आज सुबह ही मुझे किसी मित्र ने सावधान किया कि मैं अपनीए ट्टिपणियों में किसी व्यक्ति का, किसी पोर्टल का या किसी वेब साईट का नामोल्लेख ना करूँ. बताया कि इससे वे नाराज हो सकते हैं. पहले तो मैं चौंका, कि लेखक या संस्थायें क्या इतनी असहिष्णु हो सकती हैं कि नामोल्लेख मात्र से भङक जाय, भले वे जमके किसी के भी कपङे भरे बाज़ार खींच दे रहे हैं! और अभी तो हम्माम में सभी नंगे वाली हालत है, सब समझते हैं, सब जानते हैं... फ़िरभी यह पर्दादारी! यही दुर्भाग्य है भारत का ( भूषण का नहीं ) . कथनी-करनी भेद ने भारत को ( फ़िर भूषण याद आये!) कहीं का नहीं छोङा. खैर, अभी बात इतनी सी है कि अभी –अभी य्क आलेख पढा है. बाबरी विध्वंस का मूल जिम्मा नेहरू-गाँधी वंश समेत राजीव गाँधी पर दिया है लेखक ने. बहुत शानदार समीक्षा है, लेकिन फ़िरभी समाधान तो कहीं नहीं. समाधान एकपक्षीय नहीं होता, सार्वभौमिक होता है. क्या राम-मन्दिर समस्या का सार्वभौमिक समाधान संभव है? क्या हर पक्ष को मंजूर हो सकने वाला कोई प्रस्ताव आजके ५०० या १००० साल बाद भी बन सकता है? या फ़िर इस प्रश्न को इस प्रकार रखा जाय कि दोनों समुदाय अपने-अपने इतिहास-बोध से छुटकारा पा सकते हैं? क्या दोनों समुयाय अपनी-अपनी पांथिक मान्यताओं से ऊपर उठ सकते हैं?... बात किसी एक के मानने से नहीं बनेगी. बात दोनों की है. बात दोनों के साथ-साथ होने की है. बिल्कुल वैसे ही जैसे गुलाब का फ़ूल काँटों के साथ है. न फ़ूल शिकायत करता है, न काँटा उसे परेशान करता है. बल्कि कभी किसी राजनेता ने फ़ूलको भङकाने की कोशिश की; उसे यह बताने की कोशिश की कि तुम्हारी सुन्दरता के साथ बेमेल भद्दा काँटा कहाँ से आ गया, चलो इसे हटा देते हैं; तो फ़ूल इसका विरोध करेगा. फ़ूल ही क्यों, दोनों एक साथ विरोध करेंगे- काँटा और फ़ूल. क्योंकि दोनों साथ हैं. अब कोई इस उदाहरण से अपनी तुलना करके स्वयं को काँटा मानकर भङक जाय तो कोई क्या करले. बात साथ-साथ होने की चल रही है. न तो काँटा, न तो फ़ूलकी. काँटा और फ़ूल एक दूसरे को अलग जानते ही नहीं. प्रकृति के नियमानुसार साथ हैं. बस हैं. तो क्या ऐसा कोई प्रस्ताव बन सकता है?
मैंने लेखक से इस कुण्डली में यही पूछा है, कि उसके नाम के साथ जो शुक्ल जुङा है, उसके दर्शन तो उसके आलेख में नहीं हैं. नजर बिल्कुल सही है. सारी बातों को आर-पार देख पा रही है, पर शुक्ल वाला भाग अनछुआ क्यों रह गया दोस्त! क्योंकि भ्रमकी स्याही जो पुती है.
सही नजर है प्रेमकी, पर शुक्ल कहाँ है दोस्त!
स्याही भ्रम की है पुती, दिखता केवल गोश्त.
दिखता केवल गोश्त, ये जीवन है अनदेखा.
तभी समस्या, समाधान का मुँह ना देखा.
कह साधक कवि नजर टिकाओ राम-तत्व पर.
वहीं शुक्ल है दोस्त! प्रेम की सही जहाँ नजर.
नाम तो ठीक मगर प्रेम को भी ठीक से नहीं जाना. अब मैं क्या करूँ.. नाम तो आता ही है. प्रेम न आये... तो क्या आये? पहले भी जितना लिखा सब लेखकों के लिये और स्वयं अपने लिये लिखा. लगता है कि लेखक अपनी पोस्ट देकर उसपर आई प्रतिक्रियायें नहीं देखते. जिसने मुझे टोका, दूसरों के लिये टोका. अपने यश पर आँच आती हो तो हर कोई वन्त बन जाता है. मेरा स्वयं का अनुभव भी यही है. किसी को भारत का भूषण बताना चाहा तो इसी बात पर भङक गये, कि मैं भारत भूषण नहीं हूँ. अब उनके लिये भी ऐसा की कोई आलेख बनाना पङेगा. आखिर सँवाद तो बनाना ही है. सँवाद बनाना है, क्यों कि सारा समाधान संवाद से ही बनता है. समझ सँवाद से बनती है. वरना तो सारा विवाद है. वाद वही जो सँवाद बनाये. सँवाद बने तो बात बने. सँवाद बने, सही समझ का सँवाद बने तो संसद, वरना दल-दल. सँवाद बने तो कोप, वरना नो होप. सँवाद बने तो धरा स्वर्ग, वरना..... ..... साधक-उम्मेद
10.12.09
प्रेम की सही नजर !
Posted by Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak "
Labels: प्रेम
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