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19.6.08

मिशनरी पत्रकारिता के खिलाफ एक मिशनरी

दिग्गज पत्रकार और एसपी के बेहद करीबी रहे निर्मलेंदु जी ने पत्रकारिता के वर्तमान सन्दर्भों और दिक्कतों पर लेख लिखा है. उम्मीद है भड़ास के पाठक इस लेख को पढ़कर एसपी को कुछ-बहुत समझ सकेंगे। लेख का शीर्षक है....''मिशनरी पत्रकारिता के ख़िलाफ़ एक मिशनरी''

-हृदयेंद्र
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मिशनरी पत्रकारिता के ख़िलाफ़ एक मिशनरी
-निर्मलेंदु-
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नाम- एसपी सिंह
जन्म- 28 अप्रैल 1947
मृत्यु- 27 जून 1997

एसपी की मृत्यु पर हिंदीभाषी समाज में जो हार्दिक शोक देखा गया, वह अप्रत्याशित था। अप्रत्याशित इस अर्थ में की हिंदीभाषी समाज अपने लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों से एक तरह का तादात्म्य बोध नहीं रखता है, जिस तरह बांग्लाभाषी या मराठी भाषी समाज रखता है। इसके बहुत सारे कारण हैं, जिनकी जांच-पड़ताल का यहां अवकाश नहीं। हां, प्रसंग उपस्थित होने पर सिर्फ एक कारण की सामान्य चर्चा की जाएगी। इस बात में शक की कोई गुंजाइश ही नहीं की सुरेंद्र प्रताप सिंह के प्रति हिंदी समाज के प्रेम और उनकी मृत्यु से गहरा शोक-बोध करने के पीछे टेलीविजन पर उनका समाचार कार्यक्रम 'आज तक' था। उनके अधिकाँश प्रेमियों के मन में 'रविवार' के प्रखर सम्पादक के रूप में उनकी कोई खास पहचान नहीं थी। हो सकता है की 'आज तक' के कुछ दर्शक और श्रोताओं को 'रविवार' की स्मृति हो, पर उनकी संख्या नगण्य ही मानी जानी चाहिए।

प्रकारांतर से हम यहां एक सवाल जान-बूझ कर उठा रहे हैं की क्या टेलीविजन एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा कोई समाज, किसी से तादात्म्य बोध कर सके। हमारे खयाल में अगर टेलीविजन के माध्यम से तादात्म्य बोध होता भी है तो वह बहुत सतही स्तर पर होता है। गांधी जी को 'श्रवण पितृभक्त नाटक' पढ़कर और 'हरिश्चंद्र' नाटक देखकर श्रवण कुमार और हरिश्चंद्र से जो तादात्म्य बोध हुआ था, वैसा बोध कराने की क्षमता टेलीविजन के किसी उत्कृष्ट प्रोडक्शन में नहीं हो सकती, यह तो मान लेना चाहिए।

दरअसल, यह एक ऐसा माध्यम है, जो देखने वाले की जानकारी के स्तर को पार कर बोध के स्तर पर पहुंचने में अपनी ''प्रकृति'' से ( यह गलत शब्द है सही शब्द तंत्र होगा) ही अक्षम है। अपने इस एकतरफा स्वरूप के चलते टेलीविजन किसी समाज की सांस्कृतिक जड़ों तक नहीं पहुंच पाता और इन तक न पहुंच पाने के कारण वह दर्शक और श्रोता को एक सामाजिक व्यक्ति या समाज व्यक्ति के रूप में अपने को और दूसरों को पहचानने का अवकाश नहीं देता। फिर भी टेलीविजन को हम एक निष्प्राण भाषा की संज्ञा दे ही सकते हैं, क्यूंकि वह तादात्म्य का संचार तक नहीं कर सकती। वह एक वर्ग को देश के विशाल जन-समुदाय से अपने को अलग और विशिष्ट मानने का एकदम घटिया और सस्ते किस्म का आत्मसंतोष भर प्रदान कर सकती है। दूसरे, जब कोई समाज किसी से तादात्म्य अनुभव करता है, तो उसके कारण गहरे होते हैं। यह संयोग नहीं है की औद्योगिक व शहरी सभ्यता व्यक्ति-मानस में जो नीरसता और बेगानापन (एलिनिएशन) पैदा करती है, वही टेलीविजन मनोरंजन प्रदान करने की कोशिश में कर डालता है। टेलीविजन मनुष्य के बेगानेपन का एक चरम माध्यम है। यहां एसपी के संदर्भ में टेलीविजन के माध्यम पर मन में घुमड़ती कुछ पढ़ी-सुनी, अनुभव की गई बातें सरसरी तौर पर लिखी गई हैं, तो उनका उद्देश्य है आगे लिखी जाने वाली बात के लिए पृष्ठभूमि और परिप्रेक्ष्य प्राप्त करना। हमारा मानना तो यही है की एसपी से हिंदी समाज के तादात्म्य बोध का कारण हिंदी समाज की सांस्कृतिक अस्मिता से जुड़ा होना है और वह एक चरम बिंदु पर पहुंचने की प्रक्रिया में राजनैतिक बन जाता है-टेलीविजन के माध्यम से एकदम परे चला जाता है और टेलीविजन एक माध्यम के बजाय एक सुलभ साधन मात्र बन कर रह जाता है। एक अंतरविरोधी बात हमने लिखी है- एक तरफ हम एसपी के प्रति हिंदी समाज के तादात्म्य का कारण टेलीविजन को बता रहे हैं, तो दूसरी तरफ एसपी से हिंदी जगत के तादात्म्य के कारणों को टेलीविजन के माध्यम से परे बता रहे हैं। इस अंतरविरोध को हमने एसपी की मृत्यु के दो महीने बाद पहचाना है, सो उसे बताने की थोड़ी ललक भी है। उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद टेलीविजन की दुनिया से ताल्लुक रखने वाले कुछ युवा लोगों से हमारी बातचीत हुई, कोलकाता में, तो हमने उनसे सुरेंद्र प्रताप सिंह के टेलीविजनी रूप या चरित्र के बारे में जानना चाह। उन्होंने जो कहा, उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे, क्यूंकि हम यह माने बैठे थे की एसपी एक सफल टेलीविजन हस्ती थे.. सार रूप में इन युवा लोगों का कहना था- 'एसपी का कार्यक्रम बहुत अच्छे स्तर का नहीं था.. यह टैब्लाइड किस्म का यानी सनसनीखेज पत्र-पत्रिकाओं जैसा था। प्रणय राय के कार्यक्रम से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती।

एस.पी. के पक्ष में अगर कोई बात कही जा सकती है, तो यही की वे हिंदी के दूरदर्शनी अंधों में काने राजा थे। उनका कार्यक्रम प्रणय राय की नकल था।

''एस.पी. ने कोई पायनियरिंग काम (नई शुरुआत करने वाला) नहीं किया।''

हमारे मन में आया की अजूबा पोशांको वाले, अपने को प्रकृति में पंगा मानने वाले इन अंगेरजीदां युवकों से पूछें की अगर प्रणय राय की मृत्यु हो जाए (ऐसी कामना करने का कोई सवाल ही नहीं उठता, यह तो बात को स्पष्ट करने के लिए लिखा जा रहा है) तो क्या उन लोगों को भी, जो प्रणव राय को महान मानते हैं और उनकी हर अदा पर फिदा हैं, वही शोक होगा, जो गरीब और लगभग निरक्षर हिंदीभाषियों को एसपी की मृत्यु पर हुआ है?

हमने उनसे अपने मन का सवाल नहीं किया, पर यह जरूर पूछा की 'एसपी की मृत्यु पर इतने हार्दिक शोक का आपको क्या कारण नजर आता है?

उनका उत्तर था, 'दूरदर्शन का चैनल सर्वत्र उपलब्ध है, दूसरे चैनल नहीं।

एसपी को यह चैनल उपलब्ध था.. यह एक हास्यास्पद जवाब था, पर मजे की बात तो यही है कि यही हास्यास्पदता तो 'ग्लोबल' के नाम से मशहूर है।

इस थोड़ी-सी कटु बातचीत से दो-तीन बातें दिमाग में काफी स्पष्ट हुईं- प्रणय राय भले ही देश के एक-डेढ़ प्रतिशत सुविधाभोगी और परजीबी अंग्रेजीदां वर्ग और इसमें शामिल होने को इच्छुक लोगों के लिए ''ikan'' (एक ऐसी प्रतिमा, जिसका भंजन बुरा माना जाता है) हां, पर इस एक-डेढ़ प्रतिशत वर्ग के लोगों के हृदय में भी (यदि वह हैं तो) प्रणय राय की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं हो सकती, यदि अंग्रेजी छुट्टे बाजार और बहुराष्ट्रीय कमपनियों की सारी ताकतें लग जाएं, तो भी नहीं?

कुछ कारणों के चलते हिंदीभाषी समाज का एसपी से तादात्म्य हुआ और यह तादात्म्य उस कोटि तक पहुंचा, जिस कोटि में बांग्लाभाषी या मराठीभाषी या समाज अपने लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों से तादात्म्य बोध करता है.. हम यहां जब 'हिंदी समाज' कह रहे हैं तो हमारा आशय एक ऐसी समाज से है, जो अंग्रेजीदां न होने के कारण खास अर्थ में 'वर्ग विहीन' है, क्यूंकि जिसमें 800-1000 रुपये की मासिक आय पर पांच व्यक्तियों का परिवार चलाने वाले नि:स्वार्थ लोगों के साथ देश के 30-45 हजार रुपये तक मासिक खर्च करने वाले हिंदीभाषी और अंग्रेजियत तक पहुंच न पाए परिवार भी आएंगे। एसपी की मृत्यु पर उम्रदराज धनी हिंदीभाषी का शोक या अंग्रेजियत से कोसों दूर कस्बों के केंद्रीय सरकारी आइएएस की प्रिलिमिनरी (प्राथमिक) परीक्षा तक पास न कर पाने वाले हिंदीभाषी युवक का शोक एकाकार हो जाता है। एकाकार होने का कारण अंग्रेजी और अंग्रेजियत से वंचित लोगों के बीच एकता और और एकजुटता पैदा करने की संभावना का संकेत देता है, भले ही अभी वह नजर तक न आती हो..

टेलीविजन पर एसपी का समाचार कार्यक्रम सिर्फ ऐसे ही लोग नहीं देखते थे, जिनको अंग्रेजी बिल्कुल समझ में नहीं आती हमें यह जान थोड़ा अचरज हुआ की अंग्रेजी समझ सकने वाले हिंदी भाषी भी उस ''आज तक'' को देखते थे.. शायद इसीलिए यहां एक बात का खुलासा करना आवश्यक प्रतीत होता है..अंग्रेजी समझ सकने वाले हिंदुस्तानियों में तरह-तरह के स्तर हैं.. हमारे देश में तरह-तरह की
क्रांतियां हो रही हैं- संचार-क्रांति (जिसमें मोहल्ले की घटना का पता, वह जिस तरह घटी, उसके एक दम उलट अखबार या टेलीविजन में दिखाई देता है) पुरस्कार-क्रांति ( लेखन, गायन, वादन की ऐसी बाढ़ आ गई है, जिसे पुरस्कारों द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है) और शोध-क्रांति (जिसमें विश्वविद्यालयों से लेकर एनजीओ (स्वयंसेवी संगठनों) के तत्वावधान में हजारों की तादाद में शोध प्रबंध लिखे जा रहे हैं और सर्वेक्षण कराए जा रहे हैं) शोध क्रांति ने कुछ ऐसे क्षेत्रों को एकदम वर्जनीय मान रखा है, जिनसे नकल की असलियत का पता लगता हो।

अंग्रेजी जानने वाले या समझ सकने वाले हिंदुस्तानियों का सर्वेक्षण किया जाए और उन पर कोई शोध प्रबंध लिखा जाए तो बहुत अचरज भरी बातें सामने आएंगी..अंग्रेजी अखबार पढऩे वाले हिंदुस्तानी यह मानते हैं की वे अंग्रेजी जानते-समझते हैं, क्यूंकि ऐसा मानना उनके मानसिक स्वास्थ्य के बने रहने के लिए आवश्यक है.. विडंबना तो यह है की ऐसे हिंदुस्तानियों में हम खुद भी हैं.. लेकिन हमारे जैसे हिंदुस्तानियों में लालू यादव या इंद्र गुजराल या आडवाणी या बाल ठाकरे के बयानों और हत्या, बलात्कार, आगजनी की खबरों से आगे कुछ समझने का सामथ्र्य ही नहीं होता..

इस सिलसिले में मजाक के तौर पर पढ़ा गया एक चुटकुला यह है की खुशवंत सिंह का निहायत सादा सीदा कॉलम सिर्फ इसलिए पढ़ा जाता है, क्योंिक उसकी अंग्रेजी सटाक या फटाक से समझ में आ जाती है और हम दीन-हीन हिंदुस्तानियों को अंग्रेजी में लिखे एक हजार शब्द पूरी तरह समझ आ जाने पर परम संतोष का लाभ भी होता है..अंग्रेजी समझ सक ने वाले हिंदी भाषी हिंदी में समाचार नहीं सुनते.. मान-मर्दन के बोध के अलावा दो-तीन जायज कारण भी हैं.. हिंदी के समाचार अंग्रेजी के अनुवाद होते हैं और अक्सर अंग्रेजी की मक्खी पर हिंदी की मक्खी बैठाए जाने के कारण उन्हें समझने के लिए अंग्रेजी की मक्खी की कल्पना करनी पड़ती है या उसका अनुमान लगाना पड़ता है, इसके साथ अंग्रेजी समझने वाले हिंदीभाषी यह भी जानते हैं कि हिंदी समाचारों के चयन और उनकी पेश करने की शैली सम-सामयिक और नकल भी नहीं होती..

ऐसे में हिंदी में समाचार वे लोग ही चुनते हैं, जिन्हें अंग्रेजी बिल्कुल समझ में नहीं आती, हालांकि ये लोग इस हिंदी को भी अंग्रेजी भाषा के अनुवाद, कृत्रिमता और जीवन से दूर होने के कारण पूरी तरह ग्रहण नहीं कर पाते, एक असंतोष उनमें रहता है, जिससे उन्हें मजबूरी में संतोष करना पड़ता है, इससे उनके मन में एक झूठ पैदा होता है कि हिंदी है ही एक ऐसी भाषा, जो सहज व बोधगम्य होना तो दूर रहा, कृत्रिम और अबूझ भी है, फिर 'ग्लोबीकरण' के जमाने में टेलीविजन कार्यक्रम पेश करने वाली कंपनियों ने अपने समाचार बुलेटिनों में जबरन अंग्रेजी शब्दों को ठूंस कर इस झूठ को और पक्का कर दिया है, ऐसे में एसपी ने बोलचाल और अपनी प्रकृति के अनुरूप हिंदी का व्यवहार कर अंग्रेजी न जानने वाले हिंदी भाषी को वह भरोसा दिलाया कि उसकी भाषा कोई गई-गुजरी भाषा नहीं- जाहिर है भरोसा हमेशा तादात्म्य स्थापित करता है, प्रेम पैदा करता है, जो कम बड़ी बात नहीं है।

यह लेख एसपी की मृत्यु पर एक श्रद्धांजलि के रूप में उनकी पत्रकारिता को ध्यान में रखकर लिखा जाना था, लेकिन कलम उठाते ही उनकी मृत्यु पर जो हार्दिक शोक दिखाई दिया, वह दिमाग पर छा गया, ऐसा शोक हिंदीभाषी समाज में कम ही देखा गया है।

एसपी का बाल्यकाल कलकत्ता से 40 किलोमीटर दूर श्याम नगर के गारुलिया में बीता था, 40-45 हजार की आबादी गारुलिया में है, एसपी की मृत्यु की खबर पहुंचते ही वहां की सारी दुकानें स्वत: बंद हो गईं, यह एक अनहोनी-सी बात लगी, क्योंकि अब दुकानें स्वत: बंद नहीं होतीं, बल्कि वे भय से ही बंद होती हैं, कोई समाजशास्त्री दुकानों के बंद होने के पीछे एक स्थानीय व्यक्ति के राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने की बात कहेगा, वह शायद गलत भी नहीं कह रहा हो, पर अर्धसत्य जरूर कह रहा होगा, इस मामले में अर्धसत्य में ही सुंदरता निहित है, गारुलिया के लोगों के शोक को एसपी की ख्याति से जोडऩा भले ही कुछ अंशों में सही क्यों न हो, अन्यायपूर्ण लगता है, हम जिनका रौब मानते हैं, उनकी दिल से इज्जत नहीं करते, लेकिन गारुलिया के लोगों का मामला 'दिल' का मामला था। प्रकारांतर से यह हिंदीभाषी समाज के 'दिल' का भी मामला है, सो, लेख भटक गया और एसपी की पत्रकारिता पर लिखना रह गया, एक संपादक और पत्रकार के रूप में एसपी ने हिंदी पत्रकारिता में एक नई शुरुआत करने की कोशिश की, यह सोच-समझ कर नहीं, बल्कि उनके अपने व्यक्तित्व के कारण की जाने वाली कोशिश थी सो, उसे 'कोशिश' कहना हमें कहीं एसपी के साथ जबरदस्ती करना या उन्हें महिमामंडित करना ही जान पड़ता है, कोशिश हमेशा प्रयत्न साध्य होती है और वह वस्तुस्थिति को बदलने और एक आदर्श स्थिति पैदा करने के संकल्प के साथ जुड़ी होती है। ऐसे संपादक और पत्रकार के रूप में तत्काल एक ही नाम याद आता है और वह है गणेश शंकर विद्यार्थी,बाबू बालमुकुंद गुप्त, विष्णु पराड़कर जी और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का भी, विद्यार्थी जी ने अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में अपना अखबार भी निकाला 'प्रताप' देश सेवा का एक मिशन था।

विद्यार्थी जी की छवि सामने रखने पर एसपी की पत्रकारिता को समझने में सुविधा होगी, विद्यार्थी जी एक आदर्श पुरुष थे, और एसपी एक 'रोल मॉडल' रोल मॉडल का ठीक -ठीक हिंदी अनुवाद संभव नहीं, क्योंकि यह औद्योगिक संस्कृति का शब्द है, जबकि हिंदी एक कृषि संस्कृति की नागर भाषा है।

औद्योगिक संस्कृति में आदर्श नहीं होते, उत्पादन के लक्ष्य होते हैं, 'रोल मॉडल' का हिंदी में आशय एक ऐसे व्यक्ति से होगा, जिसका अनुसरण कर उत्कृष्टता प्राप्त की जा सके या अपना काम करते हुए दिमाग में जिसका प्रतिरूप हमारे सामने रहे, विद्यार्थी जी को सामने रखना किसी भी संपादक -पत्रकार को छोटा दिखाने के लिए पर्याप्त है, लेकिन हम यहां एक उल्टी कोशिश कर रहे हैं-उन्हें सामने रख कर एसपी की विशिष्टता बताना चाह रहे हैं, हमारे खयाल में एसपी हिंदी के पहले पत्रकार और संपादक थे, जिन्होंने अखबार को न केवल एक उद्योग के रूप में देखा, बल्कि पहचाना भी, शायद इसीलिए वे मानते थे कि अखबार भी रोजी-रोटी का एक माध्यम है, विद्यार्थी जी के जमाने में अखबार उद्योग नहीं था, इसके बावजूद उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से यह जरूर पहचाना था कि अखबारों का आगे जाकर क्या स्वरूप हो सकता है, इस पहचान में अखबार के स्वयं एक उद्योग बन जाने की बात निहित न थी, यह कौन कल्पना कर सकता था कि आजादी के 58 वर्ष बाद आजाद हिंदुस्तान की सरकार देश को आर्थिक गुलामी की जंजीरों में कस देगी। अखबारों के उद्योग बनने की प्रक्रिया आजादी के बाद शुरू हुई और अब वह अपने वीभत्स रूप में सबको दिखाई पड़ रही है, एसपी की खूबी यह है कि उन्होंने अन्य संपादकों और पत्रकारों की तरह मिशनरी बनाने की 'पाखंडपूर्ण' बातें न कर इस वास्तविकता को रचनात्मक रूप देने की भरपूर कोशिश की पाखंड न करना एक गुण है, पर दरअसल, वह एक नकारात्मक गुण ही है, सकारात्मक नहीं, मसलन, मधु दंडवते भ्रष्टाचारी नहीं हैं, पर उनके भ्रष्टाचारी न होने की कोई सार्थकता नहीं है, क्योंकि उन नीतियों का, जिन्हें गलत मानने की वे सार्वजनिक मंच से घोषणा कर चुके हैं, पालन कर रहे हैं, एसपी में पाखंड नहीं था, यही उनको हिंदी के दूसरे संपादकों की तुलना में प्रशंसनीय बनाता है।

उसकी प्रशंसा करने के अन्य बहुतेरे कारण हैं, हमारा खयाल है कि पाखंड से अपनी सहज स्वाभाविक चिढ़ के कारण उन्होंने स्वयं अपने को गलत समझने की गल्ती की, जब हम यह लिख रहे हैं, तो कोई द्रविड़ प्राणायाम कर उनकी प्रशंसा करने का कौशल अपना नहीं रहे हैं, वरन एक मार्मिक सत्य को उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी मृत्यु से लगभग दो सप्ताह पहले जनसत्ता ने उन पर पूरे एक पृष्ठ की सामग्री छापी थी, जिसमें उनका एक इंटरव्यू भी था, इसमें उन्होंने कहा मैंने किसी मिशन के तहत पत्रकारिता नहीं की, मेरी प्रतिबद्धता मेरे पेशे के प्रति है। दरअसल, उनके इस कथन से यह साफ झलकता है कि वे पत्रकारिता को एक पेशे के अलावा और कुछ भी नहीं मानते थे। लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि उनकी प्रतिबद्धता उनके पेशे के प्रति है, हालांकि एसपी ने तो यह बात कह दी, लेकिन कहते वक्त शायद वे यह भूल गये कि किसी भी पेशे के प्रति प्रतिबद्धता होने का मतलब यह है कि वे एक मिशन के तहत काम कर रहे हैं, किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता अंतत: मिशनरी ही होती है, मुझे लगता है कि शब्दों के छिछोरे इस्तेमाल ने मिशन शब्द का अर्थ ढोंग बना दिया है,एसपी के व्यक्तित्व का एक नकारात्मक पक्ष यह है कि उन्होंने कभी खुद अपने कृतित्व को पत्रकार की दृष्टि से नहीं देखा, दरअसल, इंटरव्यू लेनेवाले को एसपी के इस जवाब पर पलट कर यह पूछना चाहिए था कि क्या किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता अंतत: मिशनरी नहीं बन जाती? यह इंटरव्यू लेने वाले ने नहीं पूछा और हम नहीं जानते कि एसपी इसका क्या जवाब देते?

लेकिन इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि वे भारी परेशानी में पड़ते, यदि वे यह कहते कि वे मिशन के तहत पत्रकारिता कर रहे हैं, क्योंकि अपने को किसी भी रूप में मिशनरी मानना उनके लिए असंभव था सो, गणेश जी ने ही लगभग 6 से 7 साल पहले या शायद उससे भी पहले पत्रकारिता के व्यावसायिक हो जाने के खतरे पर एक लम्बा लेख लिखा था, इस लेख में मंत्री जी ने व्यावसायिकता के खतरे को स्वीकार करते हुए अपने पेशे के प्रति पत्रकार की प्रतिबद्धता को ही व्यावसायिकता की काट बताया था, उस वक्त हमें यह लगा था कि मंत्री जी एक अति सरलीकृत बात कह रहे हैं, लेकिन आज जब पत्रकारिता एक दम बाजारू हो गयी है, तो उनकी बात का मर्म समझ में आता है, एक वैकल्पिक
पत्रकारिता के विकसित होने और सत्तारूढ़ होने के लिए बाजार की शक्तियों यानी पूंजीवाद के खिलाफ जनशक्ति का उत्थान आवश्यक है, याद रखें, एक सच्ची वैकल्पिक पत्रकारिता तभी संभव हो सकती है, जब वह विज्ञापनों से मुक्त हो जहां विज्ञापनों के लिए जगह नहीं होगी, वहीं सच्ची पत्रकारिता हो सकती है, क्योंकि बाजारवाद इस तरह से हावी है कि आप चाह कर भी पत्रकारिता नहीं कर सकते? और यह एसपी को बहुत पहले ही समझ आ गयी थी, इसीलिए वे कभी मिशनरी की बात नहीं किया करते थे, बल्कि उन्हें मिशनरी कहने वालों से सख्त चिढ़ थी।

यानी वे कहना यही चाहते थे कि यदि अपने पेशे के प्रति पत्रकार समर्पित हों, तो पत्रकारिता बची रह सकती है, निष्ठा और ईमानदारी से किया हुआ काम कभी भी बेकार नहीं जाता, वे यही कहना चाहते थे शायद दरअसल, हर चीज के विकल्प हमेशा होते हैं और उन्हें मौजूदा व्यवस्था में ही ढूंढना पड़ता है, मंत्री जी (गणेश ) का वह लेख एसपी को याद था या नहीं, यह तो हमें पता नहीं, पर हमारे खयाल से जब वह अपनी प्रतिबद्धता की बात कर रहे थे, तो उनका मतलब निश्चय ही पत्रकारिता से प्रतिबद्धता का वह अर्थ नहीं था, जो अमूमन लोग लगाते हैं।

किसी भी प्रकार की प्रतिबद्धता, जैसे किसी लेख के लिए सबसे बड़ी प्रतिबद्धता उनके अपने लेखन से है, वैसे किसी पत्रकार के लिए प्रतिबद्धता पत्रकारिता से होना बहुत ही स्वाभाविक है, टालस्टॉय महान लेखक थे, तो उनकी महानता का कारण उनके विचार नहीं थे, बल्कि लेखन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता थी, जो सत्य को पहचानती थी, और यही लेखन उन्हें महान बनाता है, इसका मतलब यह है कि अपने पेशे से प्रतिबद्धता न रखना एक डॉक्टर और एक शिक्षक को ही नहीं, बल्कि एक व्यापारी तक को समाज के प्रति दायित्वहीन बना सकता है, अपने पेशे के प्रति अगर पत्रकार प्रतिबद्ध हों, तो कितने ही बड़े बड़े पूंजीपति पत्रकार क्यों न बन जाएं, क्यों न जन्म ले लें, अंतत: पत्रकारिता बची ही रहेगी, उस पर किसी तरह की आंच नहीं आएगी...

2 comments:

Anil Arya said...

sahi kaha aapne nirmlendu ji.. Ptrakar ki apne pese ke prati pratibaddhta jivit rahegi to patrkarita bhi jivit rahegi....lekin yah pratibaddhta sp singh sarikhi ho yah nihayat jaruri he varna sankat vikat he, sammukh he, abhi nahi chete to der ho jayegi aur fir chetne ka koi labh nahi hone wala.....sadhuvaad

Anil Arya said...

sahi kaha aapne nirmlendu ji.. Ptrakar ki apne pese ke prati pratibaddhta jivit rahegi to patrkarita bhi jivit rahegi....lekin yah pratibaddhta sp singh sarikhi ho yah nihayat jaruri he varna sankat vikat he, sammukh he, abhi nahi chete to der ho jayegi aur fir chetne ka koi labh nahi hone wala.....sadhuvaad