2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला केंद्रीय सत्ता के लिए एक और शर्मिदगी का क्षण है। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि उसके सामने ऐसे क्षण बार-बार आ रहे हैं। अभी दो दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री कार्यालय को कठघरे में खड़ा किया था। खास बात यह है कि उस फैसले के केंद्र में भी पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा ही थे और ताजा फैसले में भी। 2जी स्पेक्ट्रम के सभी 122 लाइसेंस अवैध करार देकर उन्हें रद करने के शीर्ष अदालत के फैसले ने यह साबित कर दिया कि जब घोटालेबाज ए.राजा कुछ कारपोरेट घरानों से मिलकर मनमानी करने में लगे हुए थे तब केंद्रीय सत्ता सोई हुई थी। दुख, क्षोभ और लज्जा की बात यह रही कि जब उसे झकझोर कर इस महाघोटाले से अवगत कराया गया तो उसने शुतुरमुर्गी आचरण का परिचय दिया। इतना ही नहीं उसकी ओर से हरसंभव तरीके से राजा का बचाव करने की भी कोशिश की गई। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय वह था जब खुद प्रधानमंत्री ने राजा को क्लीनचिट देते हुए किसी तरह के घोटाले से इंकार किया। इसके बाद जब नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने घोटाले पर मुहर लगा दी तो सच को स्वीकार करने के बजाय इस संवैधानिक संस्था की ही खिल्ली उड़ाने का काम किया गया। यह काम सरकार ने भी किया और उसका नेतृत्व करने वाली कांग्रेस ने भी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बुरी तरह शर्मसार सरकार के पास अपनी सफाई में कहने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन वह अभी भी खुद के सही होने और अपनी सेहत पर फर्क न पड़ने का दंभ भर रही है। इससे तो यही लगता है कि उसने यह ठान लिया है कि कुछ भी हो जाए वह सच का सामना करने के लिए तैयार नहीं होगी। यह और कुछ नहीं बची-खुची साख गंवाने का सुनिश्चित रास्ता है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सारी गलती राजा पर थोपने के साथ ही स्पेक्ट्रम आवंटन की गलत नीति बनाने के लिए जिस तरह भाजपा से माफी मांगने के लिए कहा गया वह हास्यास्पद भी है और केंद्रीय सत्ता के अहंकारी रवैये का नमूना। केंद्र सरकार जानबूझकर इस तथ्य की अनदेखी कर रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने स्पेक्ट्रम आवंटन के मामले में राजग सरकार की पहले आओ पहले पाओ नीति को त्रुटिपूर्ण करार देने के बावजूद संप्रग सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया कि 2008 के पहले के लाइसेंस भी खारिज किए जाने चाहिए। यह समझना कठिन है कि केंद्र सरकार ने बदली हुई परिस्थितियों में स्पेक्ट्रम आवंटन की नीति को दुरुस्त करने की जरूरत क्यों नहीं समझी और वह भी तब जब इसकी मांग भी की जा रही थी? क्या राजग शासन द्वारा तय की गई नीति कोई पत्थर की लकीर थी? मौजूदा दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल की मानें तो सारी गड़बड़ी राजा ने की। उन्होंने ही रातोंरात नियम बदले और जब वह ऐसा कर रहे थे तो न तो वित्तमंत्री पर उनका कोई जोर चल रहा था और न ही प्रधानमंत्री पर। क्या यह कहने की कोशिश की जा रही है कि दूरसंचार मंत्री के रूप में राजा प्रधानमंत्री और कैबिनेट से भी अधिक शक्तिशाली थे? नि:संदेह ये कुतर्क सच्चाई स्वीकार करने से बचने के लिए दिए जा रहे हैं। आखिर केंद्र सरकार और उसके रणनीतिकारों को अपनी भूल स्वीकार करने में संकोच क्यों हो रहा है?
5.2.12
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