देने में आगे रहती है। उनके सामने तो ऐसे केस भी आए जब किडनी के मरीज ने पूरी योजना के साथ ब्लड ग्रुप की जानकारी लेकर किसी लड़की से शादी की और शादी के बाद किडनी डोनेट करा ली। और इस साल एक पत्रकार ने जब सूचना के अधिकार के तहत एम्स से ये जानकारी मांगी तो उन्हें ये तो बताया कि किडनी ट्रांसप्लांट के ज्यादातर ऑपरेशन पुरुषों के हुए हैं, लेकिन गोपनीयता के नाम पर एम्स ने ये जानकारी नहीं दी कि किडनी डोनेट करने वालों से उनके रिश्ते क्या हैं।

दरअसल जब देश में ऑर्गन ट्रांसप्लांट एक्ट नहीं था, तब किडनी खरीदना आसान था। इसलिए ट्रांसप्लांट का खर्चा उठाने में सक्षम लोग गरीब लोगों से किडनी खरीद लेते थे। उस दौरान अक्सर ऐसी खबरें आती थीं कि किसी गरीब को झांसा देकर उसकी किडनी किसी डॉक्टर ने निकाल ली। ऐसी छिटपुट खबरें अब भी आती हैं। लेकिन कानून के डर से इसमें कमी आई है। ऐसे में लोगों की नजर आस पास के ऐसे रिश्तेदारों पर होती है, जिनसे किडनी या लीवर लिया जा सके। ट्रांसप्लांट के लिए इजाजत लेने का ये सबसे आसान और पक्का तरीका है। ऐसे मामले में अक्सर परिवार की औरतों पर देह का एक हिस्सा दान करने की जिम्मेदारी आती है।

ऐसा किसी मेडिकल कारण से नहीं होता। एम्स में अगर औरतों का ऑर्गन ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन नहीं हो रहा है तो इसकी वजह ये नहीं है कि औरतों की किडनी खराब नहीं होती या कि उनका लीवर ज्यादा दमदार होता है। ना ही उनकी किडनी ट्रांसप्लांट के लिए इसलिए ली जाती है कि औरतों की किडनी बेहतर होती है। दरअसल ये भारतीय समाज के ढांचे से जुड़ा मामला है और ये टिप्पणी है हमारे समाज में महिलाओं की स्थिति पर। ऐसा होना ये बताता है कि परिवार में महिलाएं कमजोर हैं और पुरुष उनपर अपनी मर्जी आसान से थोप सकते हैं।

ऐसे में ये कहना कोरा मजाक है कि औरतों की इस देश में पूजा होती है। ये तो वैसी ही पूजा है जिस तरह बलि से पहले बकरे के सिर पर अक्षत डाले जाते हैं। इस समाज के खाता-पीता एलीट हिस्सा लड़कियों को पैदा होने से पहले मारने में जुटा है, लड़कियों के हर तरह के शोषण में जुटा है, महिलाओं को समान काम के लिए कम पैसे देता है, उनसे उनके अंगों का दान करा रहा है। बंगाल के भद्रलोक समाज का एक हिस्सा अब भी विधवा माताओं को मरने के लिए बनारस और मथुरा-वृंदावन के विधवा आश्रमों में छोड़ आता है। हरियाणा और पंजाब के कई पुरुष अपना वारिस पैदा करने के लिए देश के गरीब हिस्सों की लड़कियों से शादी जैसा कुछ रचाते हैं और बेटा पैदा होने पर अक्सर खरीदकर लाई गई उस लड़की को बेच देते हैं। त्याग का नाटक ऐसा कि महिलाएं इस बात में गर्व महसूस करती हैं कि वो परिवार में सबके खाने के बाद बचा खुचा और कई बार बासी खाना खाती हैं।

आप अगर इस अन्याय के समर्थक नहीं हैं तो आपके लिए खुशी की बात यही है कि आरतों की आर्थिक आजादी के साथ ये कहानी नया मोड़ ले सकती है। परिवार में जो सदस्य कमाता है, उसकी हैसियत ज्यादा होती है, फिर चाहे वो औरत ही क्यों ना हो। कमाने वाली पत्नी के लिए आगे चलकर शायद कोई पति भी अपनी किडनी देगा। पत्नी के प्यार में तो वो ऐसा नहीं कर रहे हैं। आप उस दिन की कामना कर सकते हैं जब महिलाओं की पूजा इसलिए नहीं होगी कि उन्होंने परिवार के किसी पुरुष सदस्य के लिए अपने शरीर का एक हिस्सा दे दिया है। ऐसा ना होने तक महिलाएं अपने अंग का दान करने को मजबूर होती रहेंगी, और परिवार के पुरुष उनसे त्याग आदि के नाम पर ऐसा कराते रहेंगे। ठीक उसी तरह जैसे, देवताओं ने ऋषि दधीचि से उनकी हड्डियां का दान करा लिया था ताकि वज्र बनाकर राक्षसों का विनाश किया जा सके। जिस दिन ये खबर आएगी कि अंग दान करने वालों में पुरुष और महिलाओं की संख्या बराबर है, उस दिन ही हम आपने समाज पर गर्व करने के हकदार होंगे।
---दिलीप मंडल

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