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18.6.08

जी चाहता है

बहुत मुस्कराते रहे इन दिनों हम,
ठहाका लगाने को जी चाहता है।
लगाते रहे तुम मुझमे में पलीता,
अब तुझको उडाने को जी चाहता है.
इठला के जाती हो कूचे से मेरे,
लैला बनाने को जी चाहता है।
गमे इश्क में यूँ हुआ हाल अपना,
बाजा बजाने को जी चाहता है।
बहुत सब्र हमने किया ज़िंदगी में,
ईंटे बजाने को जी चाहता है।
मकबूल दिलकश बड़े हैं नजारे,
यहीं घास चरने को जी चाहता है।

मकबूल
ये ग़ज़ल यशवंतजी को समर्पित है.

6 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मियां,ऐसा न करना कि कहो अब घास यहां चरी है तो गोबर भी यहीं करेंगे :)

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...
This comment has been removed by the author.
Maqbool said...

Janaab dr.rupesh srivastava,
Bhai miyan,amuman jahan charai ki
jaati hai,gobar bhi wahin kiya jaata hai.Bahar-haal aap chaahain
to gobar kahin aur bhi kiya ja
sakta hai.
Shukriya.

Maqbool

यशवंत सिंह yashwant singh said...

मकबूल साहब, अपने डाक्टर रूपेश ऐसे ही गोबर गोबर बोला करते हैं। वो तो खुद के लिए भी कहते हैं कि देखिए, आज मेरा भड़ास पर ढेर सारा गोबर करने का मूड है। तो ये जो गोबर शब्द है वो काफी ऊर्जा पैदा करने वाला है क्योंकि इसी गोबर से तो गोबरगैस पैदा कर उस पर रोटी सेंकी जाती है :) उम्मीद है, आप डाक्टर साहब के कहे का बुरा नहीं मानेंगे।

यशवंत सिंह yashwant singh said...

मकबूल साहब, अपने डाक्टर रूपेश ऐसे ही गोबर गोबर बोला करते हैं। वो तो खुद के लिए भी कहते हैं कि देखिए, आज मेरा भड़ास पर ढेर सारा गोबर करने का मूड है। तो ये जो गोबर शब्द है वो काफी ऊर्जा पैदा करने वाला है क्योंकि इसी गोबर से तो गोबरगैस पैदा कर उस पर रोटी सेंकी जाती है :) उम्मीद है, आप डाक्टर साहब के कहे का बुरा नहीं मानेंगे।

Anonymous said...

अरे भाई,

ये गोबर ना होता तो गांव के लोग भूखे रह जाते। इसकी विशेषता पहचाने ओर गोबर करते रहें। वैसै भी गोबर से बढियां खाद भी कुछ नही होता चलिये भडास के उर्वरा को बनाईये ।
जय जय गोबरानन्द की
जय जय भडास