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19.10.07

आखिर मैं किस दिन डूबूँगा, फिकरें करते हैं....

कल मोबाइल का इनबाक्स खाली कर रहा था। अमूमन मैं सभी नसीहत टाइप, या कोरी भावुकता वाले या फिर फालतू की शेरो शायरी के मैसेज पढते ही डिलिटिया देता हूं, बस अच्छे वाले कपडों के अंदर झांकते थोडे हिलोरें जगाते और फाडू टाइप के मैसेज ही रखता हूं. लेकिन साल की शुरुआत का एक मैसेज अभी तक मरा नहीं था ससुरा कोना पकडे मेरा मुंह चिढा रहा था. ओपन किया तो देखा मैसेज था--
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो/
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो.


हम हैरत में कि ऐसी सलाह कौन दे रहा है और क्या खाकर दे रहा है. ये कानपुर वाले दिनों का मैसेज था. यानी सचिन भाई बुंदेलखंडी को कोई उंगल कर रहा था. दिमाग पर जोर डाले तो पता चला यह नंबर अपने यंशवंत गुरु इस्तेमाल करते थे कानपुर में. बात समझ गये. शेर तो उन्होंने छांटकर मारा था. हां याद आया कि उस समय हम भी जवाब भेजे थे कि--- हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही.
लेकिन भडासियों यंशवंत भाई वाला शेर था दमदार। सोचा यशवंत भाई ने लिख मारा क्या? फिर अपनी ही सोच पर हंसी आई कि भाई ऐसे कामों में दिमाग उन दिनों नहीं लगाते थे. तब तो बस आई नेक्स्ट आई नेक्स्ट ही भजते रहते थे. कमाल का डेडीकेशन था. खैर फिर सोचा कहीं रियाज भाई ने तो माल मुहैया नहीं कराया. उनका यह शगल है जब जिसे जरूरत हो रियाज भाई मौका देखकर चौका मारने वाला शेर पटक देते हैं. बिल्कुल चैलेंज के अंदाज में कि लो अब इससे बेहतर हो तो सुनाओ नहीं तो निकल लो.
काफी जद्दोजहद के बाद मुझे अगली लाइन याद आई ॥ तो मामला कुछ यूं बना कि --
तूफ़ानों से आँख मिलाओ, सैलाबों पर वार करो
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर के दरिया पार करो।
फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो
इश्क खता है तो, ये खता एक बार नहीं, सौ बार करो।


लगे हाथ शायर का नाम भी याद आ गया। राहत इंदौरी। और जिज्ञासा बढी तो किताबें खंगाली.

इनमें राहत भाई अर्ज करते हैं---
आज हम दोनों को फुरसत है, चलो इश्क करें/ इश्क दोनों की जरूरत है, चलो इश्क करें
इसमें नुकसान का खतरा ही नहीं रहता है/ ये मुनाफ़े की तिजारत है, चलो इश्क करें
आप हिन्दू, मैं मुसलमाँ, ये ईसाई, वो सिख/ यार छोड़ो ये सियासत है, चलो इश्क करें


और भी है जरा गौर फरमाइये. मुझे लगता है यह शायरी में एक अलग किस्म का प्रयोग है. हिंदी में यही भारतेंदू के बाद इधर विनोद कुमार शुक्ल ने किया हुआ है

उसकी कत्थई आँखों में है, जन्तर-मन्तर सब/ चाकू-वाकू, छुरियाँ-वुरियाँ, खंजर-वंजर सब
जिस दिन से तुम रूठी, मुझसे रूठे-रूठे हैं/ चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब
मुझसे बिछड़ कर वो कहाँ पहले जैसी है /ढीले पड़ गए कपड़े-वपड़े, जेवर-वेवर सब
आखिर मैं किस दिन डूबूँगा, फिकरें करते हैं/ दरिया-वरिया, कश्ती-वश्ती, लंगर-वंगर सब


जय भडास
सचिन

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