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19.10.07

अनकही बात को समझोगे तो याद आउंगा...

कुछ यादों में कुछ ख्वाबों में
कुछ गुज़री उम्र अज़ाबों में
कुछ सहराओं में वक्त कटा
कुछ बीता वक्त गुलाबों में
कुछ आस रही कुछ प्यास रही
कुछ बहती आंख शराबों में
कुछ आये पल बेकारी के
कुछ पाये दर्द किताबों में
कुछ इश्क अना में डूब गया
कुछ किस्मत के जवाबों में
कुछ दिल भी थक कर बैठ गया
कुछ हम भी रहे हिसाबों में
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काग़ज़ कागज़ हर्फ सजाया करता है
तन्हाई में शहर बसाया करता है
कैसा पागल शख्स है सारी सारी रात
दीवारों को दर्द सुनाया करता है
रो देता है आप ही अपनी बातों पर
और खुद को आप हंसाया करता है
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तुम मेरी आंख के तेवर ना भुला पाओगे
अनकही बात को समझोगे तो याद आउंगा
हमने खुशियों की तरह देखे हैं गम बिकते हुए
सफहा-ए-ज़ीस्त को पलटोगे तो याद आउंगा
इस जुदाई में तुम अंदर से बिखर जाओगे
किसी मजबूर को देखोगे तो याद आउंगा
हादसे आयेंगे जीवन में तो तुम होंगे निढाल
किसी दीवार को थामोगे तो याद आउंगा
इसमे शामिल है मेरे बख्त की तारीकी भी
तुम सियाह रंग जो पहनोगे तो याद आउंगा
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रियाज़

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