शूर्पनखा
ये कहानी है एक राक्षसी के रूपसी और फिर राक्षसी बनने की.
‘पंचवटी’ में शूर्पनखा की ‘नाक का किस्सा’ और उसके बाद की रामायण
सबको पता है,
बिरले ही वाकिफ
होंगे प्रेम की उसकी तीखी चाहना और रिजेक्शन
से उपजी पीड़ा से.
उत्तर-आधुनिक कथाओं में भी इसका कोई ज़िक्र नहीं
न ही तथाकथित स्त्री-विमर्श में उसके साहस और
उन्मुक्तता की चर्चा
है.
हाइपोथिटिकल थ्योरी को लें तो घटा यूं होगा…
पंचवटी में राम के पुष्ट सौंदर्य को देखकर मोहित शूपर्नखा राम से,
-हे देव, आपका सौंदर्य अतुलनीय है. मैं शूर्पनखा आपसे
विवाह की इच्छुक हूं.
मुशिकल रहा होगा किसी अनजान पुरुष से प्रणय-निवेदन
जाने कितना साहस चाहिए दानव को मानव से प्रेम के लिए.
उत्तर में राम- हे
शूर्पनखे, मैं विवाहित हूं (ध्वनि...अन्यथा सोचता) और अपनी स्त्री के प्रेम में
हूं। तुम लक्ष्मण से बात करो (ध्वनि...शायद उसके एकांत का लाभ तुम्हें मिल सके).
बारी-बारी दोनों के
पास घूमती शूर्पनखा ने आख़िरकार छद्म भेष हटाया,
प्रेम तो मुझे
चाहिए, भले ही चाकू की नोंक पर.
आकर्षण, प्रेम-निवेदन, अस्वीकार और अनौदार्य से उपजा एक नंगा प्रश्न
अस्वीकार्यता, सिर्फ गण के कारण!
मैं प्रेम करती हूं, मुझे प्रेम चाहिए.
खूबसूरत थी ये शूर्पनखा, कितनी बेधक उसकी
मांग.
प्रेम ने बाह्य रूप
दिया तो रिजेक्शन ने आंतरिक
सच्चाई.
सीताहरण से शूर्पनखा के प्रणय-निवेदन
का ख़ास तार नहीं वरना सीता की भी नाक पर वार होता.
रामायण तो दो
पुरुषों के नाक की दास्तान है,
क्यों कहीं नहीं ज़्रिक प्रेम करने और प्रेम मांगने के अदम्य शूर्पनखीय साहस
का.
ये शूर्पनखा से मिला सबक ही तो है जो आज भी स्त्री प्रथम
प्रेम-निवेदन नहीं कर पाती.
***किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करना इस रचना का
उद्देश्य नहीं.
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