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8.4.11

बाइसिकिल विरुद्ध कार भाग- १



(सौजन्य=गुगल इमेज)


" दो पहियों की यह साइकिल का,कैसा  ग़जब  है  खेल?
  पेट ख़ाली, साँस फूला है,जीवन कैसा अजीब  बे-मेल..!!"

 
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बाइसिकिल विरुद्ध कार (भाग -१)
प्यारे दोस्तों,

हमारे शहर के चौराहे पर रेड सिग्नल के कारण,करीब-करीब सभी वाहन एक दूसरे के पास-पास खड़े हुए थे । अचानक भीड़ के एक कोने में से झगड़े  की आवाज़ सुनाई दी । मानव सहज कौतूहल वश होकर मैं भी  यह तमाशा देखने वहाँ रुक गया ।
 
मैंने देखा, भारीभरकम भीड़ के बीच एक साइकिल सवार, उसके पास में खड़ी हुई ब्राँड न्यू कार पर अपना हाथ रखकर खड़ा था और साइकिल का पैड़ल कार के साथ लग जाने की वजह से कार के दरवाज़े पर कुछ हल्की सी खरोंचे आ गई थीं । अब नयी नवल  दुल्हन जैसी गाड़ी को कोई  फ़ालतू  साइकिलिस्ट  टच  करें, तो कौन गुस्सा  न  हो ? और क्या..!! बस इसी बात पर कार और साइकिलवाले के बीच झगड़ा शुरु हो गया । पहले गाली गलोच और फिर मार-पीट तक की नौबत आ गई ।
 
हालाँकि, ग्रीन सिग्नल के होते ही, लाइन में पीछे खड़े वाहन के अविरत हॉर्न बजाने के कारण कार का मालिक और वह साइकिलसवार बडबडाते हुए अपने-अपने रास्ते  चल  दिए ।
 
आज यह वाक़या याद करने का कारण? सरल है..!! उस दिन, वह कार चालकने, साइकिल सवार को," यु स्टूपिड, स्ट्रीट डॉग?" की गाली दी थीं, ये बात मेरे मन में  आजतक अंकित है । वैसे, मैं आजतक ये समझ नहीं पाया, कार चालकने साइकिलवाले को, `स्ट्रीट डॉग` क्यों कहा था..!!  बहुत चिंतन के बाद मुझे `गली के कुत्ते` और साइकिलसवार  में  कुछ  साम्य  ज़रुर  महसूस  हुआ ।
 
गली के आवारा कुत्ते भी, अच्छी वाली नयी कार को देखते ही, कार और कार मालिक के प्रति द्वेषभाव से, कुछ कर गुजरने के लिए, अप्रतिम साहस, अभिमान, शोर्य,  तिरस्कार जैसे, कई भाव एक साथ चेहरे पर धारण करके, कार के आगे - पीछे सर्वे करने के पश्चात, कार के किसी  एक पहिए को, मानो शुद्ध गंगा-जल से स्नान करा रहा हो, ऐसे लघुशंका का शुभ कार्य, अत्यंत जल्दबाज़ी में निपटाकर, विजयी अदा के साथ, `कॅटवोक` करते हुए अपने कूल्हों को झूलाता हुआ, कुत्ता अपनी कुतिया को साथ लेकर चल देता है ।
 
वैसे, आजतक किसी `कार` वाले `बेकार` इन्सान ने, कुत्ते को ` यु स्टूपीड, स्ट्रीट साइकिलिस्ट..!!` जैसी गाली  शायद ही प्रदान की हो..!!
 
मैं  सोचता हूँ, क्या उस साइकिलसवार को  `स्ट्रीट डॉग` का उपनाम देने वाले कारचालकने खुद अपनी छोटी उम्र में कभी भी तीन पहिए की और पाठशाला जाते वक़्त दो पहिए की साइकिल कभी  चलाई न होगी?
 
ग़रीब को या अमीर, सेकन्ड हेन्ड हो या नयी, तीन पहिए की हो या दो पहिए की, पर बचपन में साइकिल  सीखने का उत्साह और उससे भी अधिक छोटे बच्चों कों कहीं चोट लग न जाए, यही फ़िक्र में हमारी साइकिल के पीछे, सरपट दौड लगाते हुए हमारे बड़े बुझुर्ग की गर्मजोशी, शायद ही कोई आजतक भूल पाया हो..!!
 
मुझे याद है, सन- १९६०-७० तक, साइकिल रिपेयरिंगवाले की दुकान में, छोटे-बड़े सब को, प्रति घंटे के हिसाब से, दस पैसे से लेकर एक रुपये तक किराया वसूल करके, साइकिल भाड़े पर मिलती थीं । (शायद अभी भी मिलती होगी?)

ऐसी ही, भाडे की साइकिल लेकर,  मैंने  साइकिल चलाना सीखा था। हाँ, ये बात ओर है की, साइकिल का हेन्डल कस कर पकड़ने के साथ-साथ अपना बैलेंस संभाले रखने की जद्दोजहद में, साइकिल का पेडल चलाना मैं अक्सर भूल जाता था..!! (नन्हीं सी जान क्या-क्या याद रखें?) परिणाम स्वरूप बगैर पेडल चलाये, साइकिल एकदम धीमा हो कर, कहीं भी खड़ी रह जाती और मैं,  ध..ड़ा..म से, भूमि शरण हो जाता था । कभी-कभी तो मुझे छोटी-मोटी चोट भी लग जाती थीं ।

रोज़-रोज़ मेरी ऐसी चोट-(दार) हालत देखकर एक दिन, मेरे चचेरे बड़े भैया ने मुझे सही तरीके से साइकिल सिखाने का बीड़ा उठाया और साथ में यह प्रण भी लिया, "साइकिल सिखाते-सिखाते चाहें प्राण (मेरे)भी चले जाएं पर, वचन (उसका) न जाए..!!"

साइकिल सिखाने के लिए, किसी समर्थ महाज्ञानी गुरु की भाँति बड़े भैया ने मेरे लिए एक सरल उपाय सोचा..!!

साइकिल चलाते समय, साइकिल के हेन्डल का बैलेंस पर, मेरा ध्यान आराम के साथ लगा सकूँ और मुझे साइकिल का पेडल लगाने की जरुरत न महसूस हो..!! यही सोचकर, वह मुझे साइकिल के साथ, हमारे गाँव के तालाब के ऊँचे टीले की सब से उंची चोटी पर ले गया । उस टीले पर चढ़कर भाई ने साइकिल पकड़कर, मुझे साइकिल पर बिठा दिया । फिर साइकिल को ज़ोर का धक्का देकर , मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया ।

शुरू में थोड़ी दूर तक तो, मैं पैडल उद्यम मुक्ति का आनंद, बड़े चाव से लेता रहा, मगर आधी ढलान तक साइकिल के रगड़ने के बाद, साइकिल ने महत्तम, तीव्र गति पकड़ ली, इतना ही नहीं, तीव्र गति  के कारण साइकिल का हेन्डल दायें-बायें, ज़ोर ज़ोर से हिलने-डुलने लगा..!!

अति गति की दुर्गति में, मानो ये सत्यानाशी भी कम पड रही हो, टीले की ढलान के संकडे रास्ते पर, मेरी डामाडोल होती साइकिल के सामने, सिर पर, पानी से भरे बड़े-बड़े मटके उठाकर आती हुई, कुछ पनिहारीओं को, मैंने देखा..!!

मेरी छठी इन्द्रियने तुरंत मुझे सचेत कर दिया की, अब अकस्मात होना तय है, सिर्फ यही देखना बाकी रह जायेगा की, हम में से किस को, कितनी चोटें आई है..!!  ये भी पता था की, अगर ग़लती से भी, उन पनिहारीओं को  कुछ हुआ, तो मुझे साइकिल के साथ गिरने के बाद भी, उन महिलाओं के हस्तप्रसाद से, अनगिनत अतिरिक्त चोटें भी लगने वाली थीं..!!

इतने में ही, अपनी बातों में मशरूफ उन पानी-(दार) पनिहारीओं ने दूर से, साइकिल पर, उनकी ओर, मुझे सरपट आते देख लिया । कीसी अनहोनी से किनारा करने के लिए, सारी महिलाएं, संकडे रास्ते की  दायीं ओर, तपाक से खिसक गई..!! पर पता नहीं क्यों, मेरे न चाहते हुए भी, मेरी साइकिल का हेन्डल भी, उन पनिहारीओं की तरफ मूड ने लगा..!! फिर से, अपनी ही ओर साइकिल को सरपट आती देखकर, अब कुछ महिलाएं अपन मटका जमीन पर पटककर, गभराहट से, बांयी ओर भागी..!! फिर मेरी इच्छा विरुद्ध, साइकिल का हेन्डल बांयी ओर मुड़ ने लगा..!!  `ये क्या हो रहा है`, मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था? 

प्यारे दोस्तों, इसी लेख का और ज्यादा रोचक `भाग-२` का आनंद आप यहाँ उठा सकते हैं - धन्यवाद ।

मार्कण्ड दवे । दिनांकः ०८-०४-२०११.

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