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मित्रों,भारत की राजनीति में लगातार प्रयोग हो रहे हैं। दुर्भाग्यवश हमारे
अधिकतर राजनैतिक दल और राजनेता आज भी यथास्थितिवादी हैं। ऐसे राजनेताओं और
दलों की तुलना हम मजे में मच्छर,खटमल या जोंक से कर सकते हैं। कुछ की तुलना
जूँ से भी की जा सकती है जो खून पीने के बाद उसका रंग भी बदल देती है।
इनमें से कुछ तो पूरी तरह से रंगे सियार हैं तो कुछ सिर्फ अपनी पूँछ रंगकर
काम चला रहे हैं। कुछ गिरगिट की तरह रोज रंग बदलते रहते हैं। कुछ मगरमच्छ
की तरह आँसू की टंकी हैं तो कुछ ने न केवल बाघ की खाल ही पहन रखी है वरन वे
अब बाघ की बोली भी बोलने लगे हैं।
मित्रों,चाहे नेता कोई भी
हो या उसका दल कुछ भी हो उनमें से अधिकतर के विवाहेत्तर संबंधों की तरह ही
उद्योगपतियों के साथ अवैध संबंध हैं। इन्होंने फेरे तो लिए जनता के
साथ,कसमें भी खाई साथ निभाने की मगर ये प्यार करते हैं लक्ष्मी और
लक्ष्मीपतियों से। अब भारत का दिल कहलानेवाली दिल्ली को ही लें। पहले तो
वहाँ की सरकार ने बिजली-पानी के वितरण का निजीकरण किया और अब इसकी दरों को
सरपट बढ़ाती जा रही है। जनता मरे तो मरे मगर पूँजीपतियों और नेताओं की जेब
जरूर भरे। जनता करे भी तो क्या करे बिना पानी और बिजली के जीवन संभव भी तो
नहीं। कोई मार्ग नहीं कोई उपाय नहीं सिवाय अगले चुनावों का इंतजार करने के।
फिर वोट देकर दूसरी पार्टी को जिताईए और उनके हाथों लुट जाने के लिए तैयार
हो जाईए। वोट देते-देते ऊंगलियाँ घिस गईं,मतदान बाद स्याही लगाते-लगाते
हाथ काले हो गए। सरकारें बदलती रहीं लेकिन शासन का चरित्र नहीं बदला।
मित्रों,ऐसे में जनता को जगाने और संघर्ष के लिए तैयार करने का बीड़ा
उठाया है अरविन्द केजरीवाल ने। अरविन्द सत्तालोलुप हैं या नहीं या सत्ता
में आने के बाद वे भी बाँकी नेताओं की तरह चुनावेत्तर संबंधों में खोकर रह
जाएंगे या नहीं अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन उन्होंने जनता से जो सविनय
अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया है मेरी समझ से जनता के समक्ष सरकार को
झुकाने के लिए प्रत्येक परिस्थिति में इससे बेहतर विकल्प या रामवाण नहीं हो
सकता। इसलिए दिल्ली की सवा करोड़ जनता को चाहिए कि वे उनका साथ दें। वे
साथ कई तरीके से दे सकते हैं। कोई उनके साथ अनशन पर बैठ सकता है कोई पहले
पानी और बिजली का बिल नहीं भरकर और कनेक्शन कट जाने पर खुद से जोड़कर भी
सरकार की नाक में दम कर सकता है।
मित्रों,यह सविनय
अवज्ञा आंदोलन नामक ब्रह्मास्त्र ही था जिसका संधान कर हमारे राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी ने 1930-31 में ब्रिटिश हुकूमत को लोहे के चने चबवा दिए थे।
बाद में जब जनसमर्थन कम होने लगा तब गांधी को आंदोलन वापस भी लेना पड़ा था।
जाहिर है कि हमारे लिए अनशन पर गांधी बैठें या केजरीवाल या अन्ना हजारे या
फिर वे किसी नए आंदोलन का सूत्रपात करें। आंदोलन को सफलता मिलेगी या नहीं
पूरी तरह से जनसमर्थन पर निर्भर करता है। केजरीवाल कोई अफलातून नहीं हैं
बल्कि हा़ड़-मांस के बने आम आदमी हैं। वे जादू भी नहीं जानते जिसका प्रयोग
कर वे शीला दीक्षित के मन को बदल देंगे। सिर्फ शीला दीक्षित के मन को ही
नहीं बल्कि शासन के चरित्र को भी अगर कोई बदल सकता है तो वह हैं हम जनता।
तो आईए मित्रों हम केजरीवाल का साथ दें। नहीं देना है तो नहीं दें लेकिन
बिजली और पानी के मुद्दे पर सविनय अवज्ञा अवश्य करें और ठसाठस भर दें
दिल्ली के तिहाड़ जेल को। तभी टूट पाएगा दिल्ली सरकार और बिजली-पानी वितरण
कंपनियों के बीच का नापाक गठजोड़,अवैध चुनावेत्तर संबंध। डरिए नहीं जब
अरविन्द नहीं डर रहे तो आप क्यों डर रहे हैं। जिस दिन आपने डरना छोड़ दिया
उसी दिन से हमारे राजनेता हमसे डरने लगेंगे।
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