विषं विषमेव सर्वकालम
विष सदा विष ही रहता है कभी अमृत नहीं होता जैसे विष अपना स्वभाव नहीं बदलता
इसी प्रकार अविश्वासी स्वभाव वाला मनुष्य कभी विश्वास योग्य नहीं बना करता।
( चाणक्य )
कभी-कभी राजनीती में जनता भी धोखा खा जाती है और धूर्त के माथे पर भी राजमुकुट
रख देती है। क्या जनता के हीन कर्म का भोग धूर्त को भोगना पड़ता है? ...नहीं,क्योंकि
वह तो पहले ही सारहीन था बाद में भी सारहीन रहेगा । कर्म का सिद्धांत है जो करता है
वही भोगता है।पर कर्म का एक सिद्धांत यह भी है कि करे कोई और भरे कोई।विचित्रता
तो तब होती है जब करने वाला भी भोगता है और दूसरा( निर्दोष ) भी भोगता है।
यदि लोग यह सोच कर नागराज को पालते हैं कि इसको तो मैं रोज दूध पिलाता
हूँ इसलिए यह मुझे नहीं डसेगा या डस भी लेगा तो रोज दुध पीने के कारण नागराज का
जहर भी अमृत बन गया होगा और उसका कोई दुष्प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ेगा।हम अंधे
होकर किसी तथ्य की मनमाफिक व्याख्या करने में स्वतंत्र हैं मगर हमारी गलत व्याख्या
करने से तथ्य नहीं बदल जाता है क्योंकि विष सदैव विष ही रहता है।दुर्जन उदारता का
व्यवहार पाकर भी अवसर पाते ही अनिष्ट करने से नहीं चुकता है।
विषेले साँप को कभी भी यह भय नहीं होता है कि विष के कारण समाज में उसका
अपमान या तिरस्कार होगा।
जो हो रहा है अच्छे के लिए हो रहा है।जो हुआ वह अच्छा ही हुआ।धूर्त का चरित्र
जान और परख लेने का सुअवसर मिलने के कारण निकट भविष्य में जो अवसर आ रहा
है उस पर सही निर्णय अवश्य ही भुक्त भोगी लेंगें क्योंकि वे जान गए है कि अयोग्य फैसला
लिया तो नतीजा उन्हें भी भोगना है और दुसरो को भी मज़बूरी में भी भोगना पडेगा।
4 comments:
sahi kaha
sahi kaha
sahi kha
sahi kaha
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