सलमान रुश्दी मामले से भारत में अभिव्यक्ति की आजादी पर नए सवाल उभरते देख रहे हैं एनके सिंह
वही समारोह और वही समारोह-स्थल, पर 2007 में सलमान रुश्दी स्वीकार्य थे, तब एक पत्ता भी नहीं खड़का था। फिर क्या वजह है कि इस बार वह स्वीकार्य नहीं हुए? सैटेनिक वर्सेस कल नहीं लिखी गई थी। क्या वजह है कि कांग्रेस की राजस्थान सरकार और दिल्ली में बैठे उनके आका अबकी बार अपने छहों अंगों पर धराशायी हो गए और वह भी साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं के भाव से। अन्ना और लाखों-लाख देश की जनता एक लोकपाल बिल चाहती थी, लेकिन देश की पार्लियामेंट ने पारित नहीं होने दिया। व्यापक जनभावना जिस सरकार व राजनीतिक वर्ग को झुकाने में असफल रही उसे देवबंद के एक फतवे ने झुका दिया। पांच राज्यों के चुनाव में भ्रष्टाचार तो मुद्दा नहीं बन पाया, लेकिन 23साल पहले अपनी लिखी हुई किताब की वजह से सलमान रश्दी जयपुर साहित्यिक मेला में आएंगे कि नहीं आएंगे, एक मुख्य मुद्दा बन गया। अगर हम राज्य की सर्वमान्य परिभाषाओं को देखें तो उन सबमें एक जो सबसे प्रमुख बात नजर आती है वह है-एक सफल राज्य वह है जिसमें प्रजा संप्रभु के प्रति एक आदतन निष्ठा रखती है और वह ऐसा इसलिए करती है, क्योंकि उसको विश्वास होता है कि राज्य उनकी बेहतरी के लिए बगैर किसी भेद-भाव के काम कर रहा है। लिहाजा जितना ही जनहित के लिए राज्य उद्यम करेगा, उसी के अनुरूप जनता का विश्वास राज्य व उसकी संस्थाओं में बढ़ता है या घटता है। जयपुर साहित्य समारोह के पूरे घटनाक्रम को लें। जिस तरह राज्य की कांग्रेस सरकार ने अपने दिल्ली के आकाओं के इशारे पर सलमान रुश्दी को आने से रोका, वह न केवल बचकाना था, बल्कि राज्य के प्रति प्रजा की निष्ठा को झकझोरता है। ऐसा लगा मानो अगर चुनाव नजदीक हों तो सत्ता में बैठे लोगों को किसी हद तक झुकाया जा सकता है। पहले राज्य के पुलिस के गुर्गो ने संदेशा भेजा कि सलमान रुश्दी को मारने के लिए मुंबई से आतंकवादियों ने दो लोगों को जयपुर रवाना किया है। रुश्दी डर के मारे रुक गए, क्योंकि इतने बड़े देश की लाखों-करोड़ों पुलिस शायद उन दो हत्यारों को रोक पाने में सक्षम नहीं थी। उसके बाद आयोजकों ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए रुश्दी का भाषण कराने का आयोजन किया। सरकार फिर घुटनों पर आई और बताया गया कि कुछ लोग समारोह स्थल में पहुंचे हैं और कुछ भी गड़बड़ी कर सकते हैं। साहित्य के आयोजनकर्ता एके-47 की जुबान नहीं समझते, अगर समझते हैं तो पुलिस का इशारा। आयोजन रद्द कर दिया गया। इसी बीच प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू का एक लेख आता है जिसमें उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि सलमान रुश्दी कितने घटिया दर्जे के लेखक हैं। प्रश्न यह है कि क्या किसी घटिया दर्जे के लेखक का अन्य देश के साहित्यिक समारोह में भाग लेना मना है? क्या ऐसे घटिया लेखक को दो लोग मारने आएं तो राज्य का कार्य उनकी सुरक्षा करना नहीं है? इसके अलावा अगर समारोह स्थल पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए घटिया लेखक की तस्वीर भी दिखाई जा रही हो तब आयोजन में आए साहित्यकारों और उनके बच्चों की सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी नहीं है? सलमान रुश्दी को घटिया बताने वाले लोगों से यह भी जानना होगा कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लेखक का उम्दा होना भी कोई शर्त है? क्या संविधान के अनुच्छेद 19(1) क में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में अनुच्छेद 19(2) में वर्णित आठ प्रतिबंधों में एक भी लेखक के घटिया होने के बारे में है? आइए हम आपको कुछ तथ्य बताते हैं। सलमान रुश्दी ने यह किताब 1988 में लिखी थी। दुनिया के मुसलमानों के एक वर्ग ने इस पर आपत्ति जतायी। भारत में इस किताब पर पाबंदी नहीं लगाई गई, बल्कि इसके आयात पर पाबंदी लगाई गई। उधर ब्रिटेन में जो ईश-निंदा कानून है वह सिर्फ इसाई धर्म का संज्ञान लेता है। किताब प्रकाशित होने के बाद ब्रिटेन के कुछ मुसलमानों ने जब वहां की सरकार से अपील की कि इस कानून का दायरा सभी धर्मो तक बढ़ाया जाए तब व्हाइट हॉल (वह बिल्डिंग जहां से सत्ता संचालित होती है) में बैठी सरकार ने साफ मना कर दिया। याद रखिए कि ब्रिटेन दुनिया में उदारवादी प्रजातंत्र होने के लिए विख्यात है और ब्रिटेन की संसद दुनिया की तमाम संसदों की जननी मानी जाती है। सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि अपने को उदारवादी कहने वाले वह लेखक जो अपनी कलम से देश में आंदोलन की आग लगाया करते हैं वह भी जयपुर की घटना पर पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। एक न्यूज चैनल ने जब देश के सभी प्रख्यात साहित्यकारों से बात करनी चाही तब उन्होंने यह कहते हुए साफ मना कर दिया कि हम इस वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहते। यहां तक कि समारोह स्थल पर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा था, तब एक भी बुद्धिजीवी तन कर खड़ा नहीं हुआ और गांधीवादी तरीके से भी विरोध करने की ताकत नहीं जुटा पाया। उस पर से तुर्रा यह कि सलमान रुश्दी के पास पासपोर्ट था, वीजा था, उनको आने का निमंत्रण था, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दम भरने वालों ने अब सलमान रुश्दी को ही घटिया दर्जे का साहित्यकार बताना शुरू कर दिया है। सत्ता का सुख भोगने वाला एक बड़ा वर्ग है जो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से बेहद चिंतित है। यह वर्ग इस अधिकार के सभी उपादानों को चाहे वह मीडिया हो, सोशल नेटवर्किग हो, अन्ना हजारे का आंदोलन हो, इसे खत्म करने में लगा हुआ है। वह हजारे को ट्रक ड्राइवर बताकर, मीडिया को बे-पढ़ा लिखा बताकर और सोशल नेटवर्किग को लंपटों का कामुक मनस-विलास बताकर कानून लाना चाहता है। सलमान रुश्दी की घटना को भी इसी प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। (लेखक ब्राडकास्ट एडीटर्स एसोसिएन के महासचिव हैं)
साभार:-दैनिक जागरण
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