अंकित माथुर
मौलाना आज़ाद ने लिखा था कि जो होने वाला है कोई क़ौम अपनी मनहूसियत से उसे रोक नहीं सकती। यक़ीनन वो दिन आया जब हिंदुस्तान 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ। और गुलामी की वो बेड़ियां जो हमने अपनी नादानी की वजह से अपने पांव में डाल ली थीं वे हिंदुस्तान के जियालों ने काट गिरायीं। हिंदुस्तान की आज़ादी के महासमर में शायद ही किसी धर्म और मजहब के लोगों ने उसमें हिस्सा न लिया हो। लेकिन हिंदुस्तान की आज़ादी ऐसे वक्त आयी जब बंगाल में बहुत ज़बर्दस्त अकाल पड़ा था और लाखों लोग भूख और प्यास से मर गये थे। बंगाल के इस मंज़र को देखकर हिंदुस्तान के कवि एवं लेखकों के पहलू में दिल तड़प उठे और उर्दू का मशहूर कवि वामिक जौनपुरी चिल्ला उठा -
"उत्तर देश में डुग्गी बाजी फैला दु:ख का जाल,
भूख की अग्नि कौन बुझाये, सूख गये सब ताल...
सुंदर नारी भूख की मारी, घर-घर बेचे लाज रे
साथी भूखा है बंगाल रे साथी भूखा है बंगाल...''
साथ ही साथ हिंदुस्तान की आज़ादी ऐसे समय में आयी जब मुल्क का बंटवारा हो गया, हिंदू और मुसलमान दोनों एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हो उठे। पंजाब में हिंदुओं और सिखों का क़त्लेआम हुआ और बिहार में मुसलमानों का। इंसानियत मौत के दरवाज़े पर खड़ी मुस्कुराती रही और हैवानों का राज्य हो गया। लाखों लोग पंजाब से दिल्ली में आ बसे। गोया एक पंजाब दिल्ली में आ बसा और दिल्ली के मुसलमान पंजाब में जा बसे। इस ड्रामे को देखकर उर्दू के मशहूर शायर अली सरदार जाफरी ने मुल्क के नेताओं से यह सवाल पूछा, "कौन आज़ाद हुआ? किसके माथे से गुलामी की स्याही छूटी।
""खंज़र आज़ाद है सीनों में उतरने के लिए
और मौत आज़ाद है लाशों पे गुजरने के लिए।''
दूसरी तरफ मजाज ने यह आवाज लगायी कि यह इन्क़लाब का मुसदा (साया) है इन्क़लाब नहीं। ये आफताब का परतव (साया) है आफताब नहीं। डा. राही मासूम रज़ा ने नेताओं और फिरक़ापरस्त लोगों की तरफ उंगली उठाते हुए कहा कि
एक मिनिस्टर है तस्वीर के वास्ते और एक मिनिस्टर है ताज़िर के वास्ते
और जनता है सिर्फ ज़ंजीर के वास्ते।
वो लोग जिन्होंने हिंदुस्तान का बंटवारा करवाया उनकी तरफ इशारा करते हुए किसी शायर ने कह दिया कि ..
तुमने फ़िरदौस के बदले में जहन्नुम देकर कह दिया हमसे कि
गुलिस्तां में बहार आयी है
और चंद सिक्कों के एवज में चंद और मिलों की ख़ातिर तुमने
शहीदों का लहू बेच दिया और बाग़वां बन के उठे और चमन बेच दिया।
लेकिन चंद लोग ऐसे भी थे जिन्होंने हिंदुस्तान के बंटवारे की सख़्त मुख़ालफत की थी। मसलन मौलाना आज़ाद ने 1929 में कहा, ""अगर आज़ादी फरिश्ता कुतुब मीनार पर खड़े होकर ये ऐलान करे कि हिंदुस्तान को 24 घंटे में आज़ादी मिल सकती है बशर्ते कि वो हिंदू और मुसलमान की दोस्ती को अलग कर दे तो मैं कहूंगा कि भारत को ऐसी आज़ादी नहीं चाहिए।
इस बँटवारे को देखकर डॉ. राही मासूम रज़ा ने ये लिखा था कि,
""चंद लुटेरे बड़े आदमी बन गये,
और हम अपने ही घर में शरणार्थी बन गये।''
लेकिन हमें यह जान लेना चाहिए कि उर्दू के शायरों और लेखकों ने इन्क़लाब जैसा ख़ूबसूरत और हिम्मतवर शब्द दिया जिसे हिंदू और मुसलमानों ने अपने गले से लगाया। हिंदुस्तान की आजादी में हिंदू और मुसलमानों ने एक-दूसरे का इतना साथ दिया, जो आज हिंदुस्तानियों के लिए रास्ते के चिराग़ का काम दे सकता है मसलन रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां की दोस्ती की कहानी करोड़ों लोग जानते हैं। लेकिन शायद उनको ये नहीं मालूम कि जब चंद अंग्रेज़ों के पिट्ठू अशफाक उल्ला खां से मिलने गये और कहा तुम मुसलमान हो हिंदुओं का साथ क्यों देते हो, अंग्रेज़ों की मुख़ालफत क्यों करते हो और मुल्क की आज़ादी की बात क्यों करते हो? इस पर अशफाक उल्ला खां ने भूखे शेर की तरह चिंघाड़कर कहा कि मुझे हिंदुओं का ग़ुलाम बनना तो मंजूर है लेकिन यह मंजूर नहीं कि मैं और मेरी क़ौम अंग्रेजों के गुलाम रहे। हम अपने ख़ून के आख़िरी क़तरे तक अंग्रेज़ों से लड़ते रहेंगे। ये था मुल्क़ की आज़ादी के लिए सूली पर चढ़ने वाले लोगों का ज़ज्बा और वतन की मुहब्बत।
और हिंदुस्तान के आख़िरी बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने जो ख़्वाब हिंदुस्तानियों के लिए देखा था उसे हिंदुस्तानियों ने पूरा कर दिखाया। यानी उन्होंने कहा था कि -
""हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
सद्रे लंदन तक चलेगी तेग़ (तलवार) हिंदुस्तान की।
बहादुर शाह ज़फर ने क़ौम को जो पैग़ाम व नारा दिया था उसी का नतीज़ा था कि उधम सिंह ने जनरल डायर जिसने जालियांवाला बाग़ में हिंदुस्तानियों पर गोलियां चलवायी थीं, अपनी गोलियों से भून डाला और दूसरी तरफ ग़ज़नफर अली ख़ां ने पोर्ट ब्लेयर में अपने ख़ंज़र से लार्ड म्यों का क़त्ल कर डाला। नेताजी सुभाष चंद्र बोस जब रंगून गये थे तो वो रंगून में बहादुर शाह ज़फर की कब्र पर भी गये और कहा के ऐ हिंदुस्तान के आख़िरी बादशाह जब हिंदुस्तान आज़ाद होगा तो तेरी लाश को हम हिंदुस्तान ले जाएंगे और तेरी लाश को भारत की सरज़मी पर दफन करेंगे; लेकिन अफसोस के साथ लिखना पड़ता है कि मुल्क की आज़ादी के 60 साल गुज़र चुके हैं लेकिन नेताजी के इस वादे को पूरा करना तो दूर उनके ख़्वाब और वादे के बारे में कोई सोचता भी नहीं है।
जय हिन्द...
एक ईमेल से उद्धत.
14.8.08
शायरों की नजर में देश की आज़ादी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
अंकित भाई,बहुत सुंदर है जो भी लिखा है, मैं इसका प्रिंट निकाल कर कल बांटने वाला हूं लोकल ट्रेन में......
आप को आज़ादी की शुभकामनाएं .....
अंकित भाई,
आजादी के दीवाने की बयार, शानदार लिखा है आपको आजादी दिवस की बधाई.
जय जय भड़ास
Post a Comment