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19.10.07

वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम....

कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम

रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये
वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम

होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम

बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम

भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम

हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'
मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम
-फ़िराक़ गोरखपुरी
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जीना हो यदि शर्तों पर तो जीना हमसे ना होगा।
महफिल में हो वीरानी तो पीना हमसे ना होगा।
माना वो हैं लाखों में और लाखों उनके आशिक हैं,
पर हम उनको सर पर बिठा लें, ऐसा हमसे ना होगा।
कहो तो खुश करने को कह दूं मेरी दुनिया तुम ही हो।
किसी की खातिर दुनियां छोड़ें ऐसा हमसे ना होगा।
आप हमें मगरूर समझ लें, आप की मर्जी है लेकिन,
सबसे बढ़कर हाथ मिलाएं ऐसा हमसे ना होगा।
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