बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से धर्मनिपरपेक्ष चेहरे को राजग की ओर प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाए जाने की मांग पर भाजपा अभी कुछ बोलती, इससे पहले ही भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने यह कह कर कि हिंदूवादी चेहरे का प्रधानमंत्री बनाने में क्या ऐतराज है, एक बार फिर उस पुरानी बहस को जन्म दे दिया है, जिसके चलते भाजपा को दोहरे चरित्र से जुड़ी कठिनाई आती रहती है।
हालांकि राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के बीच यकायक प्रधानमंत्री पद का मुद्दा उठाने के पीछे नीतिश कुमार की जो भी राजनीति है, उसके अपने अर्थ हैं, मगर उसके जवाब में तुरंत भागवत का जवाब आना गहरे मायने रखता है। ऐसा लगता है कि नीतिश ने उपयुक्त समय समझ कर ही सवाल उठाया और भागवत को भी लगा कि इससे बेहतर मौका नहीं होगा, जबकि भाजपा को उसकी जड़ों से जोड़ा जाए।
इस प्रसंग में जरा पीछे मुड़ कर देखें। अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र का सपना पाले हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनीतिक चेहरे जनसंघ को जब अकेले हिंदूवादी दम पर सत्ता पर काबिज होना कठिन लगा तो अन्य विचारधारा वाले संगठनों अथवा यूं कहें कि कांग्रेस विरोधी व कुछ उदारवादी संगठनों का सहयोग लेकर जनता पार्टी का गठन करना पड़ा। वह प्रयोग सफल रहा और नई पार्टी इमरजेंसी से आक्रोशित जनता के समर्थन से केन्द्र पर काबिज भी हुई। मगर यह प्रयोग इस कारण विफल हो गया क्योंकि उसमें फिर कट्टर हिंदूवादी और उदारपंथी का झगड़ा बढ़ गया। ऐसे में हिंदूवादी विचारधारा वाले अलग हो गए व भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। भाजपा यह जानती थी कि वह अकेले अपने दम पर फिर सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती, इस कारण उसने फिर गैर कांग्रेसी दलों के साथ गठबंधन किया और फिर से सत्ता पर आरूढ़ हो गई।
जाहिर सी बात है कि ऐसे गठबंधन की सरकार को अनेक दलों के दबाव की वजह से अपना हिंदूवादी एजेंडा साइड में रखना पड़ा। उस वक्त संघ और हिंदूवादी संगठनों को तकलीफ तो बहुत हुई, मगर किया कुछ जा नहीं सकता था। इसी दौर में भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे को भुनाते हुए अपने बाहरी स्वरूप में बदलाव किया। भाजपा ने हिंदूवाद की परिभाषा को इस रूप में व्यक्त किया कि हिंदू यानि केवल सनातन धर्म को मानने वाले नहीं, बल्कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं। इसी दौर में तथाकथित राष्ट्रवादी मुसलमानों को भाजपा से परहेज छोड़ कर साथ आने में कोई बुराई नजर नहीं आई। संगठन को सर्व धर्म स्वीकार्य बनाने और अपना जनाधार बढ़ाने के लिए गैर संघ पृष्ठभूमि के लोगों को शामिल करना पड़ा। यहां तक कि कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। इस नीति के लाभ भी हुए। कहीं सीधे सत्ता मिली तो कहीं पर प्रमुख विपक्षी दल बन कर उभरी और कांग्रेस विरोधियों अथवा अवसरवादियों का सहयोग लेकर सत्ता पर काबिज भी हुई। उसकी यह सफलता कम करके नहीं आंकी जा सकती कि जोड़ तोड़ के दम पर ही सही, मगर भाजपा न केवल राज्यों में सफल भी हुई अपितु 1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार भी चलायी। मगर इन सब के बीच एक समस्या फिर उठ खड़ी हुई है। वो यह कि भाजपा एक बार फिर जनता पार्टी जैसी पार्टी बन गई है, जिससे पिंड छुड़ा कर वह भाजपा के रूप में आई थी। इसमें कट्टर व उदारवादी दोनों अपना अपना महत्व रखते हैं। ऊपर से एक दिखने वाली भाजपा के अंदर दो धाराएं बह रही हैं। एक वह जो सीधे संघ से जुड़ी हुई है और दूसरी जो है तो बहुसंख्यक हिंदूवाद के साथ, मगर संघ से उसका कोई नाता नहीं और उदारवादी भी है। आज पार्टी में उदारवादी केवल महत्व ही नहीं रखते, अपितु कई जगह तो वे हावी हो गए हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में संघ पृष्ठभूमि वालों को भारी तकलीफ हो रही है और वे फिर से छटपटाने लगे हैं। वे पार्टी की मौलिक पहचान खोते जाने और पार्टी विथ द डिफ्रेंस की उपाधि छिनने की वजह से बेहद दुखी हैं। अर्थात एक बार फिर मंथन का दौर चल रहा है। इसी मंथन के बीच जब नीतीश ने धर्मनिरपेक्षता का दाव चला तो भाजपा तिलमिला गई। तिलमिलाना स्वाभाविक भी है। पार्टी ने अपनी चाल भी बदली और उसके बाद भी यदि उसे अथवा उसके कुछ चेहरों को सांप्रदायिक करार दिया जाएगा तो बुरा लगना ही है। ऐसे में भागवत ने पहल करके अपना वार चल दिया है। उन्होंने न केवल हिंदूवाद की परिभाषा पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है, अपितु भाजपा में भी किंतु-परंतु में जी रहे नेताओं को इशारा कर दिया है कि हिंदूवाद किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जाएगा। विशेष रूप से यह कि संघ की पसंद ही पार्टी की प्राथमिकता होगी। असल में संघ अपनी पसंद पिछले दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अहमियत भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के दौरान अहमियत बढ़ा कर जता चुका है, मगर जैसे ही नीतीश ने उसकी दुखती रग पर हाथ रखा तो भागवत को खुल कर सामने आना पड़ा। हालांकि उन्होंने मोदी का नाम तो नहीं लिया, मगर उनके बयान से साफ है कि वे मोदी की ही पैरवी कर रहे हैं। और इसी पैरवी के बहाने अपनी मौलिक नीति पर फिर से धार देने का इशारा भी कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
हालांकि राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के बीच यकायक प्रधानमंत्री पद का मुद्दा उठाने के पीछे नीतिश कुमार की जो भी राजनीति है, उसके अपने अर्थ हैं, मगर उसके जवाब में तुरंत भागवत का जवाब आना गहरे मायने रखता है। ऐसा लगता है कि नीतिश ने उपयुक्त समय समझ कर ही सवाल उठाया और भागवत को भी लगा कि इससे बेहतर मौका नहीं होगा, जबकि भाजपा को उसकी जड़ों से जोड़ा जाए।
इस प्रसंग में जरा पीछे मुड़ कर देखें। अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र का सपना पाले हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनीतिक चेहरे जनसंघ को जब अकेले हिंदूवादी दम पर सत्ता पर काबिज होना कठिन लगा तो अन्य विचारधारा वाले संगठनों अथवा यूं कहें कि कांग्रेस विरोधी व कुछ उदारवादी संगठनों का सहयोग लेकर जनता पार्टी का गठन करना पड़ा। वह प्रयोग सफल रहा और नई पार्टी इमरजेंसी से आक्रोशित जनता के समर्थन से केन्द्र पर काबिज भी हुई। मगर यह प्रयोग इस कारण विफल हो गया क्योंकि उसमें फिर कट्टर हिंदूवादी और उदारपंथी का झगड़ा बढ़ गया। ऐसे में हिंदूवादी विचारधारा वाले अलग हो गए व भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। भाजपा यह जानती थी कि वह अकेले अपने दम पर फिर सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती, इस कारण उसने फिर गैर कांग्रेसी दलों के साथ गठबंधन किया और फिर से सत्ता पर आरूढ़ हो गई।
जाहिर सी बात है कि ऐसे गठबंधन की सरकार को अनेक दलों के दबाव की वजह से अपना हिंदूवादी एजेंडा साइड में रखना पड़ा। उस वक्त संघ और हिंदूवादी संगठनों को तकलीफ तो बहुत हुई, मगर किया कुछ जा नहीं सकता था। इसी दौर में भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे को भुनाते हुए अपने बाहरी स्वरूप में बदलाव किया। भाजपा ने हिंदूवाद की परिभाषा को इस रूप में व्यक्त किया कि हिंदू यानि केवल सनातन धर्म को मानने वाले नहीं, बल्कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं। इसी दौर में तथाकथित राष्ट्रवादी मुसलमानों को भाजपा से परहेज छोड़ कर साथ आने में कोई बुराई नजर नहीं आई। संगठन को सर्व धर्म स्वीकार्य बनाने और अपना जनाधार बढ़ाने के लिए गैर संघ पृष्ठभूमि के लोगों को शामिल करना पड़ा। यहां तक कि कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। इस नीति के लाभ भी हुए। कहीं सीधे सत्ता मिली तो कहीं पर प्रमुख विपक्षी दल बन कर उभरी और कांग्रेस विरोधियों अथवा अवसरवादियों का सहयोग लेकर सत्ता पर काबिज भी हुई। उसकी यह सफलता कम करके नहीं आंकी जा सकती कि जोड़ तोड़ के दम पर ही सही, मगर भाजपा न केवल राज्यों में सफल भी हुई अपितु 1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार भी चलायी। मगर इन सब के बीच एक समस्या फिर उठ खड़ी हुई है। वो यह कि भाजपा एक बार फिर जनता पार्टी जैसी पार्टी बन गई है, जिससे पिंड छुड़ा कर वह भाजपा के रूप में आई थी। इसमें कट्टर व उदारवादी दोनों अपना अपना महत्व रखते हैं। ऊपर से एक दिखने वाली भाजपा के अंदर दो धाराएं बह रही हैं। एक वह जो सीधे संघ से जुड़ी हुई है और दूसरी जो है तो बहुसंख्यक हिंदूवाद के साथ, मगर संघ से उसका कोई नाता नहीं और उदारवादी भी है। आज पार्टी में उदारवादी केवल महत्व ही नहीं रखते, अपितु कई जगह तो वे हावी हो गए हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में संघ पृष्ठभूमि वालों को भारी तकलीफ हो रही है और वे फिर से छटपटाने लगे हैं। वे पार्टी की मौलिक पहचान खोते जाने और पार्टी विथ द डिफ्रेंस की उपाधि छिनने की वजह से बेहद दुखी हैं। अर्थात एक बार फिर मंथन का दौर चल रहा है। इसी मंथन के बीच जब नीतीश ने धर्मनिरपेक्षता का दाव चला तो भाजपा तिलमिला गई। तिलमिलाना स्वाभाविक भी है। पार्टी ने अपनी चाल भी बदली और उसके बाद भी यदि उसे अथवा उसके कुछ चेहरों को सांप्रदायिक करार दिया जाएगा तो बुरा लगना ही है। ऐसे में भागवत ने पहल करके अपना वार चल दिया है। उन्होंने न केवल हिंदूवाद की परिभाषा पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है, अपितु भाजपा में भी किंतु-परंतु में जी रहे नेताओं को इशारा कर दिया है कि हिंदूवाद किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जाएगा। विशेष रूप से यह कि संघ की पसंद ही पार्टी की प्राथमिकता होगी। असल में संघ अपनी पसंद पिछले दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अहमियत भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के दौरान अहमियत बढ़ा कर जता चुका है, मगर जैसे ही नीतीश ने उसकी दुखती रग पर हाथ रखा तो भागवत को खुल कर सामने आना पड़ा। हालांकि उन्होंने मोदी का नाम तो नहीं लिया, मगर उनके बयान से साफ है कि वे मोदी की ही पैरवी कर रहे हैं। और इसी पैरवी के बहाने अपनी मौलिक नीति पर फिर से धार देने का इशारा भी कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
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